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Tuesday, 15 July, 2025
होममत-विमतब्राह्मणों को साधने की रेस में SP भी शामिल: इसके पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फार्मूले पर क्या होगा असर?

ब्राह्मणों को साधने की रेस में SP भी शामिल: इसके पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फार्मूले पर क्या होगा असर?

सपा का ब्राह्मणों से गठबंधन पीडीए फार्मूले को कमजोर कर सकता है, जिससे पारंपरिक आधार और सामाजिक न्याय की राजनीति पर असर पड़ने की आशंका है.

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उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ब्राह्मणों को साधने की होड़ मची हुई हैं. इस बार राजनीतिक मंच की तैयारी समाजवादी पार्टी की तरफ से हो रही है. 7 मई 2025 को लखनऊ में स्थित सपा मुख्यालय के राम मनोहर लोहिया सभागार में ‘प्रबुद्ध सभा’ का आयोजन किया गया. इस सभा में अखिलेश यादव ने अपने साथ हरी शंकर तिवारी के पुत्र कुशल तिवारी को मंच पर बैठाया.

इस आयोजन का संचालन कर रहे पवन पांडेय योगी सरकार में मारे गए ब्राह्मणों की सूची पढ़ते हुए “मठाधीश ने ठाना है, ब्राह्मणों को यूपी से मिटाना है, ब्राह्मणों ने भी अब माना है, 27 में पीडीए के सत्ताधीश की सरकार को लाना है” जैसे नारों से पूरा सभागार गूंज रहा था.

‘जय परशुराम’ के उद्घोष से यह प्रबुद्ध सभा समाजवादी पार्टी को 2027 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में बैठने के लिए संकल्पित भी हो रही थी.  यह प्रयास राजनीतिक रूप से तब गर्म हो गया जब पुर्वोंचल में स्थित गोरखपुर जिले के दिवंगत नेता हरिशंकर तिवारी के घर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने छापा मारा, हरिशंकर तिवारी जिन्हें राजनीतिक रूप से ब्राह्मणों के बड़े चेहरे के रूप में माना जाता था. वे अपने दोनों बेटे भीम शंकर तिवारी उर्फ़ कुशल तिवारी और उनके छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी के साथ 2021 में सपा में शामिल हो गये थे.

यहां बताते चले कि यह तिवारी परिवार बसपा से निकाले जाने पर सपा के करीब आए थे. जिसमें भीम शंकर तिवारी संत कबीर नगर से सांसद रह चुके है. वहीं विनय शंकर तिवारी गोरखपुर के चिल्लूपार से बसपा के विधायक थे. हांलाकि इससे पहले भी सपा के साथ कई ब्राह्मण चेहरे दूसरी दूसरी पार्टी छोड़कर आए हुए है. जिसमें संत कबीर नगर के खलीलाबाद से विधायक दिग्विजय नारायण चौबे उर्फ़ जय चौबे ने भी भाजपा छोड़कर सपा का दामन थाम लिया था. वहीं, बसपा सरकार में विधान परिषद् रह चुके अध्यक्ष गणेश शंकर पाण्डेय ने भी सपा की सदस्यता ग्रहण कर ली थी.

‘ब्राह्मण वर्चस्व’ और पीडीए

इन ब्राह्मण परिवारों का सपा में शामिल होने से पार्टी की बागड़ोर संभाल रहे अखिलेश यादव ने बयान दिया कि इतना बड़ा परिवार अब हमारे साथ जुड़ गया है तो फिर सपा का कोई मुकाबला नहीं कर सकता, सपा में आकर आपने परिवार की लड़ाई को और मज़बूत कर दिया है. अखिलेश यादव का यह बयान उत्तर प्रदेश में ‘ब्राह्मण वर्चस्व’ को स्वीकार करने वाला मालूम होता है. हालांकि पूरे पूर्वांचल में ब्राह्मण 10-12 प्रतिशत ही है. राजनीतिक तौर पर यह संख्या एक निर्णायक भूमिका भी अदा करती है. जिनके समर्थन की लालसा प्रत्येक राजनीतिक दल को होती है. यही कारण है कि भाजपा दिनेश शर्मा को सूबे का उपमुख्यमंत्री बना कर ब्राह्मण वर्चस्व को ही संतुलित करना चाहती है.

वहीं बसपा 2021 के अगस्त और सितंबर से ‘प्रबुद्ध वर्ग सम्मलेन’ के ज़रिए अपने साथ जोड़ने में लगी हुई हैं. जिसमें सतीशचन्द्र मिश्र, मथुरा के पूर्व विधायक श्याम सुंदर शर्मा, नकुल दुबे को आगे रख रही है जो ब्राह्मण समाज को अपने साथ जोड़ते रहे हैं.

हालांकि बसपा का यह दावा कितना कारगर होगा उसका एक आकलन 2014 के चुनाव से ठीक पहले उसकी राजनीतिक योजनाओं में देखा जा सकता है. जहां मायावती को यह उम्मीद थी कि वे जाटव और अन्य उपजातियों को टिकट देकर दलितों, मुसलमानों और ब्राह्मणों को संतुष्ट कर पाएगी. जिसके लिए बसपा ने 15 ओबीसी, 22 ब्राह्मण, 18 मुसलामन, 8 क्षत्रिय और 17 दलितों को टिकट दिया था. बसपा के इस प्रयास ने उसके अपने ही कार्यकर्ताओं (विशेष तौर पर दलित कार्यकर्ता) को भ्रमित कर दिया. खामियाज़ा यह हुआ कि पार्टी उन जगहों से भी चुनाव हार गई जहां से पार्टी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई थी.

रही बात अखिलेश यादव के ब्राह्मणों के प्रति राजनीतिक लाभ का जिसका आकलन बहुत सूक्ष्मता से करने की जरूरत है. क्योंकि अखिलेश यादव द्वारा पीडीए बना कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में सामाजिक न्याय का एक सफल संदेश दिया जा चुका हैं. जिसका लाभ उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में मिला. इस समय उत्तर प्रदेश में राजनीतिक ज़मीन उसी की मज़बूत हो सकती है जो 2014 से लेकर 2022 के चुनावों में बिखरी हुई पिछड़ी और वंचित जातियों को एक साथ लामबंद करने में कामयाब हो जाता है.

इस दिशा में सफलता पूर्वक समाजवादी पार्टी अपने पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) के फार्मूले से आगे बढ़ रही थी जिसका लाभ लोकसभा चुनाव में 56 प्रतिशत दलित और 34 प्रतिशत गैर यादव के वोट को अपने पाले में खींच पाई.

इस तरह अभी पीडीए का आकलन होना अभी बाक़ी था जहां यह अंदाज़ा लगाया जा रहा था कि डॉ आंबेडकर के छूटे हुए मिशन को पूरा करने वाला उत्तर प्रदेश पहला उदहारण बनेगा. डॉ आंबेडकर ने जनवादी क्रांति का नया सूत्रीकरण किया था. इस सूत्रीकरण में बाबा साहेब ने दलित, पिछड़ों के नेतृत्व  में एक ऐसा सामाजिक गठजोड़ बनाने की योजना पेश की थी जिसमें पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को मिलाकर मोर्चा बनाया जाए.

इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए पीडीए के द्वारा अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को सामाजिक न्याय बनाम हिंदुत्व की और मोड़ दिया था. जिसमें आवश्यकता यह थी कि जो पिछड़ी जातियां जिनमें कुर्मी, कोइरी, पासी, निषाद जो एक समय में समाजवादी पार्टी के साथ थे. उन्हें एक बार फिर साथ लाने का मौका भी मिल जाता. जिसकी कुछ झलकियां पीडीए के कार्य पद्धतियों में देखना बाकि थी. लेकिन ब्राह्मणों के साथ सपा का किया गया यह गठबंधन पूरे पीडीए गठजोड़ को ही संदिग्ध कर देता है.

बसपा एक उदाहरण: सामाजिक गठबंधन की विफलता

दूसरी तरफ, उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण जातियों में कोई समरूपता नहीं हैं. इन्हें तीन वर्गों में बांट कर देखा जा सकता हैं. एक वर्ग उन समूहों का है; जो सूबे की शुरूआती राजनीति से ही सशक्त और आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक रूप से ताकतवर रहें है. जिसका नेतृत्व कांग्रेस प्रदेश की राजनीति में शुरूआती दौर में किया करती थी. जिनमें कमलापति त्रिपाठी वर्तमान में राजेश मिश्र, प्रमोद तिवारी मुख्य रूप से शामिल है.

दूसरा वर्ग उन समूहों का है जो केवल राजनीतिक दलों से संरक्षण चाहते है. जिससे वह अपना व्यापर, ठेकेदारी, और एक संस्थागत वर्चस्व को बनाए रखें. बसपा ने सबसे पहले इन्हीं वर्गों को अपने राजनीतिक उदेश्यों से जोड़ा था. तीसरा वर्ग, उन समूहों का है जो आज भी किसानी कर के जीवन व्यापन कर रहें है, या फिर गांवों में जजमानी प्रथा को कायम रखते हुए अपने घर की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को चलाने की कोशिश कर रहे हैं. गरीब पंडितों का यह समूह राजनीतिक रूप से सशक्त होने से ज़्यादा अपनी सामाजिक और आर्थिक हालत को सुधारे की कोशिश कर रहा हैं. सपा के साथ जाने पर किन वर्गों को फ़ायदा होगा यह भी आकलन करने की आवश्यकता है.

बहरहाल, उत्तर प्रदेश की राजनीतिक इतिहास पर अगर गौर करें तो यह पाते हैं कि सामाजिक न्याय पर चलने वाले जिस राजनीतिक दल ने ऊंची जातियों के साथ गठबंधन कर अपने राजनीतिक लक्ष्य को समाने रखा है, वह अपने मूल राजनीतिक आधार को खोता हुआ ही नज़र आया है. बसपा इसका एक बड़ा उदहारण है. बसपा ने जब राजनीतिक आकांक्षा को पूरा करने के लिए ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारों जूते चार’ से आगे बढ़ते हुए ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे को पूरे उत्तर प्रदेश में बुलंद किया था उस समय तात्कालिक परिस्थितयों में वह सत्ता में तो आ गईं लेकिन उस पांच साल में दलितों और पिछड़ों कि जो राजनीतिक हैसियत और सशक्तिकरण का दायरा बढ़ाना था वह संकुचित होने लगा.

परिणाम यह हुआ कि पहले पार्टी का राष्ट्रीय दर्जा गया फिर उसका जनाधार इतना ज्यादा खिसकता गया कि पार्टी आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है.

समाजवादी पार्टी को यह गठबंधन कितना फ़ायदा और कितना नुकसान देगा इसका आकलन अभी बाक़ी है लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में किए गए इस तरह के फैसले पार्टी के हित में बहुत कम रहे है और उसका नुकसान पार्टी को लंबे समय तक चुकाना पड़ा है. सपा का ब्राह्मणों के साथ गठबंधन भले ही भाजपा के राजनीतिक दबदबे को रणनीतिक चुनौती देता है. अगर गठजोड़ संतुलन और संवाद के बजाय तुष्टिकरण का रूप ले लेता है तो पार्टी को पारंपरिक आधार खोने, संदेश की अस्पष्टता और गठबंधन की राजनीति में विरोधाभास जैसी समस्याओं का समाना करना पड़ सकता हैं.

(डॉ. प्रांजल सिंह, दिल्ली यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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