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Thursday, 28 March, 2024
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जमीयत की पुनरीक्षण याचिका की कामयाबी अच्छी बात होगी, पर ऐसा होगा नहीं

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार उसने 9 नवंबर को भारत के सबसे पुराने और सर्वाधिक विवादास्पद धार्मिक विवाद का समाधान कर दिया था. तो कोर्ट अब क्या करेगा?

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अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्मत फैसले के खिलाफ पहली पुनरीक्षण याचिका जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने दायर की है. संभवत: आगे और भी याचिकाएं दायर की जाएंगी.

यह देखना दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट के जज पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर देते हैं या किसी अन्य तरह से प्रतिक्रिया करते हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों समेत बहुतों ने कोर्ट के 9 नवंबर के फैसले में बहुत-सी कमियां गिनाई हैं. मुझे लगता है कि जजों के कक्ष में ही संक्षिप्त सुनवाई के बाद याचिका को खारिज कर दिया जाएगा.

हालांकि मुझे अपना अनुमान गलत निकलने पर खुशी होगी.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दिन मैंने लिखा था कि कोर्ट ने बारीक संतुलन बिठाने की कोशिश की है, भले ही उसने बहुसंख्यक हिंदू समुदाय की मांगों को अनुचित ढंग से स्वीकार कर लिया हो.

अब ये स्पष्ट हो चुका है कि कोर्ट का फैसला मुस्लिम वादियों को संतुष्ट नहीं कर पाया और उन्हें अपने साथ धोखा होने का अहसास होना लाजिमी है. पर पुनर्विचार याचिकाओं – ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की याचिका भी 9 दिसंबर से पहले दायर की जा सकती है – से कुछ हासिल नहीं होने की कई वजहें हैं.

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सत्यनिष्ठा और नैतिकता के उच्च मानकों वाला व्यक्ति ही अपने फैसले के गलत होने की संभावना को स्वीकार कर सकता है. क्या सुप्रीम कोर्ट के जज इस सिद्धांत को मानेंगे?

इस बात की उम्मीद करना बेमानी होगा कि जज इस बात को स्वीकार करें कि एक या दो नहीं, बल्कि संविधान पीठ के पांचों सदस्यों ने गलत फैसला दिया.

इस बात का भी कोई खास मतलब नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एके गांगुली ने सोमवार को दिल्ली में एक परिचर्चा में ये कहते हुए फैसले के प्रति अपनी निराशा को जाहिर किया कि ‘…फैसले के निष्कर्षों और संबंधित दलीलों में तारतम्य नहीं है, बल्कि वे परस्पर विरोधाभासी हैं.’


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साथ ही, अयोध्या फैसले में विसंगतियों के साफ संकेत मौजूद होने और इस मुद्दे के चर्चा में होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट शायद मामले पर पुनर्विचार के लिए राज़ी नहीं हो क्योंकि उसका दृढ़ विश्वास है कि भारत के सबसे पुराने और विवादास्पद धार्मिक विवाद को सिर्फ उसके दिए फैसले से ही सुलझाया जा सकता था.

उम्मीद यही है कि पुनरीक्षण याचिका की सुनवाई करने वाले जज कानूनी बारीकियों के बजाय इस आशंका को महत्व देंगे कि फैसले पर पुनर्विचार से सांप्रदायिक तनाव को हवा मिल सकती है.

यहां तक कि बाबरी मस्जिद राम जन्भूमि विवाद में मूल वादी एम. सिद्दीक़ की तरफ से याचिका दायर करने वाले जमीयत अध्यक्ष मौलाना सैयद असद रशीदी भी मामले की ‘संवेदनशीलता’ को लेकर स्पष्ट हैं. याचिका में कहा गया है, ‘याचिकाकर्ता को मुद्दे की संवेदनशील प्रकृति का अहसास है और वह देश में शांति और सद्भाव के खातिर विवाद के निपटारे की आवश्यकता को समझता है, फिर भी, ये निवेदन है कि न्याय के बिना शांति नहीं हो सकती.’

पुनर्विचार के पक्ष में दलील कहां है?

पुनरीक्षण याचिका संविधान के अनुच्छेद 137 के तहत दायर की गई है, जिसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 145 के तहत निर्मित नियम-कानून के प्रावधानों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट को अपने किसी भी फैसले पर पुनर्विचार का अधिकार है.

दीवानी मामलों में पुनरीक्षण याचिकाओं पर विचार करते हुए कोर्ट नागरिक संहिता प्रक्रिया के आदेश XLVII की शर्त I से निर्देशित होता है. इसमें पुनर्विचार की वजहों की व्याख्या है, जिनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ‘रिकॉर्ड में परिलक्षित कोई गलती या त्रुटि’.

इससे भी महत्वपूर्ण बात – 1997 के परसियां देवी बनाम सुमित्री देवी मामले से स्थापित – ये है कि त्रुटि पाए जाने की वजह से किसी फैसले पर पुनर्विचार भले ही किया जा सकता है, पर किसी त्रुटिपूर्ण फैसले में भी ‘दोबारा सुनवाई या संशोधन’ की अनुमति नहीं होती है. अपने फैसले में कोर्ट ने कहा था, ‘याद रहे कि पुनरीक्षण याचिका का सीमित उद्देश्य होता है और इसे ‘प्रछन्न अपील’ बनने नहीं दिया जा सकता.’


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राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद जैसे किसी संवेदनशील मामले में ये उम्मीद करना, प्रशंसनीय होने के बावजूद, बेमानी होगा कि जज अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को सहमत होंगे.

उन लोगों को, जो समझते हैं कि भारत में धर्मनिरपेक्षता अब भी फल-फूल रही है, ये बताना उल्लेखनीय होगा कि बाबरी मस्जिद की जमीन पर अवैध अतिक्रमण के लिए हिंदुओं को पुरस्कृत करने वाला फैसला कई मानकों पर विफल साबित होता है. जस्टिस गांगुली का सवाल कि क्या ‘मस्जिद का विध्वंस हिंदुओं को बेहतर मालिकाना हक देता है’, बहस का एक मुद्दा हो सकता है. पर ये ज़रूरी नहीं कि जज इस पर सहमत हों.

मुस्लिम समुदाय के भीतर मतभेद

मुसलमानों में इस बात पर स्पष्ट विभाजन है कि अयोध्या फैसले पर पुनर्विचार की अपील का विचार सही है या नहीं.

कुछ दिन पहले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष ने पुनरीक्षण याचिका दायर किए जाने के विरुद्ध राय दी थी. उनकी दलील थी: बहुसंख्यक समुदाय इसका बुरा मान सकता है, क्योंकि उन्हें लगेगा कि मुसलमान अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की राह में अवरोध खड़े कर रहे हैं.

यह बयान महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें मुसलमानों के डर का अव्यक्त लेकिन स्पष्ट संकेत है कि राम मंदिर का निर्माण जल्दी शुरू नहीं होने की स्थिति में उन्हें हिंदू समुदाय का कोपभाजन बनना पड़ सकता है. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता, जिनमें संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाले मंत्री भी शामिल हैं, राम मंदिर निर्माण के पक्ष में बोलने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं – अर्थव्यवस्था के लगातार खस्ताहाल होते जाने के मद्देनजर राम और अयोध्या में ‘भव्य’ मंदिर नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा के काम आ सकते हैं. ऐसे परिदृश्य में, मुस्लिम समुदाय के लिए उदारता दिखाने – स्पष्टतया दबाव की वजह से – के अलावा कोई विकल्प है क्या?

मतभेद इतने अधिक हैं कि मुस्लिम पक्षकार अपने वकील राजीव धवन को हटाने या रखने के मुद्दे पर भी एकमत नहीं हो पा रहे. धवन ने मंगलवार को फेसबुक पर बताया कि उन्होंने बिना किसी आपत्ति के ‘अपनी बर्खास्तगी स्वीकार’ कर ली है.

संभावना नगण्य

और अंत में, पुनरीक्षण याचिकाओं की कामयाबी की संभावना नहीं के बराबर होती है.

अधिकतर मामलों में सुप्रीम कोर्ट वकीलों को दलील पेश करने का मौका दिए बगैर याचिकाओं को खारिज कर देता है.

हाल के फैसलों में राफेल पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पुनरीक्षण के काबिल करार दिया जा सकता है. इस फैसले की त्रुटियां इतनी साफ हैं कि आगे भी ये अस्पष्ट भाषा तथा कानून एवं प्रक्रिया की (गलत) समझ के संदर्भ में ध्यान आकर्षित करता रहेगा. फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने इसके खिलाफ तमाम पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया था.

अयोध्या फैसले में कोई त्रुटि नहीं है. इसमें बस ये हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट ने बहुसंख्यकों की भावनाओं को इस उम्मीद में तरजीह दी है कि मौजूद मस्जिदों की जगह मंदिर बनाए जाने की अब और मांग नहीं उठाई जाएगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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