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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतअल-जवाहिरी की मौत के बाद भी तालिबान अल-कायदा को नहीं छोड़ेगा, काबुल सुरक्षित पनाहगाह है

अल-जवाहिरी की मौत के बाद भी तालिबान अल-कायदा को नहीं छोड़ेगा, काबुल सुरक्षित पनाहगाह है

तालिबान में व्यावहारिक नजरिया रखने वाले अंतरराष्ट्रीय मान्यता और राष्ट्र-निर्माण में मदद हासिल करने के खातिर वैश्विक जेहाद से नाता तोडऩे को तैयार हैं, मगर यह इतना आसान नहीं.

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दक्षिण अफगानिस्तान में अमेरिकी क्रूज मिसाइल हमले में जेहादी ट्रेनिंग कैंप के नेस्तनाबूद होने के फौरन बाद अमेरिकी विदेश विभाग के फोन की घंटी बजने लगी. दूसरी तरफ कंधार से इस्लामी अमीरात के शासक मौलाना थे. अब उजागर हुए गोपनीय दस्तावेजों से पता चलता है कि मुल्ला मुहम्मद उमर ‘का कोई खास संदेश नहीं, बल्कि सलाह थी…इस्लामी दुनिया में अमेरिका की साख बढ़ाने और उनकी मौजूदा घरेलू राजनैतिक दिक्कतों के मद्देनजर, कांग्रेस राष्ट्रपति (बिल) क्लिंटन पर इस्तीफे का दबाव बनाए.’

48 घंटे पहले, 20 अगस्त को अल-कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन के भेजे फिदायीन दस्ते ने केन्या और तंजानिया में अमेरिकी दूतावासों को बम से उड़ा दिया था, जिसमें 241 लोग मारे गए थे.

बिन लादेन के अंग रक्षक नासेर अल-बहरी के मुताबिक, हमले में करीब 71 क्रूज मिसाइल दागी गईं, हरेक की कीमत 10 लाख डॉलर से ज्यादा है, लेकिन सिर्फ छह जेहादी ही मारे गए. इस्लामी अमीरात के लिए इतना खून बहना मामूली ही था. एक आंख वाले मौलाना की अगुआई में अफगानिस्तान ने लादेन को सौंपने से इनकार कर दिया था और साफ-साफ कहने से कभी नहीं हिचका.

पिछले महीने बिन लादेन के उत्तराधिकारी अयमान अल-जवाहिरी की काबुल में उनके सुरक्षित घर में हत्या से गहरी सच्चाइयां जाहिर होती हैं. इन्हीं गर्मियों के शुरू में संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध मॉनिटर ने चेताया था कि तालिबान के शासन में ‘अफगानिस्तान में अल-कायदा को ज्यादा आजादी मिली हुई है.’ यह गुट दूतावासों पर बम धमाके या 9/11 जैसी बाहरी मुहिम नहीं चला रहा है, बल्कि तालिबान से मिले सुरक्षित पनाहगाह का इस्तेमाल अपने को नए सिरे संगठित करने में कर रहा है. वर्षों से तालिबान के साथ सुलह के पश्चिमी पैरोकार यह कहते रहे हैं कि वह संगठन अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से नाता तोड़ने को तैयार है और खुद को अमन की ताकत की तरह नए सिरे गढ़ना चाहता है, तब भी, बकौल न्यूयॉर्क टाइम्स के एक स्तंभकार, इस्लामी अमीरात के गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी पर शक किया जाता रहा है. माना जाता है कि हक्कानी ने ही अल-जवाहिरी को सुरक्षित घर मुहैया कराया था.

लेकिन स्थितियां उस ओर नहीं मुड़ीं. उसकी एक वजह तो अल-कायदा और तथाकथित हक्कानी नेटवर्क के बीच गहरे रिश्ते हैं. हक्कानी नेटवर्क मुख्य रूप से पूर्वी अफगानिस्तान के जादरान कबीले के नेताओं से मिलकर बना है. लेकिन अल-कायदा और तालिबान का रिश्ता एक गुट तक ही सीमित नहीं, ज्यादा गहरा है. इस रिश्ते के कायम रहने से तालिबान के विचारधारात्मक लक्ष्य को लेकर कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं, और यह भी कि क्या वह कभी अंतरराष्ट्रीय जेहाद की अपनी मुहिम से तौबा कर पाएंगे.


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हक्कानी नेटवर्क का उदय

अफगानिस्तान के आधुनिकतावदी शाह अमानुल्ला खान ने 1920 के बाद ऐसी ताकतों को हवा दी, जिसका आखिरकार नतीजा तालिबान के रूप में सामने आया. शाह ने औरतों का अलगाव खत्म करने का आदेश जारी किया और लड़के-लड़कियों की एक साथ पढ़ाई वाले स्कूल स्थापित किए. संयुक्त राष्ट्रीय फौज बनाने के लिए उन्होंने फौज में दक्षिण-पूर्वी पख्तूनों को हासिल रियायतें खत्म कर दीं. शाह के सुधारों से कबीले के सरदारों और मुल्ला-मौलवी नाराज हो उठे.

जादरान कबीले ने दोबार-1924 और 1928 में शाह के खिलाफ बगावत किया, जिससे हक्कानी जुड़े हुए हैं. इसके अलावा, इतिहासकार सना हारून के मुताबिक, दक्षिण में भी आवाजें उठीं, क्योंकि स्थानीय पख्तून उत्तर वजीरीस्तान में अंग्रेजों के खिलाफ मौलाना की अगुआई में बगावत के साथ जुड़ गए. अमानुल्ला के उत्तराधिकारी शाह नादिर शाह को सुधार और राष्ट्र-निर्माण की कोशिशें रोकनी पड़ीं.

हक्कानी परिवार के संस्थापक ख्वाजा मुहम्मद खान अफगान राष्ट्र-निर्माण की नाकामियों से परेशान मजहबपरस्त व्यापारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे. खान ने ब्रिटिश भारत से व्यापार में जो थोड़ी-बहुत जायदाद बनाई थी, उससे अपने चारों बेटों को दर-उल-उलमू हक्कानिया में पढ़ाया, जिसकी स्थापना 1947 में हुई थी.

इस्लामी सियासतदां समी-उल-हक की अगुआई में यह मदरसा पाकिस्तान में इस्लामी आंदोलन के बौद्धिक केंद्र बनकर उभरा. उसके छात्र-फज्ल-उल-रहमान, मुहम्मद युनूस खालिस और मुल्ला उमर खुद ताकतवर जेहादी गुटों के कमान संभालने चले गए. भारतीय उपमहाद्वीप में अल-कायदा का संस्थापक, उत्तर प्रदेश में जन्मा सना-उल-हक भी यहीं का छात्र था, और इसी तरह उसके पहले की पीढ़ी के ख्वाजा मुहम्मद खान के बेटे जलालुद्दीन हक्कानी भी.

फिर 1957 में सोशलिस्ट प्रधानमंत्री मोहम्मद दाऊद खान ने औरतों की शिक्षा के मसले पर दक्षिण-पूर्वी कबीलों में टकराव की आग जला दी. जलालुद्दीन सुधार के खिलाफ नए जेहाद में प्रमुख चेहरा बनकर उभरा.

इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) निदेशालय ने जलालुद्दीन के उदय में खास भूमिका निभाई. विद्वान सी. क्रिस्टीन फेयर ने लिखा, पूर्व पाकिस्तान प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भूट्टो ने दाऊद शासन को परेशान करने के लिए इस्लामी गुटों का इस्तेमाल किया. फ्रंटियर कॉर्प्स के ब्रिगेडियर नसीरूल्ला बाबर ने अफगानिस्तान के अनुमानित 5,000 जेहादी वालंटियरों को ट्रेनिंग देने के लिए फौजी कैंप स्थापित किए, जो बाद में पाकिस्तान के रक्षामंत्री बने.

वैश्विक जेहाद का भाईचारा

सोवियत फौज ने जब 1979 में अमू दरिया पार की, उस वक्त अरब वालंटियरों के छोटे-मोटे दस्ते दर-उल-उलूम हक्कानी में ग्रेजुएट होने के लिए पाकिस्तान आने लगे थे. इनमें सबसे प्रभावी अब्दुल्ला आजम होंगे, जिन्होंने इस्लामाबाद में इंटरनेशनल इस्लामिक यूनिवर्सिटी में बतौर शिक्षक हफिज मुहम्मद सईद को लश्कर-ए-तैयबा को स्थापित करने में मदद की थी और जवान बिन लादेन के गुरू थे. मोर्चे पर लड़ते हुए आजम जेहादियों की एक पूरी पीढ़ी के नायक बन गए.
आजम की 1987 की किताब डिफेंस ऑफ द मुस्लिम लैंड को आधुनिक जेहादी आंदोलनों का मुख्य पाठ माना जाता है, खासकर उसका यह वाक्य कि हर मुसलमान के लिए लड़ाई जरूरी है. इस अवधारणा को उन्होंने सऊदी अरब के मुख्य मौलाना अब्दुल्ला बिन बाज के समर्थन से पेश की थी.

हालांकि इस अवधारणा को दर-उल-उलूम के जेहादी वर्षों से आगे बढ़ा रहे थे. जलालुद्दीन हक्कानी ने 1980 में कहा, ‘अगर इस्लामी दुनिया हमें वाकई मदद करना चाहती है तो उसे अपने नौजवानों को हमसे जुड़ने की इजाजत देनी चाहिए. इस्लामी दुनिया के ज्यादातर देशों में यह चलन है कि हमें जेहाद के मद में कुछ मदद और खाना वगैरह मुहैया करा दें. कुछ तो इसे ही सबसे अच्छा जेहाद मानते हैं. हालांकि इससे जेहाद के लिए खुद को समर्पित करने मुस्लिम दायित्व से छुटकारा नहीं मिल जाता.’

वाहिद ब्राउन और डॉन रासलर ने लिखा है कि यह ऐलान ‘अब्दुल्ला आजम के उस ‘इंकलाबी’ फतवे से काफी पहले का है.’

आजम ने जब अल-कायदा की नींव रखी, उसके पांच साल पहले से उसके होने वाले नेता हक्कानी के झावर ठिकाने में ट्रेनिंग ले रहे थे. मिस्र का जेहादी मुस्तफा हमीद 1979 में पहुंचा, उसके फौरन बाद लश्कर-ए-तैयबा के जकी-उर-रहमान लखवी और हरकत-उल-मुजाहिदीन का फजलूर रहमान खलील पहुंचा. फिर यूरोप, मध्य एशिया और कश्मीर से हजारों पहुंचे.

हक्कानी ने 1991 में ऐलान किया, ‘जब तक दुनिया भर में काफिर हार नहीं जाते, जेहाद पवित्र दायित्व बना रहेगा. अल्ला हमें हमारे पुराने जेहाद के लिए बरकत नहीं देगा.’ अमेरिका की डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी ने दर्ज किया, पाकिस्तान की आईएसआई की शह से 1996 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद अल-कायदा ने अपना विस्तार किया.

इस्पाती गठजोड़

हक्कानियों ने अल-कायदा के साथ करीबी रिश्ता बनाए रखा, जेहादी गुटों ने कंधार स्थित सरदारों से करीब रिश्ते कायम रखे. मसलन, 2015 में अमेरिकी बलों ने अल-कायदा के ज्ञात सबसे बड़े कैंप पर बम से हमला किया, जो कंधार की पहाड़ियों में चल रहा था. जुलाई 2014 में मुल्ला उमर ने अल-जवाहिरी से औपचारिक गठजोड़ कबूल की कि अल-कायदा और हर जगह की शाखाएं हमारी फौज की इकाइयां हैं, जो उनके विजयी बैनर में सक्रिय हैं.

मुल्ला उमर की जगह लेने वाले मुल्ला अख्तर मोहम्मद मंसूर ने अल-कायदा से जुड़े रहने की सार्वजनिक शपथ ली, जिसका तालिबान ने कभी खंडन नहीं किया, अलबत्ता अपनी वेबसाइट से उसे हटा दिया.

लिबियाई जेहादी अत्तियत अब्देल रहमान ने 2011 में लिखा, ‘तालिबान की नीति हमारे साथ दिखने से बचने या हमारे तथा उनके बीच कोई सहयोग या करार का खुलासा न करने की है. इसका मकसद अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय तथा क्षेत्रीय सक्रियताओं के मद्देनजर दबाव को दूर रखने की है. हम इस मामले में उनसे अलग राय रखते हैं.’

हालांकि तालिबान के पूर्वी और दक्षिणी घटक दबदबे के लिए कई बार खूरेंज जंग में उलझे-सिराजुद्दीन की तालिबान के अमीर मुल्ला मुहम्मद हैबतुल्लाह और मुल्ला याकूब उमर से टक्कर है-लेकिन दोनों में से कोई अल-कायदा से रिश्तों को लेकर समझौता करने को तैयार नहीं है.

शुरू से ही तालिबान में कुछ व्यावहारिक नजरिए वाले अंतरराष्ट्रीय मान्यता और राष्ट्र-निर्माण में मदद की आस में वैश्विक जेहाद से दूर रहने के ख्वाहिशमंद हैं. हालांकि संगठन पर उनकी पकड़ काफी कम है. तालिबान के लिए, जेहाद साधन नहीं, साध्य है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट के नेशल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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