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Wednesday, 18 December, 2024
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सामाजिक न्याय हमेशा से कांग्रेस का एजेंडा रहा है पर क्या आधुनिक हिंदुत्ववाद में भी इसके लिए जगह है

लोकतंत्र ने वंचित तबकों को राजनीति में आकर सत्ता एवं महत्त्व के पदों पर बैठने की चेतना पैदा की फलतः जातियों का राजनीतिकरण हुआ.

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कुछ दिन पहले असम के भाजपाई मुख्यमंत्री हिमंत विश्व सरमा ने एक श्लोक ट्वीट किया था जिसका अर्थ है ‘शूद्रों का काम सवर्णों की सेवा करना है.’ इसके बाद बिहार भाजपा के अध्यक्ष एवं हाल ही में राज्य के उपमुख्यमंत्री बने सम्राट चौधरी ने कहा कि ब्राह्मण पहले से सम्मानित रहे हैं आगे भी रहेंगे. इसके अलावा गुजरात के एक भाजपा विधायक ने बिलकीस बानो के बलात्कारियों के जेल से छूटने पर कहा था कि 11 में से कुछ बलात्कारी ‘संस्कारी जाति’ (उनका आशय ब्राह्मण जाति से था) के थे इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया.

इक्कीसवीं सदी में भाजपा नेताओं के ऐसे बयानों का एक ही अर्थ है कि वह आज भी मनुवादी एवं वर्णाश्रमी विचारों के आधार पर समाज को चलाना चाहती है.

2015 में आरएसएस प्रमुख ने मोहन भागवत ने आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की बात कही थी. 2024 में भाजपा जातिगत जनगणना के खिलाफ चट्टान की तरह खड़ी है.

आज भागीदारी न्याय एवं जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय की सबसे प्रासंगिक कसौटी है. जो इन दोनों के विरोधी हैं, वे बेशक जाति व्यवस्था के संरक्षक हैं. इस कसौटी पर नरेंद्र मोदी को देखें तो जाति, भागीदारी न्याय और जातिगत जनगणना, इन सभी पर उनके स्टैंड न केवल हास्यास्पद हैं बल्कि छलपूर्ण भी हैं. वे जाति का अस्तित्व मानना ही नहीं चाहते हैं. पहले वे नक्सली अंदाज़ में कहते हैं कि दो ही जातियां हैं- अमीर और गरीब. फिर कहते हैं कि चार जातियाँ हैं- नारी, युवा, किसान और गरीब. और जब वोट लेना होता है तो वे ओबीसी हो जाते हैं!

आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका केवल देश को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराने तक सीमित नहीं थी. बल्कि उसका वैचारिक और राजनैतिक कार्यक्रम भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर सुधार और सामाजिक न्याय का भी था.

1885 में अपने स्थापना के समय से ही वह इस लक्ष्य से चल रही थी कि जाति, लिंग, धर्म और क्षेत्र से परे वह समस्त भारतीयों के उत्थान के लिए कार्य करेगी.

जैसे-जैसे वह मजबूत होती गयी वैसे वैसे वह न केवल समता, बन्धुता और स्वतंत्रता पर आधारित नागरिकता की प्रबल समर्थक बनी बल्कि जाति व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध की सतत परम्परा से भी उसने खुद को जोड़ा.

नेताओं के व्यक्तिगत विचार कुछ भी रहे हों लेकिन सामूहिक रूप से वह जाति उन्मूलन के विचार से संचालित थी.

भारतीय समाज में सैकड़ों साल पुरानी जाति व्यवस्था की दासता से मुक्ति की संभावना देखे बिना भारत की बहुमत आबादी कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में नहीं उतर सकती थी. कांग्रेस के नेतृत्व ने उनको भरोसा दिया कि वे उनकी सामाजिक ग़ुलामी के ख़िलाफ़ मज़बूती से उनके साथ खड़े हैं. इसका सबसे ठोस उदाहरण कांग्रेस पार्टी ने 1927 में प्रस्तुत किया जब दिसंबर महीने में मद्रास सम्मेलन में भारत का संविधान कैसा होना चाहिए पर एक कमिटी का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू, सचिव जवाहरलाल नेहरू और एक महत्वपूर्ण सदस्य सुभाषचंद्र बोस थे. इस कमिटी की रिपोर्ट, जो नेहरू रिपोर्ट 1928 के नाम से इतिहास में दर्ज है, देश के भावी संविधान का आधार बनी. इस रिपोर्ट में मूल अधिकारों के सेक्शन में प्रावधान रखा गया कि देश के सभी नागरिक क़ानून के सामने बराबर होंगे और उनको एक समान नागरिक अधिकार प्राप्त होंगे, भेदभाव करने वाला कोई क़ानून देश में नहीं रहेगा, जाति धर्म से परे सभी को मुफ़्त प्राथमिक शिक्षा दी जायेगी, कुएं, सड़क और अन्य सभी सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश से किसी को रोका नहीं जाएगा, सरकारी क्षेत्र में रोज़गार पाने, सत्ता और सम्मान मिलने और व्यवसाय करने में जाति, धर्म और विचार के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा तथा कोई राजकीय धर्म नहीं होगा.


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1950 में जब देश का संविधान लागू हुआ तो समाज के प्रतिक्रियावादी तबके ने उसका विरोध किया. क्योंकि इससे उन्हें लगता था कि उनके विशेषाधिकार खत्म हो जाएंगे. इस तबके ने बड़ी तेजी से आधुनिक और समतावादी विचारों के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस के खिलाफ जनसंघ-आरएसएस के साथ गोलबन्द हुए.

लोकतंत्र ने वंचित तबकों को राजनीति में आकर सत्ता एवं महत्त्व के पदों पर बैठने की चेतना पैदा की फलतः जातियों का राजनीतिकरण हुआ. वे सामाजिक समता और सामाजिक न्याय के विचारों से प्रेरित हुईं.

जनसंघ-भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए दिखावटी रूप में सोशल इंजीनियरिंग शुरू की वहीं भीतर से वह वंचित जातियों की क्रांतिकारी चेतना एवं अधिकार भावना को नियंत्रित भी करना चाहती रही है.

हिंदुत्व भले ही एक शब्द के रूप में बीसवीं सदी की उत्पत्ति हो लेकिन जाति व्यवस्था के बचाव के लिए ढाल के रूप में, समता और न्याय के ख़िलाफ़ एक दर्शन के रूप में, मेहनतकश जातियों के जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष को कुंद करने के लिए एक रणनीति के रूप में और प्रभु वर्गों के हथियार के रूप में उतना ही पुराना है जितना पुराना जाति व्यवस्था का इतिहास है.

कांग्रेस पार्टी और महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत की आजादी की जो लड़ाई लड़ी गई वह तब तक नहीं लड़ी जा सकती थी जब तक कि पिछड़े समुदायों से आने वाले करोड़ों आम भारतवासी को यह भरोसा नहीं होता कि कांग्रेस पार्टी उनके साथ खड़ी है.

डॉक्टर भीम राव अंबेडकर द्वारा 1935 में रचित बहुचर्चित ‘जाति का विनाश’ लेख जिसमें उन्होंने भारतीय समाज के नवनिर्माण के लिये जातिव्यवस्था को ख़त्म करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है के सात साल पहले कांग्रेस पार्टी ने जाति व्यवस्था के उन्मूलन का एक ठोस प्रस्ताव राष्ट्र के समक्ष रखने का काम किया था. आगे चलकर नेहरू रिपोर्ट के लेखकों में एक जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना लिखकर संविधान सभा के समक्ष रखा जिसे संविधान सभा ने पास किया.

इस प्रस्तावना में नेहरू ने भारतीय जनता को न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, सुनिश्चित करने और स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधार पर भारत का नवनिर्माण करने का संकल्प किया है. यहां यह ग़ौरतलब है कि नेहरू जी ने सामाजिक न्याय को आर्थिक और राजनीतिक न्याय से पहले रखा है.

कांग्रेस पार्टी नेहरू रिपोर्ट पेश करके ही संतुष्ट नहीं हो गई. गांधीजी लगातार मंदिर प्रवेश, अस्पृश्यता निवारण और दलित उत्थान के लिए आंदोलन चला रहे थे जातिवाद के उन्मूलन हेतु अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित कर रहे थे. इसकी प्रतिक्रिया में कट्टर हिंदुत्ववादियों ने उन पर हमले भी किए.

एक ओर जहां गांधी, नेहरू और पूरी कांग्रेस पार्टी अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद से मुक्ति के साथ साथ भारत की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या जातिवाद से लड़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर, सावरकर, जो बीजेपी आरएसएस के प्रेरणा पुरुष हैं, हिंदुत्व का सिद्धांत निरूपित कर रहे थे जो धार्मिक अल्पसंख्यकों की उपेक्षा पर आधारित है.

गांधी और कांग्रेस के जातिवाद उन्मूलन, अस्पृश्यता निवारण और अंतर्जातीय विवाहों को मान्यता दिलाने जैसे कार्यों के जवाब में वीर सावरकर कुछ संकेतात्मक कार्य कर रहे थे जैसे रत्नागिरी के पतित पावन मंदिर में कुछ अछूतों का प्रवेश करा रहे थे. सावरकर सांगठनिक स्तर पर जातिव्यवस्था, अस्पृश्यता निवारण, अछूतों के मंदिर प्रवेश और जातितोड़ विवाह के लिये कोई कार्क्रम नहीं बना रहे थे जब कि उनका घोषित लक्ष्य हिंदुओं की एकता क़ायम करना था.

सावरकर बिना जाति भेद मिटाए केवल मुस्लिम विरोध के आधार पर हिंदू एकता बनाने की कोशिश कर रहे थे. सामाजिक न्याय की कोई कल्पना उनके कार्यक्रमों में नहीं थी. आज तक सौ साल के इतिहास में सावरकर के हिन्दुत्ववादी विचारधारा पर चलने वाले आरएसएस-जनसंघ-भाजपा ने जाति आधारित भेदभाव, विषमता, शोषण, अन्याय, उत्पीड़न को ख़त्म करने और समाज में अंतर्जाति विवाह को लोकप्रिय बनाने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया है. सामाजिक न्याय इनके एजेंडा पर कभी नहीं चढ़ पाया है.

इनका रास्ता सामाजिक न्याय का नहीं बल्कि सामाजिक या सोशल इंजीनियरिंग का है जिसके तहत सांकेतिक प्रतिनिधि देकर ये वंचित वर्गों के प्रति अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री कर लेते हैं. वंचित वर्गों की जीवन स्थितियों में सुधार हो, उनमें शिक्षा और आर्थिक समृद्धि आए, ये इनकी चिंता कभी नहीं रही है. ये भारतीय और हिंदू समाज में किसी प्रगतिशील सुधारों और परिवर्तन के ख़िलाफ़ रहते हैं, इनका उद्देश्य वंचित शोषित वर्गों को बिना कोई वास्तविक अधिकार दिये, केवल सांकेतिक प्रतिनिधि देकर उनकी जातिभावना का दोहन करके उनका वोट हासिल करना है.

2024 के आम चुनावों में केंद्रीय संघर्ष सामाजिक न्याय और भाजपाई हिंदुत्व की अवधारणाओं के मध्य होता दिखता है. भाजपा जहां धार्मिक अस्मिता के आवरण में जातिगत भेदभाव को छिपाकर बहुसंख्यक हिंदुओं को गोलबन्द करने की कोशिश कर रही है वहीं कांग्रेस और इंडिया गठबंधन जातिगत भेदभाव और सामाजिक न्याय को एक जरुरी चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में हैं.

इस तरह साम्प्रदायिक-संकीर्ण हिंदुत्ववाद और प्रगतिशील, समावेशी सामाजिक न्याय की अवधारणाएं एक बार फिर ध्रुवीकृत रूप में आमने-सामने हैं. धार्मिक आवरण में कुछ उच्च जातियों और पूंजीपतियों के हितों का देश की अधिकांश आबादी के हितों से टकराहट के रूप में यह चुनाव होने जा रहा है.

जातिगत जनगणना और आबादी के अनुपात में संसाधनों एवं अवसरों के वितरण की मांग उठाकर राहुल गांधी ने भारत जोड़ो न्याय यात्रा के माध्यम से बिगुल बजा दिया है कि सामाजिक न्याय उनका मुख्य एजेंडा होगा. वहीं भाजपा ने जातिगत जनगणना और आबादी के अनुरूप संसाधनों एवं अवसरों के वितरण की मांग को खारिज करके केवल धर्म के आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण करके यह बता दिया है कि उनका एजेंडा धार्मिक अस्मिता होगी.

संक्षेप में कहें तो यह चुनाव प्रगतिवाद और प्रतिक्रियावाद के बीच होने जा रहा है. प्रगतिवाद का नेतृत्व राहुल गांधी कर रहे हैं तो प्रतिक्रियावाद का नेतृत्व नरेंद्र मोदी के पास है.

इसके विपरीत कांग्रेस पार्टी का इतिहास शोषित वंचित वर्गों के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण करने का इतिहास रहा है. विगत साल फ़रवरी महीने में रायपुर में हुए महाधिवेशन में कांग्रेस पार्टी ने सामाजिक न्याय प्रस्ताव पारित किया जिसमें कुल 46 बिंदु हैं.

कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा के दूसरे चरण का नाम ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ रखा है. न्याय की यह अवधारणा सामाजिक न्याय के इर्द-गिर्द गढ़ी गयी है.

जाहिर है, हिंदुत्व की आड़ में पूंजीपतियों, सांप्रदायिकों, संविधान विरोधियों, जातिवादियों एवं फासिस्टों के गठजोड़ के मुकाबले में कांग्रेस ने संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिपेक्षता और सबसे ऊपर सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के एजेंडे को लेकर चुनावी मैदान में उतर चुकी है.

यह संयोग नहीं है कि संसद में हिमंता विश्व सरमा के इस्तीफे की मांग कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने उठायी और राहुल गांधी ने एक जनसभा में सरमा की मनुवादी ट्वीट के लिए भर्त्सना की जबकि भाजपा नेतृत्व ने अपने नेताओं पर कोई टिप्पणी भी नहीं की. क्या यह मौन सहमति का सूचक नहीं है?

(डॉ चंदन यादव अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


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