एक साल पहले, मैंने लिखा था कि शेयर बाज़ार ने अपना होश नहीं, तो अपना आधार जरूर खो दिया है, क्योंकि पिछले साल के मुक़ाबले उसने 40 फीसदी उछाल दर्ज की थी जबकि इससे पहले के साल में शेयरों की कीमतों में दहाई अंक वाली बढ़ोत्तरी हुई थी. उसने कोविड महामारी से मिले झटके की भी परवाह नहीं की थी. मैंने तब महसूस किया था कि नये संवत 2078 में बाजार में सुधार होगा या ऐसा समय आएगा जब वह संवत 2077 के अत्याचारों को पचा लेगा. बाद में, ऐसा ही हुआ. बाजार के जिन सूचकांकों पर प्रायः नजर रखी जाती है वे वहीं हैं जहां एक साल पहले थे.
अक्टूबर 2021 में इस तरह की भविष्यवाणी करने के लिए कोई बड़ी दूरदर्शिता की जरूरत नहीं थी. बाजार महंगा हो गया था. यह भी साफ था कि मुद्रस्फीति की वजह से ब्याज दरें बढ़ेंगी. यूक्रेन युद्ध न भी होता तो भी पैसा बाजार से निकलता जबकि पिछले साल बाजार में पैसा आया था. यह भी स्पष्ट था कि खुदरा निवेशकों के पास आसान विकल्प नहीं होंगे, ब्याज दरों में वृद्धि के कारण बॉण्ड की कीमतें गिरेंगी और रियल एस्टेट बाजार अतिरिक्त सप्लाई के कारण परेशानी में रहेगा.
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सोने की कीमत दो साल तक बढ़ने के बाद स्थिर हो रही थी. आज भी वह वहीं है जहां दो साल पहले थी. शेयरों की तरह, सोने ने पिछली अवधि में कीमत में उछाल को पचाने में समय लिया है. विकल्पों की कमी के कारण खुदरा निवेशकों ने म्यूचुअल फंड के जरिए इक्विटी बाजार में पैसा लगाना जारी रखा है जबकि बाहरी पोर्टफोलियो निवेशक नकदी निकाल ले जा रहे हैं.
शेयर बाजार के हाल के इतिहास की अच्छी बात यह है कि बाजार लगातार दो साल तक नीचा रहा, यह शायद ही होता है. पिछले दशक में चालू वर्ष से पहले के वर्ष में बाजार पूरे संवत वर्ष में नीचा रहा. वैसे, सामान्य चेतावनी हमेशा की तरह लागू होती है कि अनिश्चितताओं के कारण अतीत को भावी प्रदर्शन का संकेत नहीं माना जाएगा. इन कई अनिश्चितताओं में सबसे प्रमुख है यूक्रेन युद्ध की दिशा, उसका आर्थिक प्रभाव और परमाणु टक्कर का जोखिम. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा डॉलर की ओर बढ़ती जा रही है जबकि भारत के चालू खाते का बढ़ता घाटा रुपये को कमजोर कर रहा है. और भारत के शेयरों की कीमतों में गिरावट का दबाव बना रहेगा.
घरेलू व्यवसाय के मोर्चे पर कॉरपोरेट मुनाफा बढ़ता जा रहा है, लेकिन बिक्री की तुलना में यह शिखर पर है क्योंकि मुद्रास्फीति के माहौल में मार्जिन पर दबाव है. ब्याज दरों के उत्थान का चक्र अब टूटने वाला है, यह कर्ज के बाजार को आकर्षक बना देगा या विकल्प के तौर पर कम आकर्षक बना देगा. संकेत हैं कि उपभोक्ताओं के खर्चों का सिलसिला शुरू हो गया है, और बैंक कर्ज भी बढ़ रहे हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों से भारत की दोहरी गति वाली अर्थव्यवस्था को परिभाषित करने वाला ‘के फैक्टर’ कई बाज़ारों में काम कर रहा है (मसलन, महंगी कारें सस्ती कारों से ज्यादा बिक रही हैं).
इस बीच, विकसित अर्थव्यवस्थाएं अगर मंदी में नहीं फंस रही हैं तो और सुस्त हो रही हैं. तेल निर्यातकों ने उत्पादन में कटौती की घोषणा की है तो, और तेल की कीमतें राहत नहीं दे सकती हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में उछाल को वैश्विक तौर पर कम समर्थन मिलेगा. वैश्विक सुस्ती ने निर्यातों को कमजोर किया है, और स्थिति और बिगड़ सकती है.
सरकार अपने वित्तीय कदमों में सावधानी बरत रही है ताकि मुद्रास्फीति बढ़ न जाए, हालांकि चुनाव से पहले के बजट में खर्चों को शामिल करने से बचा नहीं जा सकता.
तमाम बातों के मद्देनजर, संभावना यह है कि भारत आर्थिक मोर्चे पर थोड़ा जोश बनाए रख सकता है, भले ही आर्थिक वृद्धि की रफ्तार जबर्दस्त न हो. जैसा कि कुछ समय से हो रहा है, निजी निवेश में वृद्धि ही असली कुंजी है लेकिन यह अंतहीन इंतजार का मामला बन गया है. यह बाजार के लिए निर्णायक होगा, जो आगे आने वाले समय में दिख रहा है.
इसलिए, बाजार के उत्साही सिरे में, जिस पर यूनिकॉर्न कंपनियां ज़ोर दे रही थीं, नया कोष आने के मामले में गिरावट का असर देखा जा रहा है लेकिन बाजार के अधिक नरम सिरे से सकारात्मक आश्चर्य उभर सकता है.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष व्यवस्था द्वारा)
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