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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतमुट्ठी भर लोगों के चेहरों पर ही लाली, हम अब भी नहीं चेते तो ‘समस्याओं की जननी’ जानें और क्या-क्या गुल खिलाने लग जाए!

मुट्ठी भर लोगों के चेहरों पर ही लाली, हम अब भी नहीं चेते तो ‘समस्याओं की जननी’ जानें और क्या-क्या गुल खिलाने लग जाए!

‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022‘ के अनुसार वर्ष 2021 में उसकी एक फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी हिस्सा संकेन्द्रित हो गया है, जबकि निचले तबके के 50 फीसदी लोगों के पास महज 13 फीसदी हिस्सा बचा है.

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वर्ष 2021 समाप्ति के कगार पर जा पहुंचा है लेकिन इसकी शुरुआत से ही मिलनी शुरू हो गई बुरी खबरें खत्म होने को नहीं आ रहीं. पिछले फरवरी-मार्च में अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में देश के लोकतंत्र को लंगड़ा और आजादी को आंशिक करार दिया गया था तो अब दिसंबर में खबर आई है कि वह दुनिया के गैरबराबरी से सर्वाधिक पीड़ित देशों में शामिल हो गया है. ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022‘ के अनुसार वर्ष 2021 में उसकी एक फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी हिस्सा संकेन्द्रित हो गया है, जबकि निचले तबके के 50 फीसदी लोगों के पास महज 13 फीसदी हिस्सा बचा है.

रिपोर्ट के अनुसार देश की वयस्क आबादी की औसत राष्ट्रीय आय 2,04,200 रुपए है जबकि निचले तबके की आबादी की जो कुल आबादी की आधी है, 53,610 रुपए और शीर्ष 10 फीसदी आबादी की इससे करीब 20 गुना (11,66,520 रुपए) अधिक है. इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि शीर्ष 10 फीसदी आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57 फीसदी, जबकि एक फीसदी आबादी के पास 22 फीसदी हिस्सा है. वहीं, नीचे से 50 फीसदी आबादी की इसमें हिस्सेदारी मात्र 13 फीसदी है.

तथ्य बताते हैं कि इस गैरबराबरी के साए में कई तरह के दूसरे सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक भेदभाव और शोषण भी पनप रहे हैं. उनके कारण कुछ नागरिक असीमित शक्ति और समृद्धि से सम्पन्न तो बाकी निर्बल और विपन्न होते जा रहे हैं.

यह देश पहले भी कई प्रकार के अलगावों से जूझता रहा है लेकिन सबसे ताजा और संभवतः सर्वाधिक विभाजनकारी अलगाव यह है कि अब अमीरों और गरीबों के घर-बार ही नहीं, स्कूल-कॉलेज, शिक्षा संस्थान, आवागमन के साधन, यहां तक कि ट्रेनें और मनोरंजन की जगहें भी अलग-अलग हो गई हैं. इन जगहों पर कहीं ‘गरीबों के प्रवेश पर पाबंदी’ तो नहीं लिखा मिलता लेकिन अमीरी का भौंडा प्रदर्शन वर्जित न रह जाने के कारण शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहां अमीरी गरीबी को खुल्लमखुल्ला मुंह चिढ़ाती नजर ना आती हो.

यह इसलिए है क्योंकि हमने अपने जिस संविधान को भविष्य का निर्धारक मानकर 26 जनवरी, 1950 को लागू किया था, मौका पाते ही उसके विपरीत दिशा में यात्रा शुरू कर बहुत दूर निकल गए हैं.

याद कीजिए, संविधान में हमने समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने की प्रतिज्ञा की थी. संविधान के चौथे भाग में राज्य के निदेशक तत्वों में कहा गया था कि राज्य आर्थिक व्यवस्था को इस तरह चलाएं जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो.


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इस बात पर भी जोर दिया गया था कि राज्य का संचालन करने वाली सरकारें अपनी जनता के दुर्बल वर्गों के, खासतौर पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के शिक्षा, अर्थ से जुड़े हितों का सावधानी से विकास करें और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करें.

लेकिन विश्व असमानता रिपोर्ट-2022 के आईने में कौन कह सकता है कि संविधान के लागू होने से अब तक के सात दशकों में आई सरकारों ने इस दिशा में अपनी यात्रा सदाशयतापूर्वक जारी रखी है? जारी रखतीं तो आज अनेक नागरिक बार-बार सरकारें बदलकर भी हताश और निराश क्यों दिखते? क्यों नागरिकों के बड़ी संख्या को लगता कि तमाम निर्बलताओें के साथ उसे उसके हाल पर छोड़ दिया गया है? एक कवि के शब्द उधार लेकर कहें तो क्यों ‘नये हिन्द का नया ढंग है, नीति निराली, मुट्ठी भर लोगों के चेहरों पर ही लाली’? विश्वगुरू होने के हसीन सपने के बीच आम आदमी गहरे तिरस्कार से क्यों पीड़ित है और क्यों देश में संसद समेत सारा तंत्र ‘गणपतियों’ या अरब और खरबपतियों के लिए होकर रह गया है?

क्यों देश की विकास दर जहां दो अंकों में होने को तरसती रहती है, अरबपतियों-खरबपतियों की शत प्रतिशत से भी कई गुना ज्यादा बनी रहती है और कोरोना जैसी महामारियों के दौर में भी बहुत प्रभावित नहीं होती? क्यों करोड़ों लोग आजीवन गरीबी की रेखा को फलांग तक नहीं पाते और अरबपतियों- खरबपतियों की अमीरी कोई सीमा मानने को तैयार नहीं होती?

क्यों पिछले सात से ज्यादा सालों से देश की सत्ता संभाल रही नरेंद्र मोदी सरकार पिछली सरकारों पर यह तोहमत तो लगाती है कि अपने सत्तर सालों में उन्होंने कुछ नहीं किया लेकिन वह भी आर्थिक संकेन्द्रण के जरिए गैर-बराबरी बढ़ाने वाली उनकी रीति-नीति की दिशा में ही सरपट दौड़ती चली जा रही है? क्यों उसका चाल-चलन भी देशवासियों में यही भाव भरने लगा है कि सरकारें किसी भी रंग, रूप, डंडे-झंडे या विचारधारा की हों, शोषितों और वंचितों को देने के लिए उनकी झोली में कुछ खास नहीं होता?

इन सवालों के जवाब अब इस अर्थ में बहुत जरूरी हैं कि बढ़ती हुई गैरबराबरी अब उस मोड़ पर जा पहुंची है, जहां वह देश की आजादी को ही निरर्थक कर उदेने का मंसूबा पाल सकती है. यकीनन, वह समय सामने आ खड़ा हुआ है जब हमें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या धार्मिक और साम्प्रदायिक गैरबराबरी ही किसी देश की ज्यादातर समस्याओं की जननी होती है और नागरिकों के ज्यादातर शोषण उसी की देन होते हैं. वो शोषण भी जो ‘नैतिक श्रेष्ठता’ के गुरूर या ‘हमीं सबसे भले’ के नजरिए के साथ सामने वाले को कम या छोटा समझकर किए जाते हैं.

मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण भी खत्म होने के बजाय नए-नए रूप धारण कर इसीलिए सामने आ रहा है क्योंकि गैरबराबरी की समस्या से ठीक से नहीं निपटा जा रहा और ‘कान्फ्लिक्ट मैनेजमेंट’ से काम चलाया जा रहा है जिसमें चोर और साहूकार दोनों के ‘गुजारे’ पर जोर दिया जाता है. भले ही सामाजिक विवेक का गुजारा न हो सके.
प्रसंगवश, नोबेल पुरस्कार ठुकरा देने वाले इवान इलिच बहुत पहले बता गए हैं कि दुनिया में सिर्फ तीन ही समस्याएं हैं : पहली, अमर्यादित शक्ति, दूसरी, अमर्यादित समृद्धि और तीसरी, अमर्यादित संतानवृद्धि! लेकिन अफसोस कि अपवादों को छोड़ दें तो भारत समेत दुनिया भर में सत्ताएं और सरकारें इन अमर्यादित समस्याओं के समाधान की ओर से उदासीनता बरतकर उन्हें बड़ी ही करती आ रही हैं.

जब से दुनिया एकध्रुवीय हुई है और उसमें भूमंडलीकरण व्यापा है. सत्ताओं के ऐसा करने की गति और तेज हो गई है. उनमें से अनेक के लिए गैरबराबरी अब इस खुली छूट के साथ आदरणीय हो गई है कि अनैतिक आर्थिक स्पर्धाओं में, जो दुनिया को जितना अपनी मुट्ठी में कर सके, कर लें. वे ऐसी अनैतिक स्पर्धाओं को कतई अनुचित नहीं मानतीं.

अपने देश की बात करें तो मोदी सरकार ऐसा वातावरण बनाने में लगी है जिसमें ‘सबका साथ, सबका विकास’ के उसके बहुचर्चित नारे की फलश्रुति में गैरबराबरी का भी विकास होता चले.

बढ़ती गैरबराबरी के खिलाफ सत्ता और सरकारों के शुतुर्मुर्गी आचरण इसी तरह बने रहें तो भविष्य की स्थितियों की सहज ही कल्पना की जा सकती है. इस गैरबराबरी के रहते कॉमेडियन वीरदास की कहीं बातों पर कोई कितनी भी नाक भौं क्यों न सिकोड़े, कैसे कह सकता हैं कि हमारे भारत में दो भारत नहीं बसते? हम जानते हैं कि कई महानुभाव पहले भी फिल्मकार सत्यजीत रे पर फिल्मों में भारत की गरीबी को बेचने जैसे आरोप लगाते रहे हैं लेकिन क्या उनसे हालात बदल पाए हैं? कई दलित चिन्तक तो आज भी कहते हैं कि उनके साथ भेदभाव के लिहाज से भारत में अभी भी एक दक्षिण अफ्रीका बसता है.

ऐसे में कुछ नागरिक लगातार निर्बल और अनेक सबल होते जाएं, खरीद-फरोख्त में कुछ के पास सारी शर्तें अपने पक्ष में करने की सहूलियतें और दूसरों के पास उन्हें स्वीकार करने की मजबूरियां हों तो अवसरों की लोकतांत्रिक समानता क्यों कर कायम रह सकती है या कोई भी स्पर्धा क्यों कर नैतिक हो सकती है? यह तो खैर हम अभी से देख रहे हैं कि किस कदर गैरबराबरी की पोषक बड़ी पूंजी चुनावों में जनादेश को प्रभावित कर लोकसभा और राज्यसभा को करोड़पतियों, अरबपतियों-खरबपतियों की सभाओं में बदलती जा रही हैं.

इस स्थिति के पार जाकर वास्तविक लोकतंत्र की प्रतिष्ठा करनी है तो किसी न किसी को तो इस सवाल का जवाब देना ही होगा कि यह गैरबराबरी आगे हमारे लोकतंत्र को कब तक खैर मनाने देगी?

यह लेखक के निजी विचार हैं.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार है.)


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