अपने पड़ोसी देशों पर भारत की पकड़ को लेकर खूब चर्चाएं होने लगी हैं, खास तौर से नेपाल चुनाव के नतीजे आने के बाद. इसको लेकर सरकार की आलोचना हालांकि घरेलू राजनीतिक परिस्थितियों से निर्देशित होती है, लेकिन कड़वी सचाइयों का सामना करना भी महत्व रखता है, वह यह कि इस क्षेत्र में जमीनी हकीकतें बदल गई हैं. कुछ समय से यह तो साफ ही हो गया है. इसलिए भारत के पास क्षेत्रवाद की नई समझ के इर्दगिर्द केंद्रित अलग रुख अपनाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है.
पहले यह देखें कि क्या कुछ बदल गया है?
मोटे तौर पर तीन मुख्य बाते हैं- चीन का प्रभावक्षेत्र बढ़ रहा है; अमेरिका की स्थिति कमजोर हो रही है; और भारत भविष्य के लिए पारस्परिक निर्भरता की स्थिति बनाने में अक्षम सिद्ध हो रहा है. और बिना पक्षपात किए कहें, तो इस अक्षमता का इस बात से कोई ताल्लुक नहीं है कि कौन-सी पार्टी सत्ता में है.
चीन का बढ़ता वर्चस्व
लंबे समय से भारत की नीति इस बुनियादी धारणा के ऊपर आधारित रही है कि वह चीन के उत्कर्ष के परिणामों से तो निबट ही लेगा, बल्कि साथ-साथ पाकिस्तान को भी किसी-न-किसी तरह अनुशासन में रहने को मजबूर कर सकता है. दोनों बातें नहीं हुई हैं.
नेपाल और मालदिव में घटी घटनाओं से साफ है कि चीन का बढ़ता प्रभाव इस क्षेत्र के अधिकतर देशों की घरेलू राजनीति को काफी प्रभावित कर रहा है. यह कोई अचानक नहीं हो गया है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले एक दशक में भारत इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के परिणामों को कमतर करके आंकता रहा है.
1990 के दशक में चीन को ‘दक्षिण एशिया की सेनाओं’ में निवेश करना फायदेमंद दिखा. इसके पीछे दो तर्क काम कर रहे थे- पहला यह कि दक्षिण एशिया की विस्फोटक आंतरिक राजनीति में सेना ही एकमात्र मजबूत पक्ष है; दूसरा यह कि इस निवेश से इस तरह की पारस्परिक निर्भरता बढ़ेगी, जो भारत को चिंता में डाले रखेगी.
इसलिए पाकिस्तान, म्यानमार, बांग्लादेश और श्रीलंका को चीनी सैन्य सहायता निरंतर बढ़ती गई. यही कारण है कि उनके साजोसामान में चीनी मूल के उपकरण प्रमुख हो गए हैं. 2017 तक यह रणनीति बदल गई थी और उसके नतीजे अब सामने आ रहे हैं. जहां संभव हो वहां पाकिस्तान की मदद से चीन वित्तीय सहायता, राजनीतिक सलाह और संकट से उबरने के पैकेज के रूप कम-से-कम एक मुख्य राजनीतिक दांव में निवेश कर रहा है.
नेपाल में के.पी. ओली, श्रीलंका में महिंदा राजपक्ष, मालदिव में अब्दुल्ला यामीन और बांग्लादेश तक में खालिदा जिया को निशाना बना लिया गया है. इसके अलावा, बुनियादी ढांचे की अहम परियोजनाओं में निवेश उन राजनीतिक नेतृत्व को खासा आकर्षक लगता है, जिन्हें चीन संरक्षण दे रहा है. काठमांडू में रेलवे, श्रीलंका में हंबातोता परियोजना, या माले के पास नया शहर ऐसी परियोजनाओं के कुछ उदाहरण हैं.
ऐसा नहीं है कि यह सब नई बात है, लेकिन अब यह ज्यादा तेजी से उभर रहा है क्योंकि दक्षिण एशिया में भारत की प्रमुखता का निरंतर समर्थन कर रहे अमेरिका का प्रभाव घट रहा है.
पिछड़ता भारत
भारत ने दक्षिण एशिया के ‘क्षेत्रवाद’ में खुद को पारंपरिक तौर पर गलत पाले में खड़ा पाया है. वास्तव में, दक्षिण एशिया के छोटे देश भारत को निष्प्रभावी करने के लिए क्षेत्रीय पूंजी का इस्तेमाल करते रहे हैं. उदाहरण के लिए, ‘सार्क’ एक क्षेत्रीय संगठन के तौर पर बुरी तरह विफल रहा है लेकिन इस क्षेत्रों में सबसे ताकतवर के खिलाफ सुरक्षात्मक पहल के रूप में वह सफल रहा है. इसलिए भारत पिछले कुछ दशको में हरेक देश से निबटने की शक्तिशाली द्विपक्षीय रणनीतियां अपनाता रहा है और यह व्यवस्था करता रहा है कि किसी भी समय पर ‘गोलबंदी’ न होने पाए. इसके अंतर्गत, विभिन्न सरकारों पर नजर रखने के लिए गुप्त खुफिया क्षमता विकसित करना, समर्थकों को जोड़े रखना और नए सहयोगी बनाना शामिल था.
चीन के महत्वाकांक्षी विस्तारवाद ने इस पारंपरिक वर्चस्व को चुनौती दी है. अब भारत को गहन पुनर्विचार करना पड़ेगा. तथ्य यह है कि भारत अपनी राजनीतिक तथा भौगोलिक प्रमुखता के बावजूद ऐतिहासिक तौर पर एकजुट इस उपमहादेश में आधुनिक जुड़ाव का नक्शा बनाने में विफल रहा है. सरल शब्दों में कहें तो पूछा जा सकता है कि भारत ने दक्षिण एशिया में देशों को जोड़ने वाली कितनी नई सड़कें बनवाई है? इसी तरह, भारत के बंदरगाह उसके पड़ोसियों के लिए बमुश्किल पहुंच में हैं. उदाहरण के लिए, श्रीलंका का भारत के दूसरे बंदरगाह तक इस साल पहुंच मिली.
भारत ने दक्षिण एशिया के प्रति क्षेत्रीय रुख अपनाने का संकेत अब कहीं जाकर देना शुरू किया है. काठमांडू को बिजली सप्लाइ और बांग्लादेश के, जो अब भारत से 600 मेगावाट बिजली ले रहा है, साथ ग्रिड के जुड़ाव में सुधार इसके कुछ ताजा उदाहरण हैं. लेकिन भारत को इस क्षेत्र में अपने भौगोलिक अस्तित्व का लाभ उठाना है तो ऐसे उदाहरणों की संख्या कई गुना बढ़ानी पड़ेगी.
श्रीलंका में एलएनजी टर्मिनल बनाने के लिए भारत और जापान जिस तरह सहयोग कर रहे हैं वह ऐसा मॉडल बन सकता है जो भारत को चीन से प्रतिस्पद्र्धा में फासला कम करने के लिए ताकत जुटाने में मदद कर सकता है. समस्या यह है कि भारत को अपने ही पिछवाड़े में चीन की ‘बेल्ट ऐंड रोड’ अभिक्रम से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए ऐसे सरल तथा नए मॉडल लाने के लिए दोगुनी मेहनत करनी पड़ेगी.
इस दिशा में विश्वसनीय सुरक्षा तथा वित्तीय गारंटी के साथ नई, भारत-केंद्रित अभिक्रम पहली चुनौती होगी, न कि सत्ता परिवर्तन का पुराना खेल जो कि दिन-ब-दिन ऊंचे होते दांव के कारण कठिन होता जाएगा. दूसरे शब्दों में, भारत को यह स्वीकार करना होगा कि चीन दक्षिण एशिया में संतुलन को बिगाड़ दिया है इसलिए उसके पास इसका जवाब देने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है.
प्रणब धल सामंता दिप्रिंट के एडिटर हैं.