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Tuesday, 7 May, 2024
होममत-विमतसौरव गांगुली– वो पिता जो रजनीकांत जैसे पॉलिटिकल सिंड्रोम के शिकार हैं

सौरव गांगुली– वो पिता जो रजनीकांत जैसे पॉलिटिकल सिंड्रोम के शिकार हैं

सौरव गांगुली की सबसे बड़ी ताकत है. आम बंगाली की उनकी छवि- सभी के पसंदीदा दादा जिन्हें ‘अपने टोस्ट में दोनों तरफ मक्खन लगा होना पसंद है.’

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कुछ दिनों पहले सौरव गांगुली लंदन के लॉर्ड्स क्रिकेट मैदान पर ‘बहुत प्यारे लोग’ जय शाह (अमित शाह के पुत्र) और बीसीसीआई के सचिव और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के भाई अरुण ठाकुर और बीसीसीआई के कोषाध्यक्ष के साथ थे.

उससे महीने भर पहले 9 नवंबर को वह 25वें कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के अवसर पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ उन्हें ‘हमारी अपनी दीदी’ कहते हुए खुशी से तस्वीरें खिंचवा रहे थे. इसे गांगुली का विशिष्ट व्यवहार बताते हुए एक जानकार प्रेक्षक ने व्यंग्यपूर्वक कहा कि ‘उन्हें अपने टोस्ट में दोनों तरफ मक्खन लगा होना पसंद है.’

इसका सबसे ताजा उदाहरण पिछले सप्ताह तब दिखा जब गांगुली ने ट्वीट किया कि उनकी बेटी सना, जिसका 18वां जन्मदिन उन्होंने कुछ सप्ताह पहले ही मनाया था और जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ती है, ‘राजनीति समझ सकने के लिहाज से अभी बहुत छोटी है.’ सना ने नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के विरोध में सोशल मीडिया पर खुशवंत सिंह के 2003 के उपन्यास ‘द एंड ऑफ़ इंडिया’ से एक आलोचनात्मक अंश पोस्ट किया था.

खुशवंत सिंह ने लिखा है, ‘हर फासीवादी शासन को ऐसे समुदाय और समूहों की ज़रूरत होती है, जिनको बुरा बताकर वो फलफूल सकें. ये सब एक-दो समूहों से शुरू होता है. मगर कभी भी बात इतने पर खत्म नहीं होती. नफरत की बुनियाद पर खड़ा किया गया आंदोलन लगातार भय और संघर्ष का माहौल बनाकर ही जीवित रह सकता है. हममें से जो आज मुस्लिम या ईसाई न होने के कारण सुरक्षित महसूस कर रहे हैं वो मूर्खों की दुनिया में जी रहे हैं.’

अगर-मगर की दुविधा

बेशक सौरव गांगुली एक चिंतित पिता हैं, जो अपनी बेटी को सोशल मीडिया पर किसी भी तरह के विरोध से बचाना चाहते हैं. लेकिन, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी के खिलाफ मुख्यमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार के रूप में उन्हें नाजुक संतुलन बनाए रखना पड़ता है. आखिरकार, अगर वो दीदी हैं तो ये भी दादा हैं और पश्चिम बंगाल में भाजपा का सबसे अच्छा दांव भी, क्योंकि वर्तमान में पार्टी की कमान दिलीप घोष के हाथ में है जो कि कहीं से भी करिश्माई नहीं हैं.

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लेकिन, अपना नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर उनके एक करीबी दोस्त ने कहा कि संभावना यही है कि गांगुली अगले तीन वर्षों तक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को संभालेंगे. हालांकि, आरएम लोढ़ा समिति के सुधारों के अनुसार उनका कार्यकाल नौ महीने का है. इसे लेकर बीसीसीआई ने अपने संविधान में संशोधन किया है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की मंजूरी मिलने तक उसे लागू नहीं किया जा सकता. उनके मित्र ने कहा, ‘2022 के बाद हम देखेंगे कि वह राजनीति में कदम रखते हैं या नहीं.’ क्रिकेट लेखक प्रदीप मैगज़ीन ने दिप्रिंट से कहा कि यह बताना मुश्किल है कि सौरव राजनीति में शामिल होंगे या नहीं. उन्होंने कहा, ‘बुद्धदेव भट्टाचार्य से लेकर ममता बनर्जी तक– जिन्होंने बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव पद के लिए उनका समर्थन किया था. सभी मुख्यमंत्रियों से उनके अच्छे संबंध रहे हैं. ममता के पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री रहते उनका भाजपा में शामिल होने का खतरा मोल लेना मुश्किल दिखता है. हालांकि, आप यकीन से कुछ नहीं सकते.‘


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प्रतिष्ठित खेल पत्रकार शारदा उगरा ने दिप्रिंट को बताया कि बीसीसीआई अध्यक्ष के रूप में वह सचिव जय शाह के बॉस हैं, जो बहुतों का मानना है कि एक अस्थाई भूमिका मात्र है और गांगुली से शीघ्र ही एक ऐसी पेशकश (भाजपा में शामिल होने की) की जाएगी जिसे वह ठुकरा नहीं सकते हैं. उगरा के अनुसार राजनीति में जाना भले ही अपरिहार्य लगता हो, लेकिन गांगुली ने हमेशा अपने मन की की है और मुझे बहुत आश्चर्य होगा यदि वह उस रास्ते पर चलना चाहेंगे. क्रिकेट ही वो दुनिया है जहां उन्हें मज़ा आता है और वह आज भारतीय क्रिकेट में असाधारण हैसियत रखते हैं. यदि वह राजनीति में शामिल होते हैं, तो इसका असर एक महान भारतीय क्रिकेट कप्तान की उनकी विरासत पर पड़ेगा और वह एक अनजाने पेशे में महज एक ‘नेता’ बना कर रह जाएंगे. वह कोई इमरान ख़ान नहीं हैं और उनको ये बात पता है.

आक्रामक कप्तान

गांगुली ने हमेशा ही नेतृत्व की भूमिका निभाई है. बंगाल राज्य टीम के कप्तान के रूप में उनकी जगह लेने वाले क्रिकेटर दीप दासगुप्ता इसका श्रेय लोगों और स्थितियों के आकलन की उनकी क्षमता को देते हैं. उन्होंने कहा, ‘एक बंगाली के रूप में, उन्होंने मुझमें यह विश्वास भरने का काम किया कि समान मैदान में खेलने वाला, एक जैसा खाना खाने वाला, एक ही हवा में सांस लेने वाला व्यक्ति एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बन सकता है. वरना हम लोग अपनी मेधा के लिए बेहतर जाने जाते हैं.’

गांगुली को खेलते देख चुके पूर्व प्रसारक समकक्ष हरीश थवानी ने दिप्रिंट से कहा कि उन्होंने टीम इंडिया में एक विश्वास पैदा किया कि यह विदेशों में जीत सकती है, युवाओं को आगे बढ़ाया और आगे बढ़कर नेतृत्व किया (कभी-कभी अप्रत्याशित तरीकों से जैसा कि 2002 में इंग्लैंड के खिलाफ नैटवेस्ट ट्रॉफी जीतने के बाद खुशी में टीम की अपनी जर्सी उतारकर लहराते हुए). थवानी ने कहा, ‘वह सही मायने में हर तरह से ऑलराउंडर हैं. मैदान से बाहर वह तफ़सील पर ध्यान देने वाले, योजनानुसार चलने वाले और लक्ष्य-केंद्रित हैं.’ हालांकि, थवानी के अनुसार बीसीसीआई अध्यक्ष के रूप में गांगुली उतना ही प्रभावी साबित होंगे जितना संस्था में पहले से जमे लोग उन्हें छूट देंगे, क्योंकि उनका कार्यकाल छोटा है.

इसी संबंध में मैगज़ीन ने कहा, ‘वह खिलाड़ियों के कुछेक मामूली मुद्दों को भले ही हल कर लें मगर उनकी शक्तियां मज़बूती से जमे भाजपा नेताओं अमित शाह और अनुराग ठाकुर से आती है, जो उनकी नियुक्ति में मददगार थे. बीसीसीआई में वास्तविक शक्ति केंद्र अब जय शाह होंगे.’

हालांकि, गांगुली के पास नए विचारों की कमी नहीं हैं. उन्होंने इस तथ्य को भारत और बांग्लादेश के बीच कोलकाता के ईडन गार्डन में गुलाबी गेंद से खेले जाने वाले टेस्ट मैच के अथक प्रचार से प्रदर्शित भी किया, जिसका उद्देश्य टेस्ट क्रिकेट में फिर से दिलचस्पी जगाना था.

जैसा कि इंडिया टुडे ने 2004 में एक बार गांगुली के बारे में लिखा था, ‘टाइगर पटौदी के बाद, वह भारत के सर्वाधिक उदार और आक्रामक कप्तान रहे हैं. व्यक्तिगत उपलब्धियों का लालच छोड़कर वह भारतीय क्रिकेट की सामूहिक उपलब्धि पर ज़ोर देते थे. प्रतिभा की उनकी परख के कारण टीम में जीत की ललक रखने वाले खिलाड़ियों की पीढ़ी का उदय हो सका.’

आम बंगाली

हालांकि, भद्रलोक के संसार में रहने के बावजूद गांगुली सामाजिक रूप से अटपटे दिख सकते हैं. अपनी बेटी के पोस्ट को लेकर उनका व्यवहार बिल्कुल शासन में बैठे लोगों जैसा था, जहां हर कोई उत्तर प्रदेश के डीजीपी ओपी सिंह की तरह ‘बच्चों’ को विरोध नहीं करने की सलाह देता है और छात्रों को अपरिपक्व मानता है. ओडिसी नृत्यांगना पत्नी डोना के साथ उनका सार्वजनिक संवाद भी पुरुषवादी हास्यास्पद (‘1-15 वर्ष की हर लड़की लड़कों को सुंदर दिखती है’) से लेकर भुलक्कड़ (अपनी शादी के साल को भूलना) तक ही रहा है.


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फिर भी, उनकी सबसे बड़ी ताकत है आम बंगाली की उनकी छवि– सभी के पसंदीदा दादा, जिन्होंने अपनी उच्च-मध्य-वर्गीय जड़ों से खुद को जोड़े रखा है.

क्या वह कोलकाता के रजनीकांत बन सकते हैं– राजनीति में आएंगे कि नहीं की अफवाह का केंद्र बनकर लोगों को अटकलबाज़ी में सदैव व्यस्त रख सकते हैं?

(लेखिका एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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