यह शायद भारत में किसी मुख्यमंत्री द्वारा लिखी गई सबसे असामान्य चिट्ठी थी. सबसे पहले, यह एक खुला पत्र था जो सभी भारतीयों के लिए लिखा गया था. दूसरा, यह एक्स पर पोस्ट किया गया और (जब मैंने आखिरी बार देखा) इसे 15,000 से अधिक लाइक्स मिले.
यह पत्र तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का था और इसे “मेरे अन्य राज्यों के प्रिय बहनों और भाइयों” के लिए लिखा गया था.
“क्या आपने कभी सोचा है कि हिंदी ने कितनी भारतीय भाषाओं को निगल लिया है?” यह पत्र इसी सवाल से शुरू हुआ था. इसके बाद स्टालिन ने कुछ भाषाओं के नाम गिनाए—भोजपुरी, मैथिली, गढ़वाली और कुमाऊनी सहित कई अन्य भाषाएं. उन्होंने कुल 19 भाषाओं की लिस्ट दी और कहा कि ये और “कई अन्य भाषाएं अब अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं.”
स्टालिन अपने मुख्य बिंदु पर पत्र के दूसरे पैराग्राफ में आए. “एकरूपी हिंदी पहचान को थोपने की कोशिश ही इन प्राचीन मातृभाषाओं को खत्म कर देती है. उत्तर प्रदेश और बिहार केवल ‘हिंदी हृदयस्थल’ नहीं थे. उनकी असली भाषाएं अब अतीत की धरोहर बन चुकी हैं.”
जो कोई भी इतिहास की समझ रखता है, उसे पता था कि यह कहां जा रहा है: “तमिलनाडु इसका विरोध करता है, क्योंकि हम जानते हैं कि इसका अंत कहां होगा…”
उत्तर-दक्षिण संतुलन
उसी समय जब स्टालिन “एकरूपी हिंदी पहचान” पर निशाना साध रहे थे, अमित शाह चेन्नई में तमिलनाडु के लोगों को यह आश्वासन दे रहे थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह सुनिश्चित करेंगे कि राज्य को प्रस्तावित परिसीमन प्रक्रिया में एक भी संसदीय सीट नहीं गंवानी पड़ेगी, जिससे लोकसभा की संरचना बदल जाएगी.
शाह सही हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने यह गारंटी नहीं दी कि परिसीमन के बाद तमिलनाडु को आवंटित सीटों का अनुपात घटाया नहीं जाएगा. जब मौजूदा सीटों का बंटवारा तय किया गया था, तब भारत की जनसंख्या दरें अलग थीं. अब, उत्तर भारत में तेजी से बढ़ती जनसंख्या का मतलब यह है कि यूपी में एक संसदीय क्षेत्र में 30 लाख लोग हो सकते हैं, जबकि तमिलनाडु में यह संख्या करीब 18 लाख हो सकती है.
अगर नई लोकसभा को जनसंख्या के आधार पर डिजाइन किया जाता है, तो तमिलनाडु को भले ही सीटें न खोनी पड़ें, लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को कई अतिरिक्त सीटें मिलेंगी. अगर लोकसभा की कुल सीटें बढ़ाकर 753 कर दी जाती हैं, तो यूपी, जो पहले से ही सबसे ज्यादा सांसद भेजता है, उसकी सीटें 80 से बढ़कर 128 हो जाएंगी.
यह स्पष्ट है कि इसका उत्तर-दक्षिण के राजनीतिक संतुलन पर क्या असर पड़ेगा. जब हिंदी पट्टी राज्यों को लोकसभा में अधिक प्रतिनिधित्व मिलेगा, तो राष्ट्रीय राजनीति पर उत्तर भारत का प्रभुत्व होगा—और स्वाभाविक रूप से, उन पार्टियों का भी, जो वहां सत्ता में हैं. उनकी फिक्र को पूरे भारत की चिंताओं के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा, और दक्षिण का राष्ट्रीय मामलों पर प्रभाव काफी हद तक कम हो जाएगा.
यही कारण है कि बीजेपी को यह विचार बुरा नहीं लगता. कोई भी ऐसा कदम, जिससे उत्तर भारत की सीटें बढ़ें, बीजेपी के लिए जबरदस्त फायदेमंद होगा. इससे यह मायने नहीं रखेगा कि पार्टी अब तक गैर-हिंदीभाषी राज्यों में कितनी सीटें जीत पाई है. भारत पर शासन करने के लिए उसे सिर्फ हिंदी पट्टी में पर्याप्त सीटें जीतनी होंगी.
इसीलिए स्टालिन और दूसरे दक्षिण भारतीय नेता हिंदी, हिंदी क्षेत्र और बीजेपी के भारत के भविष्य को लेकर फिक्रमंद हैं.
दक्षिण क्या कहता है?
दक्षिण भारतीय नेता तर्क देते हैं कि दक्षिण को उसकी सफलता के लिए सजा दी जा रही है. दक्षिणी राज्य आमतौर पर कई उत्तर भारतीय राज्यों की तुलना में आर्थिक रूप से कहीं अधिक सफल हैं. उत्तर प्रदेश में लिटरेसी रेट (साक्षरता दर) लगभग 68 प्रतिशत है, जबकि केरल में यह 94 प्रतिशत है. यही हाल आर्थिक विकास का भी है.
कई साल पहले, जब सोशल मीडिया अस्तित्व में भी नहीं था, टीवी मोहनदास पई दक्षिण भारतीय राज्यों की विकास दर की गणना किया करते थे. उनका कहना था कि ये राज्य कई एशियाई टाइगर देशों, जैसे सिंगापुर, के बराबर हैं. आज भी, अगर हिंदी पट्टी को गणना से हटा दिया जाए, तो भारत की आर्थिक स्थिति कुल औसत की तुलना में कहीं बेहतर नजर आती है.
जनसंख्या के मामले में भी यही स्थिति है. लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के आकार में दक्षिण और उत्तर के बीच बढ़ता अंतर इसलिए है क्योंकि दक्षिण ने अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण पा लिया है. कई गैर-हिंदी पट्टी वाले राज्यों में जन्म दर अब मृत्यु दर से भी कम हो गई है. लेकिन चार राज्य पूरे देश की औसत दर को प्रभावित करते हैं. 1960 और 70 के दशकों में जनसंख्या विस्फोट को लेकर जो डर था, वह मुख्य रूप से हिंदी पट्टी के बाहर जनसंख्या नियंत्रण की सफलता के कारण गलत साबित हुआ है.
कई मायनों में, स्टालिन के पत्र ने उन भावनाओं को व्यक्त किया जो कई दक्षिण भारतीय महसूस तो करते हैं, लेकिन खुलकर कहते नहीं हैं. आखिर कब तक दक्षिण भारत को हिंदी पट्टी की असफलताओं की वजह से पीछे रखा जाएगा? जब लोकसभा का पुनर्गठन होगा, तो क्या भारत का राजनीतिक भविष्य उन राज्यों द्वारा तय किया जाएगा, जो साक्षरता, जनसंख्या नियंत्रण और आर्थिक विकास जैसे कई मामलों में पीछे हैं?
दक्षिण भारतीयों का कहना है कि हां, हम लोकतंत्र हैं, लेकिन साथ ही हम एक संघीय राष्ट्र भी हैं. भारत को आगे बढ़ाने के लिए संख्यात्मक शक्ति और राज्यों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाना जरूरी है. अगर उन राज्यों को ही बार-बार दंडित किया जाता रहेगा जिन्होंने भारत को आगे बढ़ाया है, तो हम कभी भी वह महान राष्ट्र नहीं बन पाएंगे जिसकी हम आशा करते हैं.
हिंदी तो वैसे भी फैल रही है
हिंदी पर बहस—और स्टालिन का पत्र—इसी तरह की नाराजगी से उभरते हैं. हममें से कई लोग अब यह भूल चुके हैं कि द्रविड़ आंदोलन के शुरुआती वर्षों में एक मजबूत अलगाववादी पहलू था. हमारे महान राष्ट्रीय नेताओं की दूरदृष्टि ने इसे मुख्यधारा में लाया, क्योंकि उन्होंने तमिल सांस्कृतिक गर्व और दक्षिणी क्षेत्रीय भावना का सम्मान करने की आवश्यकता को समझा. 1965 में मद्रास (जो अब चेन्नई है) में हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद, इंदिरा गांधी की सरकार ने 1967 में आधिकारिक भाषा अधिनियम में संशोधन किया, जिससे हिंदी और अंग्रेजी को अनिश्चित काल तक राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में बनाए रखने की गारंटी दी गई.
इतिहास बताता है कि स्टालिन अपने पत्र में जो दावे कर रहे हैं, वे सही हैं. हिंदी नई भाषा है और संस्कृत के शब्दों से भरी हुई हिंदी मुख्य रूप से नौकरशाहों, राजनेताओं, पांडित्य दिखाने वालों और आकाशवाणी द्वारा बनाई गई भाषा है.
हिंदी ही एकमात्र “राष्ट्रीय” भाषा नहीं है, जैसा कि इसके कुछ समर्थक झूठे दावे करते हैं. अंग्रेजी न केवल एक उपयोगी संपर्क भाषा है, बल्कि इसने भारत को सॉफ्टवेयर जैसे वैश्विक व्यवसायों में कई अन्य एशियाई देशों की तुलना में बहुत बड़े लाभ दिए हैं.
और जो लोग हिंदी थोपने की कोशिश कर रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि हिंदी का उपयोग वैसे भी पूरे भारत में बढ़ रहा है. लेकिन इसका प्रसार राजनेताओं या हिंदी पट्टी के कट्टर समर्थकों की वजह से नहीं हुआ है. हिंदी धीरे-धीरे लेकिन मजबूती से पूरे भारत (हां, तमिलनाडु तक भी) में फैली है, और इसका श्रेय फिल्म उद्योग और उससे जुड़े माध्यमों—टीवी, स्ट्रीमिंग, संगीत आदि—को जाता है.
आने वाले समय में भी हिंदी का प्रसार इसी तरह होता रहेगा, चाहे इसके आक्रामक समर्थक कुछ भी चाहें.
यह दिलचस्प है कि जो लोग दक्षिण भारतीयों से हिंदी बोलने की मांग करते हैं, वही अक्सर बॉलीवुड (जिसे वे तिरस्कारपूर्वक “उर्दूवुड” कहते हैं) को पूरी तरह नकार देते हैं. कुछ साल पहले, उन्होंने हिंदी फिल्म उद्योग के खिलाफ एक राजनीतिक रूप से प्रेरित अभियान भी चलाया था. यह भी विचार करने योग्य है कि जो लोग अंग्रेजी को संपर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल करने वालों की निंदा करते हैं और उन्हें “औपनिवेशिक गुलाम” कहते हैं, वे ही वीडी सावरकर के अपने औपनिवेशिक शासकों को लिखे माफीनामों का महिमामंडन करते हैं.
सच्चाई यह है कि भारत बिना राजनीतिक और सांप्रदायिक एजेंडों के सबसे बेहतर तरीके से काम करता है. जब आप समुदायों (जैसे हिंदू और मुसलमान) के बीच दरार पैदा करने की कोशिश करते हैं, तो आप उस सिद्धांत को नुकसान पहुंचाते हैं जिस पर यह देश खड़ा है. और जब आप असफल और लड़खड़ाते हिंदी पट्टी की भाषा और रीति-रिवाजों को दक्षिण भारत पर थोपने की मांग करते हैं, तो आप हमारे देश के भविष्य को ही खतरे में डाल देते हैं.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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