सुषमा स्वराज जब राष्ट्रपति भवन के बाहर दर्शक दीर्घा की आगे से गुजर रही थीं तो पूरे माहौल में एक खामोशी भी छायी थी, तो कुछ फुसफुसाहट भी उभर रही थी. वे शपथ लेने जा रहे नए मंत्रियों के लिए बने भव्य मंच की तरफ न जाकर दर्शक दीर्घा की पहली कतार में जाकर बैठ गई थीं, जहां तमाम गणमान्य हस्तियां बैठी थीं. उनके प्रशंसकों की विशाल जमात अब भी उम्मीद लगाए थी- नरेंद्र मोदी इस सबसे लोकप्रिय मंत्री के बिना अपना दूसरा कार्यकाल भला कैसे शुरू कर सकते हैं?
सुषमा को अपने स्वास्थ्य को लेकर जो परेशानियां हैं वे कोई रहस्य नहीं हैं. वास्तव में उन्होंने ट्विटर पर यह जाहिर करके भारत में सार्वजनिक जीवन जी रहे व्यक्तियों से संबन्धित एक वर्जना को तोड़ा कि वे अपनी किडनी का प्रत्यारोपण करवा रही हैं. इसके बाद उन्होंने बहुत अच्छी तरह स्वास्थ्यलाभ भी किया. उनका रोगप्रतिरोधी तंत्र जबकि नई किडनी से तालमेल बैठा ही रहा था, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान को जोरदार जवाब दिया, दुनिया भर के विदेश मंत्रियों से मुलाक़ात की और अपनी एक सौम्य-शालीन छवि बनाई. उनके होठों से एक भी बेमानी शब्द नहीं निकला, एक भी हल्की बात नहीं निकली, न ही गुस्से या हताशा का कोई प्रदर्शन उन्होंने किया.
तमाम देशों के अपने समकक्षों की तरफ हाथ बढ़ाकर उन्होंने कूटनीति की एक नई परिभाषा गढ़ी. उनके प्रतिद्वंद्वी तथा आलोचक यह कहकर मखौल उड़ाते रहे कि पूरी विदेश नीति तो मोदी ही चला रहे हैं और सुषमा के पल्ले तो बस ट्विटर पर पासपोर्ट-वीसा के मामले सुलझाना ही रह गया है. ऐसा भी समय आया जब उन्हें विदेश में भारतीयों की ‘दुखहरणी आंटी’ कहा गया और उन्होंने इसका बुरा भी नहीं माना.
मोदी मंत्रिमंडल में किसी भी मंत्री का वास्तव में कुछ बड़ा दांव पर नहीं लगा था. लेकिन सुषमा के लिए चुनौती वाकई कठिन थी. प्रधानमंत्री दुनियाभर में प्रसिद्धि और गौरव कमा रहे थे, और वे बिना किसी परेशानी के उनके लिए रास्ता बना रही थीं. सुषमा के प्रति आकर्षण, उनकी हाज़िरजवाबी, उनके प्रति मीडिया के प्रशंसाभाव में कोई कमी नहीं आई थी; और उनमें अनुभवी राजनीतिक नेताओं वाली नज़र तो है ही जो दीवारों पर लिखी इबारत को समझ लेती है. सो, उन्होंने कदम पीछे खींच लिये, नेपथ्य में चली गईं और मोदी के लिए प्रशंसा के सिवाय कभी कोई दूसरा भाव व्यक्त नहीं किया.
मैं उन्हें 1977 से जानता हूं, जब हम दोनों ने चंडीगढ़ जैसे छोटे शहर से अपना-अपना करियर शुरू किया था. उन्होंने मात्र 25 वर्ष की उम्र में देवीलाल की जनता पार्टी सरकार में सबसे युवा मंत्री के तौर पर राजनीति में अपनी शुरुआत की थी और मैंने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के सिटी रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता में अपनी शुरुआत की थी. मैंने उन्हें अधिकतर नेताओं के मुक़ाबले अधिक धैर्यशील और स्वाभिमानी पाया है. मैं कह नहीं सकता कि अपने 42 साल के राजनीतिक जीवन में आए इस नए मोड़ को उन्होंने किस तरह स्वीकार किया होगा, जब उन्हें अपनी पार्टी की दूसरी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में एक दर्शक के तौर पर पधारने पर तालियां मिली होंगी.
खासकर तब जबकि उनका उत्तराधिकारी उन एस. जयशंकर को बनाया गया, जिन्होंने विदेश सचिव के तौर पर अपना पूरा कार्यकाल (2015-18) उनके अधीन बिताया और इससे पहले अमेरिका में राजदूत रहे. हो सकता है कि अपनी आंतरिक शक्ति के बूते सुषमा ने इसे दार्शनिक भाव से कबूल कर लिया हो. उन्हें यह भी पता है कि यह उनके प्रशंसनीय राजनीतिक जीवन का एक मोड़ नहीं बल्कि शायद उपसंहार है.
हालांकि उनका जन्म अंबाला के एक आरएसएस परिवार में हुआ था-उनके पिता आरएसएस के एक प्रमुख पदाधिकारी थे-लेकिन उनकी पहली पहचान इमरजेंसी के दौरान बड़ौदा डायनामाइट कांड में गिरफ्तार किए गए जॉर्ज फर्नांडीस का मुकदमा लड़ने वाली एक तेजतर्रार वकील के रूप में उभरी थी. चूंकि जॉर्ज समाजवादी नेता थे और सुषमा के साथी वकील स्वराज कौशल भी, जिनसे उन्होंने इमरजेंसी विरोधी आंदोलन के दौरान शादी की, समाजवादी थे इसलिए उनकी छवि एक सहयात्री की बन गई. लेकिन वो आपको यह याद दिलाना नहीं भूलतीं कि उनकी मूल आस्था आरएसएस में ही है, बाकी तो समाजवादियों के साथ उनके मेलजोल से बना भ्रम है.
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1977 में इमरजेंसी खत्म होने और इंदिरा गांधी की कांग्रेस के सफाए के बाद 25 की उम्र में ही सुषमा हरियाणा की श्रम व रोजगार मंत्री बनीं. उन्हें जनता पार्टी के एक उभरते सितारे और आरएसएस/जनसंघ की सदस्य के तौर पर नहीं बल्कि जॉर्ज की सहयोगी के तौर पर देखा गया. उल्लेखनीय बात यह भी है कि सत्तर के दशक की भारतीय राजनीति में अपने बूते उभरी एक महिला नेता 27 की उम्र में ही हरियाणा जनता पार्टी की अध्यक्ष बन गई. लेकिन 1979 में जब जनता पार्टी टूट गई तो वे इससे अलग हुए जनसंघ धड़े की ओर मुड़ गईं. इसके बाद, किसी विशिष्ट परिवार की न होते हुए भी अपने दम पर उन्होंने जबरदस्त मुकाम हासिल किया.
उन्होंने हमें यह विश्वास दिलाने के कई काम किए कि वे भी भाजपा के पुरातनपंथ में यकीन करती हैं. उन्होंने राष्ट्रीय कैलेंडर से अजंता की नृत्य करती अप्सरा को बाहर करवाया, फैशन टीवी को प्रतिबंधित किया, कंडोम के कई विज्ञापनों को ‘अश्लील’ बताकर बंद करवाया, ‘स्टूडेंट ऑफ द इयर’ फिल्म के ‘सेक्सी राधा’ गाने से लेकर दीपा मेहता की फिल्म ‘फायर’ में समलैंगिक ननद-भाभी राधा-सीता की भूमिका निभा रहीं शबाना आज़मी और नन्दिता दास के प्यार के खुले दृश्यों को प्रतिबंधित किया और अभी हाल में उन्होंने किराए की कोख को लेकर अपने विचार प्रकट किए या बलात्कार की शिकार को ‘जिंदा लाश’ कहा. लेकिन, ये सब आपकी हमेशा से प्रतिगामी भाजपा को रूढ़िपंथी नहीं बनाने वाले.
सुषमा के जीवन के कई ऐसे पहलू हैं जो यह दर्शाते हैं कि वे कुछ अलग हस्ती हैं. वे मुख्यधारा का मध्यवर्गीय जीवन जीती रहीं और तब अपना अलग रास्ता बनाया जब उन जैसी महिलाएं इसकी हिम्मत नहीं करती थीं. यही नहीं, उन्होंने अपनी पार्टी की उन सीमाओं को भी तोड़ा जिन्हें कई पीढ़ियों की पुरुषवादी सत्ता ने मजबूती दी थी और जिसमें इसकी पितृसंस्था आरएसएस के पुरुषप्रधान पदानुक्रम का योगदान बेशक कम नहीं रहा. लेकिन मंगलोर में जब हिंदू कट्टरपंथ का सबसे घृणित चेहरा सामने आया था और युवतियों को ‘अनैतिकता’ के आरोप में बार से निकालकर पीटा गया तब सुषमा इसके खिलाफ आवाज़ उठाने से डरीं नहीं. उन्होंने एक आधुनिक, स्वतंत्र महिला तथा एक युवती की मां के तौर पर महिलाओं की स्वाधीनता और सुरक्षा की वकालत की थी. उनकी पार्टी के कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति की थी मगर सुषमा ने अपने प्रशंसकों की निरंतर बढ़ती जमात को एहसास करा दिया था कि वे कुछ हट कर हैं.
इस बार चुनाव न लड़ने की घोषणा करके सुषमा ने समय रहते स्पष्ट कर दिया था कि वे अलग रहना चाहती हैं. विधानसभाओं और संसद के कुल 11 चुनाव लड़ने वाली सुषमा यह साबित कर चुकी हैं कि वे मुक़ाबला करने से कभी पीछे नहीं हटतीं, खासकर अब जबकि उनकी उम्र अभी 66 साल ही है. लेकिन स्वास्थ्य उनके लिए एक चुनौती बन गई है क्योंकि उन्हें बहुत पहले ही डाइबिटीज़ हो गया था. इसलिए उनका विदा लेना पहले से तय और गरिमापूर्ण था. मैं एक ही सुझाव देता कि बेहतर होता वे कुछ पहले ही किसी समय यह औपचारिक बयान जारी कर देतीं कि वे नए मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होने जा रही हैं. ऐसे बयान के बाद उनके विरोधी भी कबूल करते कि उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन एक विजेता, पार्टी की निष्ठावान नेता के रूप में पूरा किया.
वे लालकृष्ण आडवाणी की अनुचर मानी जाती रहीं लेकिन 2009 में पराजय के बाद भी जब उन्होंने नई पीढ़ी को रास्ता देने से मना कर दिया तो सुषमा बेहिचक पार्टी की उस ‘चौकड़ी’ में शामिल हो गईं जिसके बाकी तीन सदस्य थे वेंकैया नायडू, अनंत कुमार और अरुण जेटली. इस चौकड़ी ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत से दखल देने की गुहार लगाई थी ताकि एक युवा चेहरे को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए. इस तरह नितिन गडकरी को लाया गया. यह इसके बावजूद हुआ कि पार्टी में सुषमा बनाम जेटली प्रतिद्वंद्विता को एक खुला रहस्य माना जाता रहा. लेकिन पार्टी की खातिर इन दोनों ने मिलकर काम किया.
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पिछले पांच वर्षों में ऐसा भी समय आया जब पीएमओ की तरफ से उन्हें उपेक्षा, या तिरस्कार सहना पड़ा. लेकिन लुटियन की दिल्ली पर आंख-कान गड़ाए रखने वालों ने इस बात पर जरूर गौर किया होगा कि जब मोदी विदेश यात्रा पर गए थे और ‘नंबर दो’ राजनाथ सिंह चीन में थे तब मोदी ने जेटली की जगह सुषमा को दुबई की अपनी पूर्वनियोजित यात्रा रद्द करके उनकी जगह लेने के लिए कहा था. साफ था कि मोदी को उनकी वफादारी ही नहीं बल्कि उनकी निर्णय क्षमता पर कितना भरोसा था.
यह उनके राजनीतिक जीवन का शिखर था. आप इस सवाल पर बहस तो कर ही सकते हैं कि भाजपा/आरएसएस ने आडवाणी के बाद उन्हें अगर भावी नेता चुना होता तो क्या होता. वे उम्र में मोदी से तो छोटी हैं ही. तब सुषमा की भाजपा कैसी होती? बेशक आज के जैसी वैचारिक रूप से रूढ़िपंथी तो नहीं ही होती. लेकिन शायद आज जितनी एकजुट, एकबद्ध भी नहीं होती.
यह एक अच्छी बहस है, बेशक अकादमिक. क्रिकेट की तरह राजनीति में भी हर सितारा कपिलदेव या सचिन तेंदुलकर नहीं बन जाता. किसी को राहुल द्रविड़ भी बनना पड़ता है, जिसे अपरिहार्य तो माना जाता है मगर वह प्रसिद्धि और ताकत नहीं दी जाती. अगर आप मुझे इस तरह की पॉप सोशियोलॉजी बघारने के लिए क्षमा करें तो मैं यही कहूंगा कि नेता सुषमा स्वराज के लिए यही उपमा दी जा सकती है.
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