चेन्नई: तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके. स्टालिन अक्सर मज़ाकिया लहजे में राज्य के लोगों से अधिक बच्चे पैदा करने का आग्रह करते हैं, ताकि परिसीमन के कारण राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिनिधित्व की संभावित कमी का सामना किया जा सके. कभी लोग इसे हंसी में टाल देते हैं, तो कभी यह सुर्खियां बन जाता है.
स्टालिन की हल्की-फुल्की बातों से इतर, एक बात स्पष्ट है—परिसीमन उनकी विचारधारा और राजनीति का एक केंद्रीय मुद्दा है, खासकर जब राज्य अगले साल विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है.
नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 को लेकर केंद्र सरकार के साथ चल रहे टकराव के बीच, स्टालिन ने अब एक और मोर्चा खोल दिया है. परिसीमन के मुद्दे को भाषा विवाद से जोड़कर, डीएमके नेता खुद को दक्षिण भारत की आवाज़ के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. उत्तर बनाम दक्षिण की यह लड़ाई राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा असर डाल सकती है, और यही कारण है कि दिप्रिंट ने इस हफ्ते के लिए परिसीमन को न्यूज़मेकर ऑफ दि वीक घोषित किया है.
“परिसीमन दक्षिणी राज्यों पर लटकती तलवार है,” स्टालिन ने 25 फरवरी को राज्य कैबिनेट बैठक के बाद कहा.
स्टालिन इस मुद्दे पर न केवल तमिलनाडु में बल्कि विपक्ष-शासित अन्य राज्यों में भी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं. तमिलनाडु में सर्वदलीय बैठक के बाद, उन्होंने पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, ओडिशा और पंजाब के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर परिसीमन के खिलाफ एकजुट होने का आग्रह किया है. उन्होंने 22 मार्च को चेन्नई में एक बैठक के लिए इन्हें आमंत्रित भी किया है.
चिंता यह है कि 2026 में प्रस्तावित परिसीमन देश के सत्ता संतुलन को बदल देगा और केंद्र में दक्षिणी राज्यों की राजनीतिक शक्ति को कम कर देगा. यह सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं, बल्कि अन्य दक्षिणी राज्यों की भी साझा चिंता है, जिन्होंने अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करने में सफलता हासिल की है.
लेकिन 2026 के विधानसभा चुनावों को देखते हुए, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि स्टालिन का यह प्रयास रणनीतिक रूप से उनके और उनकी पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश है. डीएमके ने तीन प्रमुख चुनावों—2019 के लोकसभा चुनाव, 2021 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में लगातार जीत दर्ज की है. इन तीनों चुनावों में पार्टी ने तमिलनाडु में भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे के खिलाफ प्रचार किया था.
हालांकि, 2026 के लिए स्टालिन को एक नए मुद्दे की जरूरत है, जिससे वह राज्य में डीएमके और एआईएडीएमके के बीच सत्ता बदलने के लंबे समय से चले आ रहे पैटर्न को तोड़ सकें. परिसीमन और केंद्र की तीन-भाषा नीति के खिलाफ उनका अभियान इस नए केंद्र बिंदु के रूप में उभर रहा है. स्टालिन ने यहां तक चुनौती दी कि भाजपा 2026 का विधानसभा चुनाव तीन-भाषा नीति को अपने मुख्य एजेंडे के रूप में लड़कर दिखाए.
🎯 "The tree may prefer calm, but the wind will not subside." It was the Union Education Minister who provoked us to write this series of letters when we were simply doing our job. He forgot his place and dared to threaten an entire state to accept #HindiImposition, and now he… pic.twitter.com/pePfCnk8BS
— M.K.Stalin (@mkstalin) March 7, 2025
राज्य मंत्रिमंडल की बैठक के बाद चेन्नई में संवाददाताओं से बातचीत में स्टालिन ने कहा, “यह सिर्फ संख्या का मामला नहीं है, यह न्याय का मामला है.”
स्टालिन के अधीन उत्तर बनाम दक्षिण की लड़ाई
स्टालिन ने सिर्फ तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टियों को ही एकजुट नहीं किया, बल्कि उन्होंने केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के साथ मिलकर केंद्र से बेहतर सौदे की तलाश में अपनी साहसिक योजना को सफल होते भी दिखाया है.
स्टालिन द्वारा प्रस्तावित संयुक्त कार्रवाई समिति (जॉइंट एक्शन कमिटी), जिसमें दक्षिणी राज्यों के सांसद और दलों के प्रतिनिधि शामिल होंगे, महज़ चर्चा का विषय नहीं है. यह परिसीमन को लेकर उत्तर बनाम दक्षिण की एक बड़ी राजनीतिक टकराव का केंद्र बन सकता है.
जनसंख्या-आधारित परिसीमन का डीएमके दशकों से विरोध करता आ रहा है. 1967 में, डीएमके के संस्थापक और पूर्व मुख्यमंत्री सीएन. अन्नादुरै ने दिल्ली को चेतावनी देते हुए कहा था, “सिर्फ संख्या ही किसी राष्ट्र का भाग्य तय नहीं कर सकती. अगर दक्षिण के प्रयासों को नज़रअंदाज़ किया गया, तो भारत की एकता दरक जाएगी.” 2008 में, स्टालिन के उत्तराधिकारी और डीएमके नेता एम. करुणानिधि ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर दलील दी थी कि जनसंख्या नियंत्रण जैसे राष्ट्रीय लक्ष्यों को पूरा करने वाले राज्यों को राजनीतिक शक्ति नहीं गंवानी चाहिए.
भाषाई मोर्चा: हिंदी, तमिल और विभाजन
परिसीमन के खिलाफ दक्षिणी राज्यों को एकजुट करने के साथ-साथ, स्टालिन हिंदी थोपने और नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 में प्रस्तावित तीन-भाषा फ़ॉर्मूला का भी विरोध कर रहे हैं.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने बार-बार इस सवाल को उठाया है कि दिल्ली में एक के बाद एक सरकारें उत्तर भारत में उत्तर भारत तमिल प्रचार सभा की स्थापना क्यों नहीं कर पाईं.
वहीं, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, जिसे 1918 में तमिलनाडु में स्थापित किया गया था, लगातार फल-फूल रही है. 2017 में ही 7.7 लाख से अधिक लोगों ने स्वेच्छा से हिंदी सीखी.
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर रामु मणिवन्नन का कहना है कि हिंदी को तमिलनाडु में थोपा जा रहा है, लेकिन उत्तर भारतीय स्कूलों में तमिल को शामिल नहीं किया जाता. उन्होंने यह भी कहा कि प्रचार सभा के अलावा, कई लोग अकादमिक अध्ययन से अलग जाकर हिंदी बोलने की कक्षाएं लेते हैं, लेकिन इस आंकड़े को आधिकारिक रूप से दर्ज नहीं किया जाता.
हालांकि, स्टालिन की विपक्षी दलों को एकजुट करने की महत्वाकांक्षा गठबंधन राजनीति की जटिलताओं से टकरा सकती है. आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (TDP) एनडीए का हिस्सा है, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस कांग्रेस से हाथ मिलाने को तैयार नहीं है, और पंजाब में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ लड़ रही है. विपक्षी खेमे में इन दरारों से दिल्ली के खिलाफ एक प्रभावी चुनौती खड़ी करने के लिए आवश्यक एकता कमजोर पड़ सकती है.
क्या स्टालिन का साउथ-फर्स्ट गठबंधन मजबूती से टिक पाएगा, या फिर राजनीतिक दरारें परिसीमन के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर देंगी?
व्यक्त विचार निजी हैं.
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