जाति सिर्फ हिन्दुओं की नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की बीमारी है. इलाकाई और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद जाति व्यवस्था इस क्षेत्र में लगभग सारे धार्मिक समूहों में पायी जाती है और ज्ञान, सत्ता, संपत्ति, संसाधन, लैंगिकता, मान-सम्मान के वितरण और संचालन में केन्द्रीय भूमिका निभाती है.
भारतीय मुसलमान भी जातीय विषमता के शिकार हैं और तीन प्रमुख वर्गों और सैकड़ों बिरादरियों में विभाजित हैं. उच्चवर्गीय मुसलमान ‘अशराफ़’ कहलाते हैं जो या तो अपना उद्भव पश्चिम एशिया या सेंट्रल एशिया बताते हैं. (सय्यद, शेख, मुग़ल, पठान इत्यादि) या फिर सवर्ण जातियों से धर्म परिवर्तित हैं (रांगड़ या मुस्लिम राजपूत, तगा या त्यागी मुसलमान, गाढ़े या गौड़ मुसलमान, इत्यादि). सय्यद बिरादरी का दर्जा सबसे ऊपर है और मुसलमानों में वह ब्राह्मणों के समानांतर हैं.
मुसलमानों के अन्दर गैर-बराबरी के दर्शन को सय्यदवाद कहा जाता है और इस दर्शन और अशराफिया वर्चस्व के विरुद्ध ‘अजलाफ़’ (शूद्र या पिछड़े मुसलमान) और ‘अर्जाल’ (दलित मुसलमान) तबकों के सामाजिक आन्दोलन लगभग बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से संघर्षरत हैं.
मुसलमानों में जातियों और प्रतिनिधित्व का प्रश्न
मुसलमानों की कुल आबादी का सवर्ण मुसलमान लगभग 15 फीसद और दलित, पिछड़े और आदिवासी मुसलमान 85 फीसद होते हैं. 1990 के दशक में बिहार से डॉ. एजाज़ अली के ‘आल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा’, अली अनवर के ‘आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ और महाराष्ट्र से शब्बीर अंसारी के ‘आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाईजेशन’ जैसे संगठनों ने मुसलमानों के भीतर जाति विनाश के सामाजिक आंदोलनों को नयी गति दी.
ख़ास तौर पर अली अनवर की किताब मसावात की जंग (2001) और मसूद आलम फलाही की हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान (2007) ने मुस्लिम समाज के अन्दर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का विधिवत तरीक़े से पर्दाफाश किया. इन दोनों किताबों ने यह साबित किया कि इस्लामी संस्थानों/संगठनों (जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड, इदार-ए-शरिया, इत्यादि), मुसलमानों के नाम पर चलने वाले सरकारी संस्थान (एएमयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, मौलाना आजाद एजुकेशनल फाउंडेशन, उर्दू अकादमी, इत्यादि) और शासन-प्रशासन पर अशराफ़ तबके के मुस्लिमों की अपनी आबादी से ज्यादा नुमाइंदगी है. इसके अतिरिक्त यह भी दर्शाया कि मुसलमानों में जातिगत भेदभाव रोटी-बेटी के रिश्तों में, कमज़ोर जातियों का उपहास उड़ाना, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होना, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए बाध्य करना, दलित मुसलमानों के साथ छुआछूत के प्रचलन, इत्यादि में नज़र आता है.
आज दलित, पिछड़े और आदिवासी मुस्लिम समूह – कुंजड़े (राईन), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), फ़कीर (अलवी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवारी), लोहार-बढ़ई (सैफ़ी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वन्गुज्जर, इत्यादि— ‘पसमांदा’ पहचान के साथ संगठित हो रहे हैं. पसमांदा का अर्थ होता है ‘वह जो पीछे छूट गया.’
सेकुलर बनाम कम्युनल के नाम पर प्रतिनिधित्व की अनदेखी
धार्मिक धुरी पर हो रही राजनीति ब्राह्मणवादी/सय्यदवादी तबकों द्वारा अपने हितो की रक्षा हेतु संचालित होती है. वर्चस्वशाली तबकों द्वारा प्रायोजित कौमी दंगे या मॉब लिंचिंग की घटनाएं बहुजन तबकों को जज्बाती मुद्दों में उलझा कर उनके ठोस सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को दरकिनार करती हैं. एक तरह से कहा जाये तो हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता का चोली-दामन का साथ है और यह एक दूसरे के साथ से फलती-फूलती हैं. लगभग सारी साम्प्रदायिक घटनाओं में ज्यादा नुक्सान पसमांदा-बहुजन तबकों का होता है. दैनिक जीवन में सैकड़ों जातियों में विभाजित आबादी कौमी फ़साद के दौरान रातोंरात ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ बन जाती है.
देश की आबादी के असली अल्पसंख्यक- सवर्ण मुसलमान और हिन्दू तबके, धार्मिक धुरी पर आधारित सेक्युलर-कम्युनल या अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विमर्श के ज़रिये लोकतंत्र पर कब्ज़ा जमाए बैठे हैं. इसलिए पसमांदा आन्दोलन धार्मिक पहचान की जगह सामाजिक पहचान पर बल देता है. पसमांदा नारा ‘दलित-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’ धार्मिक एकता के मुकाबले, सारे धर्मों की बहुजन-मूलनिवासी जातियों की एकता पर जोर देता है. डॉ आंबेडकर की तर्ज़ पर अब पसमांदा आन्दोलन किसी महात्मा की राह नहीं देखता बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नुमाइंदगी और भागीदारी के ज़रिये अपने दुखों का निवारण तलाशता है.
देश की राजनीति में कहां है मुसलमानों की 85 फीसदी पसमांदा आबादी
इस सन्दर्भ में लोकसभा चुनाव 2019 में पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी का सवाल उठा है. एक आकलन के हिसाब से पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे और इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा समाज से थे. अगर भारत में मुसलमानों की आबादी 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी भारत की कुल आबादी की 2.01 फीसद के आसपास होगी. हालांकि, लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5 प्रतिशत रहा है. जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है. वहीं 11.4 फीसद पसमांदा आबादी की नुमाइंदगी केवल 0.8 फीसद रही.
ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग यही स्थिति सत्रहवीं लोक सभा में भी बरक़रार रहेगी. उदाहरण के तौर पर बिहार में महागठबंधन के 7 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दोनों मुस्लिम उम्मीदवार अशराफ़ हैं. बिहार में अशराफ़ मुसलमानों की आबादी 3-4 फीसद से ज्यादा नहीं होगी. लेकिन महागठबंधन के उम्मीदवारों में उनकी नुमाइंदगी 15 फीसद है. वहीं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 9 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है, बसपा के 6 मुस्लिम उम्मीदवारों में 2 पसमांदा हैं और समाजवादी पार्टी के 4 मुस्लिम उम्मीदवारों में सिर्फ 1 पसमांदा है. भाजपा ने तो पसमांदा मुसलमानों के लिए कोई उम्मीद की वजह ही नहीं छोड़ी. लेकिन सामाजिक न्याय और सेक्युलर पार्टियों ने भी उन्हें टिकट वितरण में निराश ही किया है.
मुसलमानों में जातिभेद पर क्या कहते हैं आंबेडकर, लोहिया, कांशीराम
मान्यवर कांशीराम ने मुस्लिम समाज के अपने अनुभव के बारे में एक बार कहा था: ‘मुसलमानों में मैंने नेतृत्व के स्तर से जाना ठीक समझा. उनके 50 नेताओं से मैं मिला. इनमें भी ब्राह्मणवाद देखकर मैं दंग रह गया. इस्लाम तो बराबरी और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाता है, लेकिन मुसलमानों का नेत्रत्व शेख़, सय्यद, मुग़ल, पठान यानि अपने को ऊंची जाती का मानने वाले लोगों के हाथ में है, वह यह नहीं चाहते कि अंसारी, धुनिया, कुरैशी उनकी बराबरी में आयें…मैंने फैसला किया कि मुसलमानों में हिंदुओं की अनुसूचित जातियों से गए लोगों को ही तैयार किया जाए.’ (सतनाम सिंह, कांशीराम की नेक कमाई जिसने सोती कौम जगाई, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2007, पेज. 132).
मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद के बारे में डॉ बी. आर. आंबेडकर और डॉ राममनोहर लोहिया ने भी खुल कर अपनी राय रखी है. डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि ‘…गुलामी भले ही विदा हो गयी हो जाति तो मुसलमानों में कायम है ही’. 1901 सेन्सस रिपोर्ट के आधार पर अर्जाल या दलित मुसलमानों के बारे में वह कहते हैं कि ‘उनके साथ कोई भी मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है.’ डॉ. आंबेडकर हिन्दुओं में चलने वाले सामाजिक सुधार आंदोलनों का हवाला देते हुए लिखते हैं कि ‘मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं. परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते. इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं.’ (बी.आर. आंबेडकर, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2009, प. 229-233).
वहीं, डॉ राममनोहर लोहिया के अनुसार ‘भारत के राजनीतिकों ने अब तक देश के सचमुच पीड़ित अल्पसंख्यक, यानि हिंदू तथा मुस्लिमों की अनगिनत पिछड़ी जातियों, के हितों की रक्षा करने की चिंता नहीं की. उन्होंने शक्तिशालियों का अल्पसंख्यक के नाम पर हितसाधन किया है, जैसे पारसी, क्रिस्तान, मुसलमान और हिंदुओं में उच्च जाति वालों का’ (Dr. Rammanohar Lohia, Guilty Men of India’s Partition, B. R. Publishing Corporation, 2000, p. 47). अब वाजिब सवाल यह है कि वह राजनीतिक पार्टियां जो आंबेडकर, लोहिया या कांशीराम को अपना आदर्श मानती हैं. वह पसमांदा के प्रतिनिधित्व के प्रश्न से कन्नी काटती हुई क्यों नज़र आती हैं?
जब कहीं से पसमांदा मुसलमान चुनाव लड़ता है तो अशराफ़ उसे धुनिया, जुलाहा, कलाल, कुंजड़ा, कसाई कह के मज़ाक उड़ाते हैं और हराने में कोई कसर नहीं छोड़ते. वहीं, अगर कोई अशराफ़ खड़ा होता है तो उसे जिताना इस्लामी फ़र्ज़ क़रार कर दिया जाता है. अब पसमांदा आंदोलन ने सय्यद्ववाद के खिलाफ मुस्लिम समाज में भी 85 बनाम 15 की जंग छेड़ दी है. अब पसमांदा समाज में सवाब की जगह अधिकार-आत्मसम्मान की राजनीति और दुआ की जगह दवा की बात चल रही है.
हाशिये के समूहों की राजनीति धरती के गर्भ में सैकड़ों वर्षों से धधक रहे ज्वाला की तरह होती है. एक दिन ज्वालामुखी फटता है और बहुत कुछ बदल कर चला जाता है. 1990 के दशक में जब कोई भी उम्मीद नहीं कर रहा था तब बसपा ने पहली दलित मुख्यमंत्री बना कर सबको अचरज में डाल दिया था. पसमांदा आन्दोलन भी अब तमाम धार्मिक समूहों की ओबीसी-दलित जातियों को एक छत के नीचे ला कर व्यापक बहुजनवाद की अवधारणा पर काम कर रहा है. पसमांदा समाज अब सामाजिक न्याय के चक्र को पूरा करने के लिए प्रयासरत है.
(लेखक ग्लोकल यूनिवर्सिटी में लॉ स्कूल में सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर (समाजशास्त्र) और डॉ. आंबेडकर सेंटर फॉर एक्सक्लूशन स्टडीज एंड ट्रांस्फोर्मटिव एक्शन (एसेसटा) के डायरेक्टर हैं.)
यह सब इसलिए लिख रहा हूं ताकि इस पर प्रकाश डाल सकूं कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि ऐसी संस्थाओं का निर्माण भी करना होता है जो लोकतांत्रिक मूल्यों का सृजन कर सके.i like these line great thought…..
बहुत ही उम्दा लिखा आपने जनाब
आज कुछ नई बातें भी पता चलीं
बहुत अच्छा लिखा है