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Wednesday, 8 May, 2024
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सर्विलांस स्टेट नहीं होता सबसे सुरक्षित और भारतीय सरकारों को इसे समझने की जरुरत है

सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, भारत की खुफिया सेवाओं ने प्रधान मंत्री की इच्छा से चलने वाले उपकरणों के रूप में काम किया है. उनके संचालन के लिए न तो कोई तयशुदा कानूनी ढांचा है, और न ही कोई जवाबदेही.

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खुदा की तरह, खलीफा को भी सब कुछ दिखता था: एक तातार शिक्षक, काशगर के एक दरवेश, भारत के एक भिखारी, अभिनेता, भ्रम फैलाने वाले बाजीगरों और हजारों अन्य गुप्त एजेंटों (जासूसों) की निगाहों के जरिए, तुर्क सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय अपने सारे-के-सारे साम्राज्य पर नजर रखता था. बेयोग्लू, बकिरकोय और बुयुकडेरे से उनके तख़्त के खिलाफ रची जा रही साज़िशों की खबरें आतीं थीं, और बाहरी बुल्गारिया से, एक इबादत के दौरान सुल्तान को डायनामाइट बम के उड़ाने की साजिश की चेतावनी भी दी गई थी. हरेक खबर को सुल्तान द्वारा पहले खुद पढ़ा जाता था और फिर मुखबिर का नाम मिटाये जाने के बाद उसे दूसरे अधिकारियों को सौंप दिया जाता था.

सुल्तान अपने सबसे भरोसेमंद मंत्रियों को भी एक-दूसरे की जासूसी करने के लिए प्रोत्साहित करता रहता था . इसके बारे में मिस्र के समकालीन पत्रकार इब्राहिम अल-मुवेलिही ने लिखा, ‘वे सभी एक दूसरे की तुलना किसी मीनार से करते थे: बाहर से तो यह सीधा दिखता है, लेकिन अंदर से वास्तव में टेढ़ा होता है.’ उनका कहना था, ‘उनका मुंह तो मुस्कुरा सकता है, लेकिन उनका दिल बदले की भावना से भरा है.’

पिछले हफ्ते, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक समिति ने न्यायमूर्ति आर.वी. रवींद्रन से यह सुनिश्चित करने के लिए कानूनी सुधारों की सिफारिश की कि भारत भी उस सुल्तान द्वारा बनाए गए ‘पैरानॉयड डायस्टोपिया’ (भयातुर आतंक राज्य) के रूप में अपभ्रष्ट न हो जाए. हालांकि इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है, मगर जस्टिस रवींद्रन ने कहा कि अदालत ने नागरिकों के गोपनीयता अधिकारों की रक्षा के उपायों की व्यवस्था के साथ भारत की खुफिया सेवाओं द्वारा इलेक्ट्रॉनिक निगरानी को विनियमित करने के लिए एक कानून की मांग की है.

भले ही समिति यह निर्धारित करने में सक्षम नहीं रही कि क्या भारत सरकार ने सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और राजनीतिक नेताओं के फोन में किसी तरह का मैलवेयर डाला था- और न ही इस बात के निशान मिले कि इज़राइल निर्मित पेगासस सॉफ़्टवेयर का उपयोग किया गया था- मगर अह्म मुद्दा यह नहीं है.

पिछली कई पीढ़ियों से तमाम सरकारों ने खुफिया सेवाओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मौजूद खतरों को उजागर करने के वास्ते जुटाए गए उपकरणों का उपयोग करके, अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जासूसी में संलग्न होने के लिए बाध्य किया है. भारतीय लोकतंत्र को इस परिपाटी की गहरी कीमत चुकानी पड़ी है और बदलाव के लिए जरुरी समय भी समाप्त हो रहा है. जैसा कि अब्दुल हमीद द्वितीय और दर्जनों अन्य सत्तावादी शासकों ने बाद में सीखा, एक कड़ी निगरानी वाले राज्य (सर्विलांस स्टेट) का मतलब एक सुरक्षित राज्य नहीं होता है.

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भारतीय राजनीतिक जासूसी

घरेलू राजनीतिक जासूसी में भारत की खुफिया सेवाओं की भागीदारी के तार ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत ही जोड़ दिए गए थे. 1884 से 1888 तक भारत के वायसराय रहे फ्रेडरिक हैमिल्टन-टेम्पल-ब्लैकवुड ने ‘राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों पर खुफिया जानकारी इकठ्ठा करने’ के लिए एक केंद्रीय संगठन के निर्माण का आदेश देते हुए, ‘इंटेलिजेंस ब्यूरो’ की नींव रखी थी. 1920 में, यह मुख्य रूप से राजनीतिक जानकारी एकत्र करने पर ध्यान देने वाला इंटेलिजेंस ब्यूरो बन गया.

पिछली शताब्दी की शुरुआत में राष्ट्रवादी ‘आतंकवाद’ में आई तेजी का सामना करते हुए, केंद्रीय खुफिया संगठन ने निर्णय लेने की प्रकिया पर काफी अधिक प्रभाव हासिल कर लिया. हालांकि इंटेलिजेंस ब्यूरो का आकर सुल्तान हामिद II के विशाल यिल्डिज़ नेटवर्क – जो 1880 के दशक में ही पैदा हुआ था – की तुलना में बहुत छोटा था, मगर इसकी शक्ति ने उस समय की इम्पीरियल गवर्नमेंट (ब्रिटिश शाही सरकार) के भीतर भी चिंताएं बढ़ा दीं थीं.

तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट एडविन मोंटेग ने साल 1918 में चेतावनी दी थी कि केंद्रीय खुफिया सेवा का इस्तेमाल ‘न केवल एक वृहत जासूसी एजेंसी के रूप में, बल्कि सरकार के एक उपकरण के रूप में किया जा रहा है.’ उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा था, ‘कि इसकी गतिविधियां बहुत व्यापक हैं; कि यह बहुत तेजी से बढ़ रहा है; और आपकी पुलिस के माध्यम से शासन करना सुविधाजनक तो है लेकिन खतरनाक भी है.’

आजादी के बाद, भारत सरकार की इंटेलिजेंस ब्यूरो पर निर्भरता और बढ़ गई. साल 1963 में, इंटेलिजेंस ब्यूरो ने गुजरात पुलिस को तत्कालीन प्रमुख विपक्षी दल स्वतंत्र पार्टी के नेताओं और कांग्रेस में शामिल दक्षिणपंथी तत्वों पर निगरानी रखने का निर्देश दिया था. राज्य के मुख्यमंत्री बलवंतराय मेहता द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं का जवाब देते हुए, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जोर देकर कहा था कि ‘सरकार की नीतियों का आदतन विरोध करने वालों’ पर निगरानी रखी ही जानी चाहिए.

फिर, साल 1978 में, न्यायमूर्ति जेसी शाह आयोग, जिसने आपातकाल के दौरान चलाये गए गैरकानूनी खुफिया अभियानों की जांच पड़ताल की थी, ने बाबू जगजीवन राम सरीखे राजनेताओं के खिलाफ बढ़ती निगरानी के लिए ‘इंटेलिजेंस ब्यूरो’ को फटकार लगाई. हालांकि, शाह आयोग ने ‘इंटेलिजेंस ब्यूरो के संचालन के लिए किसी कानूनी ढांचे की जरुरत पर जोर नहीं दिया और इसके बजाय उसने सिफारिश की थी कि इसके कामकाज की निगरानी के लिए प्रतिष्ठित नागरिकों की एक समिति नियुक्त की जाए.

सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, भारत की खुफिया सेवाओं ने प्रधान मंत्री की इच्छा से चलने वाले उपकरणों के रूप में काम किया है. उनके संचालन के लिए न तो कोई तयशुदा कानूनी ढांचा है, और न ही कोई जवाबदेही.

तमाम लोकतंत्रों के लिए एक चुनौती की तरह

भारत की ही तरह, दुनिया भर के तमाम लोकतंत्र राजनीतिक उद्देश्यों के लिए खुफिया सेवाओं के दुरुपयोग की समस्या से जूझ रहे हैं. अब यह सबको ज्ञात है कि 1960 के दशक के दौरान, संयुक्त राज्य अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी और फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन (ऍफ़बीआई) ने वहां के नागरिक अधिकार आंदोलन (सिविल राइट्स मूवमेंट) की निगरानी की, जिसके तहत मार्टिन लूथर किंग जूनियर, मैल्कम एक्स और यहां तक कि अभिनेत्री जेन फोंडा को भी निशाना बनाया गया. अमेरिकी कांग्रेस की एक जांच ने चेतावनी दी कि इस तरह की कार्यप्रणाली ने लोकतांत्रिक संस्थानों और आम नागरिकों के अधिकारों के लिए बढ़ते जोखिम को जन्म दिया है.

फ़्रांस में भी इसी तरह के सनसनीखेज मामलों को देखा गया, जिनमें विपक्षी दलों के खिलाफ उसकी घरेलू खुफिया सेवा, रेनसिग्नमेंट्स जेनेरॉक्स, का दुरुपयोग भी शामिल था. ब्रिटेन की एमआई-5 द्वारा ट्रॉट्स्कीइट समूहों और उसके पुलिस बलों द्वारा ‘उग्रवादी’ पर्यावरण आंदोलनों की जासूसी करने का खुलासा हुआ है. फ़िलहाल के लिए, यूरोपीय संसद इस विश्वसनीय जानकारी के आधार पर सुनवाई कर रही है कि पेगासस का इस्तेमाल स्पेन, पोलैंड और हंगरी में विपक्षी नेताओं की जासूसी करने के लिए किया जा सकता है.

भले ही यह कोई राज की बात नहीं है कि सभी राष्ट्र एक-दूसरे की जासूसी करते हैं – यूरोपीय संसद की एक जांच से पता चला है कि अमेरिका के नेतृत्व वाली इकोलोन प्रणाली दशकों से वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक संचार पर नजर रख रही थी – मगर अधिकांश लोकतान्त्रिक देश अपने नागरिकों को अपनी स्वयं की खुफिया सेवाओं द्वारा की जा रही निगरानी से बचाते रहें हैं.

यूके की सुरक्षा प्रणाली एक इंडिपेंडेंट रिव्यु ट्रिब्यूनल (स्वतंत्र समीक्षा न्यायाधिकरण) के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जबकि फ्रांस, जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका में किसी की भी निगरानी के लिए न्यायिक प्राधिकरण से मंजूरी की आवश्यकता होती है.

हालांकि, भारत सभी प्रमुख लोकतंत्रों में से एक अपवाद के रूप में है. हमारा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम केंद्रीय गृह सचिव तथ राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के गृह सचिवों को डिजिटल संचार को इंटरसेप्ट करने (बीच में सुने या रिकॉर्ड किये जाने) की शक्ति देता है. आपातकालीन स्थिति में, जैसे कि किसी आतंकवाद-रोधी अभियान के जारी रहने के समय, पुलिस महानिरीक्षक या सरकार का कोई संयुक्त सचिव भी इस तरह के आदेश जारी कर सकता है.

सरकार ही यह तय करती है कि कब और कौन सी परिस्थितियां इलेक्ट्रॉनिक निगरानी को सही ठहराती हैं, इसे कब तक बनाए रखा जाना चाहिए और क्या इसका न्यायिक प्रकटीकरण (जुडिशल डिस्क्लोजर) होना चाहिए. सीधे शब्दों में कहें तो, वह अपने स्वयं के उद्देश्य के लिए खुद ही एक न्यायाधीश है.

नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से सहयोग की कमी – जिसे स्वयं मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना द्वारा रिकॉर्ड पर रखा गया था – और एक आपराधिक जांच की गैरमौजुदगी में यह स्थापित करना मुश्किल है कि किन एजेंसियों ने पत्रकारों और विपक्षी नेताओं के खिलाफ मैलवेयर का इस्तेमाल किया होगा. हालांकि, इस बात के सबूत बढ़ रहे हैं कि इस तरह का दुरुपयोग एंडेमिक (किसी स्थानिक महामारी की तरह) होता जा रहा है. साल 2018 के भीमा-कोरेगांव मामले में ऐसे आरोप सामने आए हैं कि संदिग्धों के फोन पर झूठे सबूत डालने के लिए मैलवेयर का इस्तेमाल किया गया था.

खुफिया अभियानों पर अधिक कानूनी और संसदीय निगरानी की मांग का सामना करते हुए, भारतीय नेताओं ने अक्सर यह तर्क दिया है कि देश के सामने मौजूद कई खतरे – आतंकवाद से लेकर धार्मिक कट्टरवाद तक – इन व्यापक निगरानी वाली शक्तियों को सही ठहराते हैं. हालांकि, इतिहास के प्रमाण इस तरह के दावे को दिखावटी बना देते हैं.

सुरक्षा का मिथ्या भ्रम

जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया है यदि जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (पूर्वी जर्मनी) के मिनिस्टरियम फर स्टैट्स्सिचेरहेट – जो स्टासी नाम से मशहूर था – की फाइलों – जिनमें लगभग 5.6 मिलियन लोगों के जीवन के बारे में अंतरंग विवरण का दस्तावेजीकरण किया गया था – को एक-के-बाद-एक मिलाकर रखा जाये तो यह 111 किलोमीटर लम्बी कतार बन जायेगी. साल 1989 में, स्टासी के कार्यबल में 91,015 कर्मचारी थे, और साथ ही इसके कम-से-कम 173,081 वेतनभोगी मुखबिर थे – यानि कि प्रत्येक 100 नागरिकों के लिए दो से अधिक मुखबिर. हालांकि, उसी वर्ष इसका शासन विघटित हो गया. कुछ वैसे ही जैसे सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय को कट्टरपंथी यंग तुर्क आंदोलन – जिसमें आधुनिक तुर्की के संस्थापक नेता मुस्तफा कमाल भी शामिल थे – द्वारा उनके ताज से बेदखल कर दिया गया था.

ऐसे ही अन्य उदाहरणों की भी कोई कमी नहीं है. जोसेफ स्टालिन द्वारा स्थापित निगरानी शासन, अपने दिखावटी मुकदमो (शो ट्रायल्स) और बर्बरता के साथ, ने केवल भय और आक्रोश को बढ़ावा देने का काम किया, जिसकी परिणति सोवियत संघ के विनाश में हुई. शीला फिट्ज़पैट्रिक ने दिखाया है कि आम नागरिकों ने राज्य के सामने एक-दूसरे को बुरा-भला कहने के लिए प्रतिस्पर्धा की, जिसकी वजह से सामाजिक समरसता और विश्वास की बर्बादी हुई.

विद्वानों के लिए, निगरानी वाले राज्यों द्वारा अपनी स्थिरता सुनिश्चित करने में असमर्थता कोई आश्चर्य की बात नहीं है. एंड्रियास लिचर, मैक्स लोफ्लर और सेबेस्टियन सीग्लोच ने पाया कि ‘मुखबिरों के बढ़ते घनत्व ने विश्वास को कम कर दिया और समाज से उनके अलगाव का कारण बना.’ वे कहते हैं, ‘विशेष रूप से, अधिक गहन निगरानी अजनबियों के प्रति कम विश्वास, मजबूत नकारात्मक पारस्परिकता, कम करीबी दोस्त बनाये जाने, कम सामाजिकता और कम सामाजिक जुड़ाव का कारण बनी.’

विद्वानों ने ‘आर्थिक प्रदर्शन के विभिन्न उपायों पर सरकारी निगरानी के नकारात्मक और निरंतर प्रभाव’ का भी उल्लेख किया है.

विशेषज्ञ एक्रेम एकेंसी ने अब्दुल हमीद II के तुर्की के बारे में लिखा है, ‘हर कोई एक-दूसरे के बारे में खबर देने में लगा था. बेतुकी अफवाहें और यहां तक कि लांछन लगाने की भी ख़बरें पहुंचाई जाने लगी थीं.’ इतिहासकार मेरिह एरोल ने इस बात को दर्ज किया है कि टॉरिस में यूरिपिड्स के नाटक इफिजेनिया के एक प्रदर्शन को भी तुर्की के राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी ग्रीस में इसकी उत्पत्ति के कारण देशद्रोही मान लिया गया था.

शाही ख़ुफ़िया सेवा के जासूसों को जल्द ही पता चल गया कि सबसे बड़ा इनाम – सोना, राज्य के पद, रखैल आदि – उन खबरों को पहुंचाने से मिलते थे जो सीधे तौर पर खुद सुल्तान से संबंधित होती थीं. झूठे खतरों की बात को गढ़ने के लिए कोई दंड भी नहीं मिलता था. इसके बारे में कहावत थी, ‘अगर हम झूठ बोलने के लिए जासूसों को दंडित करते हैं, तो हम सच्चाई से भी हाथ धो बैठेंगें.’

बहुत लंबे समय से, भारत की खुफिया सेवाओं ने भी इसी तरह के विकृत तर्क से लाभ उठाया है – उनके द्वारा एक राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली को मुख्य रूप से भारतीय राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय राजनीतिक संरक्षण हासिल करने के लिए सुस्थापित किया गया है.

लेखक दिप्रिंट के नेशनल स्कियोरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami ट्वीट करते हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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