नेपाल में 8 मार्च 2025 से जबसे राजशाही की वापसी की आहट तेज हुई है, तब से एक जानी-पहचानी पटकथा सामने उभर रही है. 8 मार्च को ही पूर्व नेपाल नरेश पहली बार जनता के सामने आए थे और काठमांडो की सड़कों पर ‘राजशाही वापस लाओ’ का नारा गूंजा था. जानी-पहचानी पटकथा इस आरोप से जुड़ी है कि ऐसे प्रदर्शनों के पीछे भारत का भी हाथ है.
अब जबकि घोर राष्ट्रवादी भावना उबाल पर है और राजशाही की वापसी की मांग प्रतिरोध के स्वर के रूप में गूंज रही है, भारत-नेपाल संबंध अपनी अग्निपरीक्षा के दौर से गुजर रहा है.
यों तो बैंकॉक में ‘बिम्सटेक’ शिखर सम्मेलन के दौरान मोदी-ओली के बहुचर्चित ‘हैंडशेक’ को कूटनीतिक तालमेल कहा जा रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह ‘फोटो-अवसर’ घरेलू उथलपुथल और क्षेत्रीय अविश्वास के शोर में गंवा दिया गया है. तो, अब आगे क्या होने वाला है? कदम सुलह की ओर बढ़ेंगे या विच्छेद की ओर?
इस सवाल का फौरी और आसान जवाब यह हो सकता है कि दोनों देश यथास्थिति बनाए रखेंगे, यानी जब जरूरत पड़ेगी तब इन दो पड़ोसी देशों के बीच कारोबार, व्यापार और लोगों के बीच के रिश्ते जारी रखे जाएंगे.
लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर तनाव रिश्तों के इन तमाम पहलुओं पर अक्सर अपनी काली छाया डाल देता है. यह नेपाल और भारत के मामले में भी हो सकता है, और यह इनके कूटनीतिक संबंधों के पिछले सात दशकों के दौरान होता भी रहा है. लेकिन मजबूत संबंध कमजोर क्यों हुए, इसकी वजह की समझ होगी तो इस सवाल का जवाब मिल जाएगा कि आगे क्या किया जा सकता है.
कालापानी, राम, और भारत की लक्ष्मण रेखाएं
नेपाली संसद में सबसे बड़ी पार्टी, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-यूएमएल (सीपीएन-यूएमएल) के अध्यक्ष के.पी.शर्मा ओली को जुलाई 2024 में प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया. स्थापित परंपरा के अनुसार उन्हें सबसे पहले भारत की राजकीय यात्रा करनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें भारत की तरफ से निमंत्रण नहीं मिला, शायद इसलिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस साल के उत्तरार्द्ध में काफी व्यस्त थे.
भारत से कथित तौर पर निमंत्रण न मिलने के कारण ओली ने पिछले दिसंबर में चीन का दौरा करने का फैसला किया. भौगोलिक रूप से एशिया के दो ताकतवर देशों के बीच स्थित इस देश ने इस बार चीन को चुना तो क्या बुरा किया?
इस मूल प्रश्न का जवाब देते हुए कहा जा सकता है कि पिछले दशक में भारत के साथ नेपाल के रिश्ते में तनाव दरअसल ओली के आक्रामक तेवर के कारण पैदा हुआ. यह एक-के-बाद-एक कई एकतरफा नीतिगत फैसलों से साफ है, जिन्होंने भारत को बार-बार नाराज किया.
इन फैसलों में सबसे प्रमुख था कालापानी क्षेत्र को लेकर विवाद को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाने का ओली का फैसला. उन्होंने नेपाल का नया राजनीतिक नक्शा तैयार किया जिसमें इस विवादित क्षेत्र को शामिल किया और इस दावे को अपने संविधान में भी दर्ज कर दिया. यह सिर्फ प्रतीकात्मक कार्रवाई नहीं थी, यह उस क्षेत्र पर स्थायी दावा था, जिसे नेपाल ने पहले विवादित मान लिया था और जिसको लेकर कूटनीतिक वार्ता चल रही थी.
दरअसल, नेपाल ने अपने राजनीतिक नक्शे में परिवर्तन करने का एकतरफा फैसला गलत समय पर किया. यह फैसला तब किया जब भारत चीन के साथ सीमा पर बड़े गतिरोध में उलझा हुआ था. नेपाल के इस दावे को न केवल अवसरवादिता के रूप में देखा गया बल्कि भारत की नजरों में यह रणनीतिक असंवेदनशीलता भी थी.
राष्ट्रीय संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता के मसलों पर गंभीरता से ज़ोर देने वाली मोदी सरकार ने ओली के करतबों को ऐसी उकसाऊ कार्रवाई के रूप में देखा जिसमें लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया गया था. इसने भरोसे को तोड़ा और पहले से ही नाजुक आपसी संबंधों को और जटिल बना दिया.
हाल के वर्षों में, ओली ने साझा सांस्कृतिक संवेदनाओं को बारीकी से और जानबूझकर निशाना बनाने की जो कार्रवाइयां की, उन्होंने भी इन रिश्तों को और तनावग्रस्त किया. इनका सबसे विवादास्पद उदाहरण हिंदू देवता राम की जन्मभूमि के बारे में उनके नये दावे हैं. ओली का दावा है कि असली अयोध्या भारत में नहीं बल्कि नेपाल में है. इसके पक्ष में तर्क यह दिया गया कि सीता से विवाह करने के लिए राम भारत से चलकर जनकपुर आए होंगे, यह मुमकिन नहीं था. इसलिए, ओली ने कहा कि, राम का जन्म जनकपुर के पास ही हुआ होगा.
इस तरह के संशोधनवादी दावों ने न केवल धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाई बल्कि भारत में इन्हें सोचे-समझे ‘सांस्कृतिक हस्तक्षेप’ के रूप में देखा गया, जिसका मकसद दोनों देशों के गहरे साझा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आख्यानों पर सवाल खड़ा करना है.
हाथ मिले और फिर हाथ खींच लिए गए
ऊपर से जो नेपाल के खिलाफ नहीं बल्कि ओली के नेतृत्व के खिलाफ बढ़ता असंतोष नजर आता है उसका जन्म भारत विरोधी भावनाओं को भड़काने के लिए 2015 में की गई सीमाबंदी और नक्शा विवाद जैसी घटनाओं का राजनीतिक लाभ उठाने की ओली की कोशिशों से हुआ.
इसके मद्देनजर, बैंकॉक में ‘बिम्सटेक’ शिखर सम्मेलन के दौरान मोदी-ओली वार्ता को भारत के साथ रिश्ते में तनाव को दूर करने के दुर्लभ अवसर के रूप में देखा गया था. वहां से लौटकर ओली ने यहां तक दावा किया था कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ ‘गहरी समझदारी’ बनी है. इससे यह सतर्क उम्मीद जगी थी कि दोनों पक्ष नारेबाजी से आगे बढ़कर अधिक रचनात्मक संबंध बनाएंगे.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी अपने बयान में कहा कि “दोनों नेताओं ने हम दोनों देशों और उनके लोगों के बीच के अनूठे और करीबी संबंधों की समीक्षा की… (और) उन्होंने दोनों देशों के बीच बहुआयामी साझीदारी को और गहरा बनाने की दिशा में काम करने पर सहमति जताई”.
लेकिन ऐसा लगता है कि नेपाल में कई लोगों के लिए यह उम्मीद क्षणभंगुर साबित हुई.
इस क्षेत्र में भू-राजनीति से जुड़े प्रमुख मंचों में से एक, ‘हिमालयन डायलॉग्स’ में अपने प्रारंभिक बयान देने के एक सप्ताह के अंदर ओली ने सांकेतिक मगर स्पष्ट टिप्पणी करके तनाव को फिर से भड़का दिया. उन्होंने कहा कि “अगर कोई पड़ोसी दूसरे पड़ोसी के खेत में लगी धान की फसल को हड़पना चाहता है तो उसे पड़ोसी नहीं कहा जा सकता, इसलिए उनके रिश्ते को पड़ोसियों वाला रिश्ता नहीं कहा जा सकता.”
इस उपमा की व्यापक व्याख्या यह की गई कि नेपाल अपने क्षेत्रीय दावों को दोहरा रहा है और भारत पर बारीकी से निशाना साध रहा है.
तनाव में और इजाफा करते हुए ओली ने आगे और जो कहा वह दबी जबान से शिकायत जैसी थी : “पड़ोसियों की जायज चिंताओं को समझना चाहिए. अगर तीन व्यक्ति दोस्त हैं तो किसी को किसी की ओर झुकते हुए नहीं दिखना चाहिए. हमें चीन या भारत की ओर नहीं झुकना चाहिए.”
हालांकि यह गुटनिरपेक्षता के प्रति नेपाल की पुरानी प्रतिबद्धता को प्रतिध्वनित करता है, लेकिन यह बैंकॉक में बने कूटनीतिक सदभाव पर संदेह की छाया डालता है. गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को नेपाल के संविधान में शामिल किया गया है और इसकी फिर से पुष्टि 2016 की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के जरिए भी की गई.
आगे कुआं, पीछे खाई
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्पष्ट कहा है कि “नेपाल अपने क्षेत्र में चाहे जो करे, वह हमारे बीच की स्थिति या जमीनी हकीकत को नहीं बदल सकता.” पसंद करो या न करो, भारत के लिए जमीनी हकीकत नहीं बदली है.
लेकिन नेपाल ने यथास्थिति को बदलने की जो एकतरफा कोशिश की उसने उसके लिए ही हालात को और जटिल बना दिया. नये विवादास्पद नक्शे को शामिल करने के लिए जून 2020 में संविधान संशोधन करके नेपाल ने अपने लिए ऐसी स्थिति पैदा कर ली कि अब वह लचीला कूटनीतिक रुख नहीं अपना सकता. यह कदम उठाने वाले ओली अब अपने कदम वापस खींचने का इरादा नहीं प्रदर्शित कर रहे हैं. अब भविष्य में नेपाल का कोई नेतृत्व पुरानी यथास्थिति बहाल करने की कोशिश करेगा तो उसे बड़ी कीमत अदा करनी पड़ेगी.
ऐसे में, राजनीतिक मोर्चे पर संबंध सुधारने की गुंजाइश कहां बचती है?
आगे का रास्ता
एक तात्कालिक और व्यावहारिक समाधान यह हो सकता है कि दोनों पक्ष यह मान लें कि शिकायतों का निबटारा ही अंतिम खेल नहीं है. बल्कि इसे शोरशाराबे और प्रदर्शन से दूर खामोश कूटनीति के जरिए आगे बढ़ने के मौके के रूप में देखा जाए.
नेपाल के लिए इसका अर्थ यह होगा कि उसके राजनीतिक दल अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए भारत-विरोध को, जिसके कारण भारत के साथ सुलह नहीं हो पाया, अपना हथियार बनाने से परहेज करें. भारत के लिए, यह मौका नाटकीय परिवर्तनों की मांग नहीं कर रहा है बल्कि ऐसी ठोस, गैर-प्रतिक्रियावादी पहल की मांग कर रहा है जो यह संकेत दे कि वह सहयोग के लिए तैयार है और किसी उकसावे में नहीं आने वाला है. भारतीय सत्तातंत्र ने नेपाल के पदाधिकारियों के साथ ज्यादा बैठकें करके और व्यापक संपर्कों को जारी रखकर इस दिशा में कदम बढ़ाया भी है.
भारत के कृषि मंत्री कृषि क्षेत्र में सहयोग पर बातचीत करने के लिए इस महीने के शुरू में काठमांडो में थे. इसके बाद कुछ समझौतों पर दस्तखत किए गए. इसी तरह नेपाल की ओर से भी पदाधिकारी भारत आए. इस तरह रिश्तों को गति दी जा रही है.
लेकिन नेपाल को पता है कि भारत पांच साल पहले की गई कार्रवाइयों के कारण अभी भी नाराज है. यही समय है कि नेपाल राजनीतिक तापमान को नीचे लाने के लिए पहल करे. उसे समझना चाहिए कि इस बात की कोई संभावना नहीं है कि भारत कूटनीतिक तालमेल को रोकने की कोशिश करेगा.
वैकल्पिक उपाय यह हो सकता है कि उस स्थापित व्यवस्था, 1950 की ‘शांति तथा मैत्री संधि’ को फिर से लागू किया जाए जिसने दो पड़ोसियों की लंबी साझीदारी को मजबूत किया था. वह संधि द्विपक्षीय संबंधों का आधारस्तंभ बना हुआ है. वैसे, इस संधि की पुनरावृति भी एजेंडा में शामिल है और यह विवादों के निबटारे का अगला कदम हो सकता है.
दोनों सरकारों ने 2016 में विशेषज्ञ समूह जैसी व्यवस्था बनाई थी. उसने जो रिपोर्ट पेश की है उसका खुलासा नहीं किया गया है. इसकी शायद यह वजह हो सकती है कि उसमें भारत की सुरक्षा संबंधी बुनियादी मसलों का समाधान नहीं किया गया है.
वैश्विक मामलों का परिदृश्य बदल गया है और इसके साथ क्षेत्रीय संबंधों में भी बदलाव आया है. नेपाल उस विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट पर, जिसका कभी खुलासा नहीं हुआ, ज़ोर देने की जगह नये सिरे से शुरुआत करने को राजी हो सकता है. तीसरी, और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत नेपाल से काफी समय से कहता रहा है कि वह भारत के साथ अपने संबंधों में चीनी पहलू या लोकलुभावन भावनाओं को शामिल न करे.
‘#बैकऑफइंडिया’ या ‘#गोबैकइंडिया’ जैसे हैशटैग राजनीतिक तनाव के दौरान लोकप्रिय हो सकते हैं लेकिन वे उन हकीकतों से संचालित नहीं होते हैं जिन्हें व्यापक जन समुदाय भुगतता है, बल्कि वे अक्सर सोशल मीडिया पर निकाली जाने वाली भड़ास और कुलीन तबके द्वारा उभारी राष्ट्रवादी भावनाओं से संचालित होते हैं. उन्हें अक्सर नेपाल से काफी दूर रह रहे प्रवासियों का एजेंडा भी स्वरूप प्रदान करता है.
इसी तरह, भारत में मीडिया नेपाल की विदेश नीति के हर कदम के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता नहीं बरत सकता है, खासकर इसलिए कि वह दो देशों के बीच स्थित है.
निष्कर्ष यह है कि नेपाल में असंतोष भारत के कथित हस्तक्षेप से ज्यादा उसकी अपनी राजनीतिक व्यवस्था से गहराती हताशा का परिणाम है. सड़कों पर जो गुस्सा उबल रहा है वह उस स्वार्थी राजनीतिक जमात के खिलाफ है, जो हमेशा राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काता रहता है जिसका मकसद राष्ट्रहित की रक्षा करना नहीं बल्कि शासन, आर्थिक विकास, और संस्थागत सुधारों के मोर्चों पर नाकामी से लोगों का ध्यान हटाना है. भारत और नेपाल को अगर अपने साझा इतिहास, संस्कृति और भूगोल से गहराई से जुड़े सार्थक रिश्ते और विश्वास को फिर से मजबूत करना है तो दोषारोपण और ध्यान हटाने के प्रयासों के दुष्चक्र को तोड़ना ही होगा.
इसके अलावा, समय आ गया है कि दोनों देश अपने संबंधों को पारंपरिक आधारों से आगे बढ़कर विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी समेत दूसरे भविष्योन्मुख आधारों के परिप्रेक्ष्य में देखना शुरू करें.
ऋषि गुप्ता एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में असिस्टेंट डायरेक्टर हैं. वह एशिया-प्रशांत मामलों, रणनीतिक हिमालय और दक्षिण एशियाई भू-राजनीति पर लिखते हैं. वह ट्विटर पर @RishiGupta_JNU नाम से लिखते हैं. यह उनके निजी विचार हैं.
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