लॉकडाउन की वजह से रोजगार खो चुके प्रवासी मजदूरों के गांव लौटने का सिलसिला थम गया है. बल्कि अब तो शहरों की ओर मजदूरों की दौड़ फिर शुरू हो गई है. गांव में रोजगार नहीं हैं और अनलॉक होते शहरों में लौटना उनकी मजबूरी बन गया है.
लॉकडाउन के दौरान कई अर्थशास्त्रियों, पब्लिक पॉलिसी विशेषज्ञों, राजनेताओं ने कहा था कि अगर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले इन लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा की कोई पुख्ता स्कीम होती तो लोगों को इस तरह शहर छोड़कर गांव नहीं लौटना पड़ता. लेकिन अब जबकि मजदूर फिर से काम पर लौट रहे हैं तो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए पुख्ता सामाजिक सुरक्षा स्कीम की बात फिर से भुला दी गई है.
कामगारों के लिए सोशल सिक्योरिटी स्कीम की रस्म अदायगी
इतिहास ऐसी कमजोर याददाश्त का पहले भी गवाह रहा है. 2008 के वित्तीय संकट से पैदा आर्थिक संकट के दौर में भी हमने ऐसा ही रिवर्स माइग्रेशन देखा था. उस दौर में भी जब असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए सोशल सिक्योरिटी स्कीम लाने की बात उठी थी तो मनमोहन सरकार ने सोशल सिक्योरिटी एक्ट, 2008 पारित कराया था और इसके बाद एक ढीला-ढाले नेशनल सोशल सिक्योरिटी फंड की स्थापना की गई थी. 2010-11 के बजट में इस फंड के लिए 1000 करोड़ आवंटित किए गए थे, जो देश के 45 करोड़ कामगारों (2010 का अनुमान) के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर भी नहीं था. जबकि नेशनल कमीशन ऑन एम्प्लॉयज इन अन-ऑर्गेनाइज्ड सेक्टर यानी एनसीईयूएस ने कहा था कि इसके लिए कम से कम 22,000 करोड़ रुपये दिए जाएं. यह राशि उस वक्त की जीडीपी के हिसाब से 0.39 फीसदी बैठती थी.
बहरहाल, बाद के दिनों में इससे भी बुरा हुआ. कैग रिपोर्टों से पता चला कि बाद की सरकारों ने इसके लिए आवंटित धन नेशनल सोशल सिक्योरिटी फंड यानी एनएसएसएफ में ट्रांसफर करना ही बंद कर दिया. यह सिलसिला मोदी सरकार तक चला आ रहा है.
लॉकडाउन में मजदूरों के साथ हुए सुलूक से कब सबक लेंगे हम?
लॉकडाउन के दौरान हुए एक सर्वे ने दिखाया कि दस में से आठ कामगारों को उनकी मजदूरी नहीं दी गई. सरकार के बार-बार के आदेश के बावजूद गुजरात की डायमंड इंडस्ट्री ने हीरा तराशने वाले कारीगरों को उनका वेतन नहीं दिया. हमने उनके लिए सोशल सिक्योरिटी स्कीम को पुख्ता बनाया होता तो इन मजदूरों को संकट के उस दौर में हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए पैदल ही नहीं निकलना पड़ता.
ये हाल तो असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का है लेकिन क्या संगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी कोई सोशल सिक्योरिटी स्कीम है? अप्रैल के पहले तीन सप्ताह के दौरान जब अमेरिका में 2.20 करोड़ लोग बेरोजगारी बेनिफिट के लिए सरकार से आर्थिक मदद पाने का दावा कर चुके थे, उस समय तक भारत में साढ़े छह लाख कर्मचारी अपने पीएफ का पैसा निकाल चुके थे. वो पीएफ जो रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी का एक मात्र आर्थिक सहारा होता है.
पूंजीवादी देशों में सोशल सिक्योरिटी पर काफी ध्यान दिया जाता है और ये माना जाता है कि पूंजीवादी शासन का मतलब लोककल्याणकारी राज्य की विदाई नहीं है. लेकिन भारत में इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जा रहा है
असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बात छोड़िए, भारत में ब्लू और व्हाइट कॉलर वर्कर्स को भी नौकरी छूट जाने के बाद गरीबी के दलदल में फंसते देर नहीं लगती. न उनके लिए किसी बेरोजगारी भत्ते का इंतजाम होता है और न इलाज की व्यवस्था और न बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए कोई फंड. वे सिस्टम के हाशिये में कबाड़ की तरह फेंक दिए जाते हैं.
संगठित क्षेत्र के कामगारों को भी बचाने वाला कोई नहीं
देश की वर्कफोर्स में दस फीसदी हिस्सेदारी वाले संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए तीन सोशल सिक्योरिटी स्कीम हैं- ईपीएफ, पीपीएफ और एनपीएस. लेकिन कर्मचारियों की जरूरत के हिसाब से तीनों नाकाफी हैं. प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों में नियोक्ताओं का ईपीएफ में कंट्रीब्यूशन का चलन घटा है. पीपीएफ में लंबे वक्त तक पैसा ब्ल़ॉक रहता है और एनपीएस बुढ़ापे की जरूरत के लिए है. इसमें भी लंबे वक्त पैसा ब्लॉक रहता है.
कोरोना संक्रमण को काबू करने के लिए लगे लॉकडाउन के अगले ही महीने 12 करोड़ से अधिक लोगों की नौकरियां चली गई थीं. सीएमआईई के आंकड़े ने मई में इसकी तस्दीक कर दी थी. सरकार ने इस बीच, इकनॉमी को उबारने के लिए तमाम ऐलान किए. रियल एस्टेट सेक्टर को पैकेज दिया, कॉरपोरेट सेक्टर के लिए टैक्स छूट का ऐलान किया और एमएसएमई के लिए तीन लाख करोड़ रुपये का लोन पैकेज दिया. लेकिन मुसीबत में लाखों मजदूरों की पैदल यात्रा और कंपनियों के छंटनी अभियान के बावजूद सरकार के अंदर आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए सोशल सिक्योरिटी के दायरे में लाने के सवाल पर कोई हलचल नहीं दिखी.
सबके लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाएं क्यों नहीं?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं सबके लिए क्यों नहीं हो सकतीं? इस देश में करोड़ों लोग घरों और दुकानों में काम करते हैं, रेहड़ी और पटरियों पर कारोबार करते हैं. खोखे लगाते हैं और खोमचों पर सामान बेचते हैं. गलियों में फेरी लगाते हैं. हजारों किलोमीटर दूर ट्रकों पर सामान ढोते हैं, हजारों किलोमीटर ऊंचाई पर सड़कें बनाते हैं. क्या ये लोग अपने भविष्य और आर्थिक सुरक्षा के बारे में नहीं सोचते? अगर नहीं सोचते तो रेहड़ी-पटरी और छोटे खोखे में सामान बेचने वाले लोग किसी चिटफंड कंपनी के सेविंग कलेक्टर को रोजाना अपनी कमाई से कुछ पैसे निकाल कर जमा करने के लिए नहीं देते. दफ्तरों के चपरासी आपस में मिल कर कमेटियां चलाते नहीं दिखते या फिर देश में हजारों की तादाद में सेल्फ हेल्प ग्रुप नहीं होते.
यह एक मिथक है कि गरीब अपनी आर्थिक सुरक्षा के लिए पैसा बचा कर नहीं रखना जानते. गरीबों के बारे में यह भी बड़ा मिथक है वे अपने पैसों का सदुपयोग करना नहीं जानते.
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दरअसल इस देश के कामगारों, मजदूर और गरीब किसानों को सोशल सिक्योरिटी के एक विश्वसनीय सिस्टम की जरूरत है. जरूरत इस बात की है देश के हर कामगार के लिए सामाजिक, सुरक्षा योजना में योगदान अनिवार्य बना दिया जाए. इसका एक हिस्सा सेस के तौर पर नियोक्ताओं से भी वसूला जाए.
देश में इस वक्त संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों लोग अपनी रोजी-रोटी गंवा चुके हैं. तपते कारखानों में काम करने वाले ब्लू कॉलर मजदूर, एसी दफ्तरों में लगे कंप्यूटरों के सामने उंगलियां चलाने वाले व्हाइट कॉलर कर्मचारी से लेकर शोर में डूबे हाट-बाजारों में सामान बेचने वाले लोग एक झटके में सड़क पर आ गए हैं. इस देश के लोगों के रोजगार पर ऐसा अभूतपूर्व संकट इससे पहले कभी नहीं आया था. यही वह वक्त है, जब देश के हर शख्स को सामाजिक सुरक्षा स्कीम के दायरे में ले आया जाए.
संसद के मानसून सत्र में सामाजिक सुरक्षा से जुड़े नौ कानूनों को एक साथ इकट्ठा कर बने सोशल सिक्योरिटी कोड बिल को पारित कराया जाना है. मोदी सरकार के लिए यह एक ऐतिहासिक मौका होगा. चाहे संगठित क्षेत्र हो या असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी, हर किसी के लिए सामाजिक सुरक्षा स्कीम आज की सबसे बड़ी जरूरत है. इस देश में राज्य अपने लोगों को सामाजिक सुरक्षा देने में बेहद पिछड़ा साबित हुआ है. दुनिया के साथ भारत के लिए भी यह असाधारण समय है. असाधारण समय में ही असाधारण फैसले लिए जाते हैं.
यही वह समय है जब किसी भी तरह की आर्थिक सुरक्षा के दायरे से बाहर करोड़ों लोगों के भविष्य को भरोसे की एक ताकत दी जाए. यही भरोसा भारत को आत्मनिर्भर बनाएगा.
(लेखक आर्थिक मामलों के पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)