आजकल बिहार में रहना हो रहा है. बिहार चुनाव की कवरेज जिसका ख़ास मकसद था, लेकिन यहां पर आपको हर डगर पर जातिवाद दिख जाएगा. बिहार की सामाजिक संरचना समझने के लिए यहां रहना घाटे का सौदा नहीं. ख़ासकर छठ जैसे महापर्व पर जो यहां के लोगों या यूं कहे कि बिहारियों के लिए आस्था के साथ-साथ जज्बात का पर्व है और वे इससे अपने आप को इतना जुड़ा हुआ समझते हैं कि इसमें फैली बुराई को भी समझने की कोशिश नहीं कर पाते. बिहार में इसे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. इस त्यौहार में थोड़ा बहुत कुछ अलग है तो वो है सूर्य की आराधना. यह प्रकृति की पूजा है, सूर्य के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का पर्व है लेकिन वास्तविकता और व्यवहार में जो चीजें इस पर्व में मौजूद हैं वह किसी भी सभ्य समाज के लिए दुखदायी होंगी.
छठ का त्यौहार नदी या पोखर (तालाब) के किनारे मनाया जाता है. यहां घाटों की व्यवस्था होती है, जिसमें व्रत करने वाले लोग पूजा करते हैं. यहां तक तो सब कुछ ठीक है. लेकिन इसके बाद कुछ चीजें ऐसी थीं जो आपको झकझोर कर रख देंगी. छठ मनाने वाली जगह पर कई घाट होते हैं और दुख की बात यह है कि अमूमन जातियों के आधार पर घाट बने होते हैं. जैसे चमारों का अलग घाट था, लोहार, कानू, कुर्मी आदि का अलग घाट था, राजपूतों, ब्राह्मण का अलग और सबसे कोने में डोम जाति के लिए एक छोटा-सा घाट बना था. डोम जाति के लोग भी छठ कर रहे थे, लेकिन उनका पंडाल देखने से ही समझा जा सकता था क्योंकि वहां उत्सव और सजावट में कमी दिखाई दे जाएगी. ताज्जुब की बात ये है कि उनके घाट पर कोई जल्दी से नहीं जाता.
डोम और चमार जाति के पंडाल/घाट बिल्कुल पास में ही थे लेकिन दोनों के बीच में एक तय दूरी दिखाई दे जाएगी. दलितों में भी कई उपजाति हैं, जो जिससे ऊपर है वो अपने आपको नीचे वालों से श्रेष्ठ मानने की भूल करते हुए मिल जाएंगे. जबकि वे खुद एक भेदभाव और अन्याय के साक्षी हैं लेकिन जाने-अनजाने वैसा ही अपने से नीचे वालों के साथ कर रहे थे. इसी तरह चमारों के पंडाल/घाट से ब्राह्मण/राजपूतों को कुछ लेना-देना नहीं था. वे भी दूरी बनाए हुए दिखाई दे जाएंगे. हैरान करने वाली बात ये है कि बिहार में फैली असली जाति-व्यवस्था की हकीकत छठ पूजा स्थल पर देखने को मिलती है.
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गौरतलब है कि देशभर में हिंदू बनाने के लिए कई राजनीतिक पार्टियां जोर देती रही हैं. बाहर से पहले लगा था कि छठ पर केवल सब हिंदू होते होंगे लेकिन अफसोस यहां भी हिंदुओं से पहले उनकी जाति आगे आ जाती है और जोर-शोर से मनाने वाले बिहारी इस पर्व को अपने घेरे (जाति) में ही मनाते हैं. इस तरह की जाति व्यवस्था से हमारा देश अलग-अलग व्यवस्था में बंटता है, जिस पर कभी कोई बिहारी बहस नहीं करना चाहता. जबकि देश की लगभग हर इंडस्ट्री में बिहार के लोग आसानी से दिख जाएंगे. यानी अगर यहां निरक्षरता है तो अच्छे-खासे पढ़-लिखे लोग भी हुए हैं.
पिछले साल ‘द हिंदू बिजनेसलाइन’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक पता चलता है कि तकरीबन 80 लाख बिहारी अपने राज्य से बाहर रहते हैं. इनमें वे बिहारी भी होंगे जो देश से बाहर विदेशों में रहते होंगे. अच्छी पोस्ट पर होने के बावजूद भी वे शायद ही इस व्यवस्था पर आवाज़ उठाते हैं.
बिहार से आने वाले बाबू जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद यादव ने ताउम्र सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी, शोषित-वंचित-पिछड़ों की आवाज उठाई लेकिन बावजूद इसके बिहार जाति के दलदल से आज भी निकल नहीं पाया है. बल्कि समानता लाने की कोशिश करने वाले इन शख़्सियतों को गाली भी दी जाती है क्योंकि इन्होंने सामाजिक न्याय और पिछड़ों को आगे लाने की बात की. बाबू जगदेव प्रसाद ने कहा था, ‘मानववाद की क्या पहचान- ब्रह्मण भंगी एक सामान, पुनर्जन्म और भाग्यवाद- इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद’
संझिया घाट यानी शाम को डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के लिए सभी व्रत करने वाले लोग पानी के पास जाकर अर्घ्य दे देते हैं, लेकिन डोम जाति के लोगों को वहां जाने की भी इजाजत नहीं होती. वे पोखर (तालाब) के सबसे अंतिम छोर पर खुद ही यह सब करते दिखाई दे जाएंगे. उनके पास न कोई जाना पसंद करता है और न उनसे किसी को कोई मतलब दिखाई देता है.
अमूमन सभी पंडालों में रौनक दिख रही थी लेकिन डोमों के पंडाल से रौनक वैसे ही दूर थी जैसे सदियों से उनकी जिंदगी से प्रकाश गायब है. वे भी सूर्य की आराधना कर रहे थे लेकिन सूर्य की रोशनी उनसे कोसों दूर दिखाई देगी. उनके भीतर इतना भी साहस नहीं कि किसी और पंडाल में जाकर वहां पूजा आदि कर लें. लेकिन इन सब के बावजूद उनके मन में कोई शिकायत नहीं है क्योंकि इसे ही वे अपनी नियति मान बैठे हैं.
भोरवा घाट यानी उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा. उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद प्रसाद का वितरण किया जाता है. लेकिन यह प्रसाद का वितरण आपस में ही किया जाता है. यानी प्रसाद लेने सवर्ण चमारों या डोम के पंडाल में नहीं जाते हैं या महिलाएं भी अन्य जाति की महिलाओं को सिंदूर लगाती नहीं दिखतीं. यहां भी एक ही जाति के लोग आपस में प्रसाद और सिंदूर लगाने की परंपरा का पालन कर लेते हैं.
ब्राह्मण जाति के लोग डोम के घर का बना हुआ ठेकुआ प्रसाद के रूप में ग्रहण इसलिए भी नहीं करते हैं क्योंकि व्यवहार में कभी ऐसा हुआ ही नहीं. सवर्ण जाति की महिलाएं डोम जाति की महिलाओं को सिंदूर इसलिए भी नहीं लगाती क्योंकि उन्होंने कभी अपनेपन से उन्हें देखा ही नहीं. जातिवाद शुरुआत से ही आस्था पर हावी था और है. जातिवाद की बीमारी सबसे घातक है ,जो भगवान के पूजा स्थल पर भी कड़ाई (स्ट्रीक्टली) से फॉलो की जाती है.
छठ पूजा स्थल पर कई ऐसे मुद्दे मिल जाएंगे जो इस सो-कोल्ड (तथाकथित) सभ्य समाज को आइना दिखाता है. छठ का व्रत अधिकतर महिलाएं ही रखती हैं, ये व्रत ज्यादातर पति और बेटों के लिए ही रखा जाता है. इसका बखान यहां के मशहूर गीतों में भी दिखाई दे जाएगा. देखा जाए तो ये व्रत भी करवाचौथ, होई अष्टमी, तीज आदि की तरह ही है, जो केवल महिलाओं के लिए एक त्याग है. वे भूखी भी रहेंगी, वे इन पर्वों के समय मेहनत और तैयारी भी करेंगी और ताउम्र गाली-दुत्कार भी सहेंगी लेकिन फिर भी पुरुषों को खुश करना ही उनका एक मात्र मकसद दिखाई देता है!
जहां दूसरी तरफ परिवार के पुरुषों के लिए ये पर्व पटाखे फोड़ने, मजे करने के लिए है. लड़कियां और महिलाएं अपने ही खिलाफ गीत गाती हैं तो दूसरी तरफ पुरुष पंडाल को बनाने और सजाने का काम करते हैं. व्रत भी रखेंगी तो अपनी उम्र बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि अपने ऊपर राज करने वाले पुरुषों की उम्र बढ़ाने के लिए. उन पर पुरुषवाद इस तरह हावी हो गया है कि वे ये भी नहीं पहचान पा रही हैं कि इससे उन्हें कितना नुकसान है!
जैसे छठ में गाए जाने वाले कुछ मशहूर गानों को में सुना जा सकता है कि व्रत अमूमन बेटे और पति की खुशहाली के लिए ही किए जाते हैं. प्रकृति की पूजा में भी अंधविश्वास और आडंबर घर कर गया है. छठ में प्रचलित इस गाने के बोल पढ़िए-
‘बांझीनी के पुत्र जब, दिहले दीनानाथ खेलत-कुदत घर जात। अन्हरा के आंख दिहले कोढ़िया के कायावा हसत बोलत घर जात।’ इन गानों की लाइनें पितृसत्तात्मक/सामंति व्यवस्था और सोच को ही मजबूत करती हैं. गाने के बोल के मुताबिक ‘बांझिन’ को जब दीनानाथ ने पुत्र दिया तो वह हंसती-खेलती हुई घर चली गईं. वहीं ‘अंधे’ (दृष्टिहीन) को जब आंख और ‘कोढ़ी’ को काया तो वे हंसते खेलते घर चले गए. इस मशहूर गाने के बोल कई जगह आपत्तिजनक हैं लेकिन समाज में इसे स्वीकार्यता प्राप्त है.
छठ के ज्यादातर गानों में महिलाएं इसी प्रकार की प्रार्थना करती नजर आ रही हैं, जिनमें कभी वे पति की लंबी आयु तो कभी बेटा पाने के लिए प्रार्थना कर रही हैं. आखिर क्यों एक भी ऐसा गाना मिलना मुश्किल हो जाता है जिसमें यह प्रार्थना की जाए जहां महिलाओं/वंचितों को गुलामी से आजादी मिले. बेटियों को भी समाज में बराबरी का हक मिले, वंचितों को समान समानता के अवसर मिले.
छठ मनाने में जो आडंबर और कुरीतियां हैं उससे इस देश को निकलने की जरूरत है, लेकिन अफसोस हमारा सो-कोल्ड सभ्य समाज इसी में खुश है. महिलाएं, वंचित, शोषित समाज को ये प्रथाओं और त्यौहार से जैसे और पीछे धकेला जा रहा है.
सॉरी बिहारियों लेकिन आपने प्रकृति की पूजा छठ को ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के हवाले कर दिया है. व्यवहार में इस त्यौहार को जाति और आडंबर से लाद दिया है. इस पर्व के प्रति आपके जज्बात भी खोखले और दिखावटी हैं. दुनिया का सबसे क्रूरतम शोषण यहां भी हो रहा है लेकिन आप लोगों ने उसे मौन सहमति दे दी है और अपनी आंखें मूंद ली हैं. सो कॉल्ड हमारा सभ्य समाज छठ के घाट पर भी डोम के साथ पूजा नहीं करता है, उनसे प्रसाद नहीं लेता है, मेल-जोल नहीं रखता है, उन्हें इंसान नहीं मानता है. कुत्तों को लाड प्यार (चूमने वाला) करने वाला वही सो कॉल्ड सभ्य समाज डोम जाति से प्रसाद लेना भी वाजिब नहीं समझता! गाय को देवी मानते हो लेकिन डोम को छूते भी नहीं, तो ऐसे में क्या समझा जाए कि छठ के प्रति आपकी जो ये भावनाएं है वो खोखली और दिखावटी हैं!
और अंत में ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कविता की इन लाइनों के साथ यहां विराम लगा रही हूं-
स्वीकार्य नहीं मुझे
जाना, मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में।
वहां भी तुम
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति से ही!
(मीना कोटवाल स्वतंत्र पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)
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अपनी स डी हुई हिन्दू विरोधी सोच को अपने गंदे दिमाग मै ही रखो।।।हिन्दुओं को अपमानित करके आप कोई बड़ा तीर नहीं मर रही।।।।नारियों की इतनी चिंता है तो हलाला ओ अन्य धर्मो की नारियों की भी परेशानी को लिखो।।।तब तुमको बो लोग तुम्हारी सही ओकात बता देंगे।।।हिन्दू सहिस्नू है तो जायदा फायदा मत उताओ।।।
स्वतंत्र पत्रकार मीना कोटवाल ने आज अपने लेख के आधार समाज को अंधविश्वास फैलाने वाले पर कड़ी टिप्पणी समाज को सही दिशा में ले जाएगी!
बहुत सुंदर विश्लेषण किया है आपने और हमारी सामाजिक बुराई जाती प्रथा पर छ ठ में अच्छी रोशनी डाली है जो दिल को व्यथित करता है । भारत के लोग मनुवादी सोच से कभी बाहर नहीं निकल सकते इस कारण हमलोग अभी भी बहुत पीछे हैं
ईश्वर की पूजा में सबका समान अधिकार होना चाहिए
बात महिलाओं की उनको तो जान बूझकर इन्हीं b कर्मकांडो में फसा कर रखा गया है कि वो आगे देखती ही नहीं हम पितृ सततात्मक सोच में इतना जकड़े हुए हैं कि इस से बाहर ही नहीं जा पाते अगर कोई जाता है तो उसे इतना कटाक्ष करते हैं कि पूछिए मत
आपने बहुत अच्छी चर्चा की और कमजोरियों पर नजर डाली इसके लिए शुक्रिया
God bless
बिहार विधानसभा चुनाव जीतने में विफल रहने के बाद, हार के लिए बिहारियों को दोषी ठहराया जा रहा है। अंगूर खट्टे हैं।
A piece of shit spread on the paper, that’s all. How come you see Lalu Yadav fighting for social justice? I didn’t understand, how you see a samanti Soch in falk ‘Dinanath’. Please don’t spill a shit about a culture you don’t know.
About the caste discrimination, you are absolutely right but the problem is no leader of Bihar tried to solve this puzzle. Didn’t you hear Lalu saying ‘don’t cast your vote, vote your caste’ isn’t it jativadi in itself. Caste discrimination is like a curse in Bihar and people should fight it out.
PS: please write what you know, don’t vilify a culture.
आप बिहार के किसी एक जगह का वर्णन करके पूरे बिहार का चरित्र नहीं बात सकते।
और ये स्वतंत्र पत्रकारिता नहीं है, पूर्वाग्रह से पीड़ित है।
आप किसी एक स्थान को लेकर कैसे पूरे बिहार के लिए ऐसा बोल सकते हैं। Shame on u
बहुत अच्छा लगा !!!
Koi gyan nahi hai reporter ko… this post is null and void
Can you please let us know the name of place and village where you saw this
Very good mam aap ne sach dikhane ki himat ki Aap ka dil se thanks
I find it odd that the word sorry crept in a hindi article.. You are entitiled to your views but I find it extremly silly that you will paint everyone with the same brush. Biharis are at the forefront of dropping their surnames which is the first step to come out of the caste conundrum . I know many of my firends who have had intercaste marriages (including me) ..Ofcourse we did not care in our teen years identifiying caste of the person to fall in love with so that we can have a brownie point in a debate. But overall a very poorly researhed article and a click bait headline.
Ji bilkul hm aap se santust hai lakin yeh bhedbaav aap ko dikhta hai arr aarkchad aap ko ni dikh rha ki hmm genral cast wale k saath kaisa bhed bhaav hota h arr yeh prtha bht pehly se suru hui h abhi se kisi ne ni start ki ar inn logo ko intni jhoot deni hee ni chahiye niche baithe the usi k lyk h vee
मीना कोटवाल ने छठ पूजा को मार्क्स के चशमे से देखा है। इसको छठ की और आज के बिहार के समाज की समझ तक नहीं है। मुझे तो लगता है ये बिहार गए तक नहीं थे, क्योंकि बिहार में इस बार 90 फीसदी लोगों ने अपने घर के बाहर पोखर खोद कर छठ किया है। इसी तरह छठ के कई गीत है जिसमें जाति उन्मूलन और लड़कियों उन्नति की प्रार्थन की गई है। मीना जैसै कथित खोजी नहीं खोजा (बिहार गए थे तो समझ ही गए होगे ‘खोजा’ बिहार में किसे कहते हैं, या फिर पूछ लेना किसी बिहारी से) विचारधारा वाले पत्रकार अब अकाल मृत्यु के करीब हैं। क्योंकि ये जानकारी नहीं एजेंडा परोसते हैं…..
Nothing wrong with what she said.
Completely bogus article written only to defame Bihar and it’s biggest festival. Let me clarify I am from Bihar and I have seen people from all caste and social spectrum worshiping on same ghat.
Not only female but Male also do this puja. This can be seen in many pics available on internet.
Chat Puja is not done only for son or male member but it’s also done for girl child or female member.
Babu jagjivan Ram and karpoori Thakur are good examples. But laloo is a thief and responsible for gundaraj. Hardly a ‘social reformer ‘