सूफीवाद को अक्सर इस्लाम का शांति और भाईचारे के रूप में वर्णित किया जाता है जोकि जिहाद के सिद्धान्त के उलट है. जहां एक ओर ताकत के बल पर जिहाद द्वारा इस्लामी साम्राज्य को बढ़ाया गया तो वहीं यह दावा किया जाता है कि सूफीवाद ने प्रेम और शांति द्वारा इस्लाम का प्रसार किया. लेकिन यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सूफी वहीं गए जहां पहले से इस्लामी सत्ता स्थापित थी यानी सूफियों का इस्लाम प्रसार असल में बादशाहों के तलवार के साय (झांव) में था. सूफीवाद विशुद्ध रूप से एक नस्लवादी आध्यात्मिक शासन की परिकल्पना रही है जहां सर्वोच्च पद के साथ साथ सभी प्रशासनिक पद केवल एक नस्ल विशेष के लिए आरक्षित होता है. इस लेख में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इस बात को समझने का प्रयास किया गया है.
सूफीवाद का जन्म
अरबों (मुसलमानों) के तीसरे खलीफा उस्मान के विरुद्ध कई प्रकार के आरोप थे जिसमें एक यह था कि वो अपने सजातीय बंधुओं (बनू उमय्यद ) को शासन प्रशासन में अधिक भागेदारी दे रहें हैं. जिस कारण उनके विरुद्ध विद्रोह कर उनकी हत्या कर दी गई. ऐसी परिस्तिथि में अली को खलीफा नियुक्त किया गया लेकिन सीरिया के गवर्नर मुआविया जो बनू उमय्यद जनजाति से थे, ने यह कहते हुए केंद्रीय सत्ता (खिलाफत) से विद्रोह कर दिया कि मुझे अपने जनजाति के उस्मान की हत्या का क़सास (बदला) लेने का इस्लामी अधिकार है और उस्मान के हत्यारों को जब तक मुझे नही सौंपा जाता मैं बैत नहीं करूंगा (मतलब नवनियुक्त खलीफा को स्वीकार नही करूंगा).
नवनियुक्त खलीफा अली ने इसका संज्ञान लेते हुए माविया को विद्रोही करार दिया और उनके विरुद्ध स्वयं सैन्य कार्यवाही की. हालांकि, अपने पूरे शासन काल में माविया पर कई बार चढ़ाई करने के बाद भी सफल नहीं हो सके. इस तरह उस समय दो समानांतर इस्लामी शासन चलते रहे जिसका नेतृत्व क़ुरैश जनजाति के दो उपजाति के लोग करते रहे.
अली के बाद उनके बड़े बेटे (फातिमा से पैदा हुए) हसन खलीफा बनें लेकिन उन्होंने माविया से संधि करके खिलाफत उनको सौंप दी. जब खिलाफत कुरैश के एक अन्य उपजाति बनू उमय्यद के पास चली गई तब कुछ लोगों ने बनू-उमय्यद के खिलाफ यह कहते हुए विद्रोही मुहिम चलाई कि खिलाफत तो बनू-हाशिम जनजाति का हक है. मुहम्मद की बेटी फातिमा और अली (मुहम्मद के चचेरे भाई फिर दामाद) के वंश (बनू फातिमा) में होनी चाहिए, क्योंकि कुरैश की यह उपजाति मुहम्मद के वंशावली से अधिक निकट हैं और खिलाफत वापसी का संघर्ष करना शुरू किया जिसमें उनका साथ बनू-अब्बास नाम कुरैश की एक अन्य उपजाति ने दिया. लेकिन सत्ता (खिलाफत) बनू हाशिम (बनू फातिमा/सैयद) के बजाए बनू अब्बास को प्राप्त होती है.
अब्बासियों के शासन काल में सैय्यद जाति के बहुत से लोगों ने खिलाफत प्राप्ति के लिए यह कहते हुए विद्रोह किया कि चुंकि हम अली-फातिमा के संतान होने के नाते मुहम्मद के घर वाले हैं इसलिए खिलाफत (सर्वोच्च इस्लामी सत्ता) पर हमारा नैसर्गिक अधिकार है लेकिन कभी पुर्ण रूप से सफल नहीं रहें.
जब सैय्यद जाति (बनू फातिमा) के लोग भौतिक सत्ता (खिलाफत) नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो ऐसी सूरत में आध्यात्मिक सत्ता की परिकल्पना की नींव डाली गई जो सूफी परम्परा कहलाई. सूफी परम्परा को इस्लाम का अभिन्न अंग प्रतिस्थापित करने के लिए बहुत से किस्सा कहानी रची गई जो कालांतर में इतने मशहूर हुए ही अब सच जान पड़ते हैं.
आध्यात्मिकता का वर्गीकरण
किसी भी सिस्टम को चलाने के लिए (संचालन) जरूरी पोस्ट और उसके जूरिडीक्शन तय होता है. ठीक वैसे ही सूफीवाद में स्पिरिचुअल गवर्नेंस के सिद्धांत को बनाया गया है. सूफी/वली का पद वही धारण कर सकता है जिसकी वंशावली मुहम्मद के नातियों (पुत्री के पुत्रों) हसन-हुसैन से होते हुए अली-फातिमा से होते हुए मुहम्मद में मिल जाएं. इसमें सर्वोपरी गौस होता है, उसके बाद कुतुब, कहीं कहीं गौस और कुतुब को एक ही माना गया है. फिर निकबा/नुक़्बा ये तीन की संख्या में होते हैं, फिर अमना ये पांच होते हैं अवताद या अबरार ये सात होते हैं फिर अब्दाल इनकी संख्या चालीस मानी गई है. अख़्यार इनकी संख्या तीन सौ होती है.
सभी के कार्यक्षेत्र, सत्ता शक्ति और अधिकार क्रमवार अलग-अलग होते हैं और किसी को किसी के सीमा के अतिक्रमण की आज्ञा नहीं है. ऊपर के श्रेणी वाले किसी औलिया/वली/सूफी के मृत्यु के बाद नीचे के रैंक वाला सूफी प्रोमोट करके ऊपर पहुंच जाता है और उसकी खाली जगह को नीचे की श्रेणी वाला सूफी आकर भर देता है. यही श्रेणीवार चलता रहता है. विभिन्न मतानुसार इनके पद, श्रेणी और संख्या के संबंध में विभेद पाया जाता है. कुछ वलियों (सूफियों) की पोजीशन बहुत ऊपर होती है उनका शासन उनके मारने के बाद भी यथावत बना रहता है.
सैयद होना एक अनिवार्य तथ्य है कोई भी गैर सैयद गौस, कुतुब अब्दाल आदि नहीं बन सकता. दूसरा अनिवार्य शर्त वली/सूफी/पीर का पुरुष होना है (एक दो अपवाद छोड़ कर). ये गौस, कुतुब, अब्दाल आदि गुप्त होते हैं और आम आदमी इसका पता नहीं कर सकता कि कौन से वली/सूफी गौस है और कौन सा कुतुब है आदि. सिर्फ पहुंचे हुए सूफी/वली ही इसका पता जानते हैं कि कौन क्या है और किस क्षेत्र का क्षत्रप है. अक्सर उनके मरने के बाद किसी पहुंचे हुए सूफी से यह तथ्य जाहिर होता है कि फलां सूफी तो कुतुब था, अब्दाल था आदि.
सूफी परम्परा का मानना है कि यही गौस, कुतुब, अब्दाल आदि मिल कर पूरी दुनिया का निज़ाम (व्यवस्था) चलाते हैं. अमेरिका से लेकर भारत तक सभी शासन व्यवस्था और प्रबन्ध इन्हीं सूफियों के मातहत चलती है. यही ईश्वर के प्रतिनिधि हैं. एक कहानी मशहूर है कि एक बादशाह पंजाब से दिल्ली की यात्रा करता है. वो यात्रा से पहले उस क्षेत्र के वली से आज्ञा और दुआ लेने जाता है. वली दुआ देकर उसे विदा करते हुए कहता है कि जब तुम फलां जगह पहुंचना तो फलां वली से आज्ञा और दुआ जरूर लेना क्योंकि मेरा कार्यक्षेत्र वहां खत्म हो जाता है और वहां से उनका कार्यक्षेत्र शुरू होता है. इसलिए उनके क्षेत्र में उनकी ही आज्ञा और दुआ काम करेंगी. इस तरह की बहुत सी किस्सा कहानियां सूफीवाद की किताबो में भरी पड़ी मिल जाएगी.
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सूफी परम्परा के खलीफा का सिलसिला अली से जाकर मिलता है फिर अली से मुहम्मद में मिल जाता है. सूफीवाद में अली को इस्लाम का पहला खलीफा माना जाता है (दमादम मस्त कलंदर अली दा पहला नंबर) इसका आधार मुहम्मद के कथनों को बनाया जाता है जिसमें कुछ प्रमुख हैं.
‘मैं जिसका मौला* हूं अली उसके मौला हैं’
(तिर्मिज़ी हदीस नं. 6082, 6094)
*मौला का अर्थ गुलाम,मालिक,अभिभावक,दोस्त, लीडर, संरक्षक, आदि के होते हैं जो प्रसंग के अनुसार प्रयोग होते हैं.
‘अली मुझसे है और मैं अली से हूं और वह मेरे बाद सभी अनुवायियों का अभिभावक है’
(तिर्मिज़ी भाग-2, पेज 298,ईमाम हकीम मुस्तद्रक, भाग 03, पेज नं. 111)
सूफी परंपरा में भी खिलाफत (नेतृत्व) देने की प्रक्रिया रही है जिसमें एक खलीफा अपने मुरीदों (शिष्यों) में से किसी एक को बैत लेने का अधिकार देता है जो आगे चल कर उस सूफी परम्परा का खलीफा, पीर या मुर्शद कहलाता है. यहां भी हदीस (मुहम्मद के क्रियाकलाप और कथन) की प्रसिद्ध किताब बुखारी में लिखा हदीस ‘अल-अइम्मतू मेन अल-कुरैश’ अर्थात नेतृत्वकर्ता (नेता,अमीर,खलीफा) कुरैश (सैयद, शेख) में से ही है, के रिफरेन्स (हवाले) देकर खिलाफत हमेशा कुरैश (सैयद, शेख) लोगों को दी जाती है और उसमें भी सैयद को वरीयता दी जाती है. इसके बाद सैयदों में फ़ातिमी सैयदों को वरीयता देने की मान्यता है. आज भी ये परंपरा चली आ रही है.
सूफी या पीर का जहां कब्र होती है उसे दरगाह/दरबार कहा जाता है जिसका अर्थ राजदरबार होता है. सूफी या पीर अपने नाम के आगे या पीछे शाह का शब्द जोड़ते है जिसका अर्थ राजा के होता है. इनके मुरीद (चेले) इनको सरकार कहतें हैं जैसे कि सरकार का यह हुक्म है, सरकार आने वाले हैं आदि.
इससे साफ तौर पर पता चलता है कि यह एक प्रकार की परोक्ष सत्ता का ही निर्धारण है. एक प्रकार से ये सूफी या पीर समानांतर सरकार चलाते थे और सरकार में अपने मनपसंद आदमी को पहुंचाना और कभी-कभी राजा भी अपने मनपसंद के आदमी को बनवा लेते थे. एक समय और कहीं कहीं आज भी इनकी पोजीशन मध्यकालीन पोप की तरह है और आज भी ये अशराफ सूफी, वली, उलेमा सरकार से निकटता बनाए हुए शासन प्रशासन में अपना दखल रखतें हैं.
ऊपर के विवरण से यह बात साफ हो जाती है कि सूफी परम्परा, सैयदवाद का ही पोषक है.
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लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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