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Saturday, 8 November, 2025
होममत-विमतSIR ड्राइव NRC-CAA नहीं है—यह सिर्फ मुस्लिम नहीं, बल्कि लाखों असली वोटर्स को भी सूची से बाहर कर सकती है

SIR ड्राइव NRC-CAA नहीं है—यह सिर्फ मुस्लिम नहीं, बल्कि लाखों असली वोटर्स को भी सूची से बाहर कर सकती है

भारत में अभी भी दस्तावेज़ और डिजिटल सिस्टम तक पहुंच बराबर नहीं है. चुनाव आयोग की SIR प्रक्रिया किसी डराने या नुकसान पहुंचाने वाली कार्रवाई में नहीं बदलनी चाहिए.

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विपक्ष SIR (स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न ) 2.0 की टाइमिंग और उसके मकसद पर सवाल उठा रहा है. यह प्रक्रिया 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चलाई जाएगी और लगभग 51 करोड़ वोटरों को कवर करेगी.

यह घोषणा बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण से सिर्फ दो दिन पहले की गई. ड्राइव को मतदाता सूची को ‘साफ’ करने की नियमित प्रक्रिया बताकर पेश किया जा रहा है, लेकिन सिर्फ बिहार में पिछले सत्यापन के बाद 68 लाख नाम हटाए गए थे. ऐसे में इस पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठना स्वाभाविक है.

आज़ादी के बाद यह भारत में नौवीं बार ऐसा बड़ा अभियान हो रहा है, लेकिन इस बार इसका पैमाना, समय और राजनीतिक माहौल इसे राष्ट्रीय चर्चा का मुद्दा बना रहे हैं.

एक तरफ, केरल सरकार SIR को कोर्ट में चुनौती देने जा रही है. दूसरी तरफ, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसके खिलाफ सड़कों पर विरोध कर रही हैं. राजनीतिक स्पेक्ट्रम में विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा यह कह रहा है कि चुनाव आयोग का यह SIR कोई सामान्य प्रशासनिक काम नहीं, बल्कि राजनीतिक कदम है.

विपक्ष का आरोप है कि इस ड्राइव से भारतीय नागरिकों, खासकर मुस्लिम समुदाय के लोगों को वोटर सूची से बाहर किए जाने का खतरा है — खासकर उन जिलों में जो सीमावर्ती हैं और जहां मुस्लिम जनसंख्या अधिक है.

कई लोगों का मानना है कि यह समय किसी संयोग का परिणाम नहीं है. यह बीजेपी के चुनावी फायदे के हिसाब से बिल्कुल सही वक्त पर लाया गया है. इस वजह से एक प्रशासनिक प्रक्रिया एक बार फिर इस सवाल में बदल रही है — कौन ‘इस देश’ में शामिल है और कौन नहीं.

असल खतरा बनाम झूठे आरोप

यह माहौल NRC-CAA के समय जैसा महसूस होता है—विरोध, डर और बहस, लेकिन SIR ड्राइव वैसी नहीं है. NRC के उलट, SIR एक समय-समय पर होने वाली प्रक्रिया है. विपक्ष ने तुरंत आरोप लगाया कि यह मुसलमानों को टार्गेट करता है, लेकिन अभी तक इस दावे का कोई सबूत नहीं है. हटाए गए नामों का डेटा या आधिकारिक सूची अभी सामने नहीं आई है, इसलिए इस पर चल रही बहस का बड़ा हिस्सा अनुमान, डर और राजनीति पर टिका है.

मैं यह नहीं कह रहा कि यह प्रक्रिया बिल्कुल सही है या इसकी जांच नहीं होनी चाहिए—चुनाव आयोग की पारदर्शिता पर सवाल उठना बिल्कुल ज़रूरी है. लेकिन जब असली चिंताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए डर और राजनीतिक नाटक में दबा दिया जाता है, तो आम लोगों की आवाज़ खो जाती है.

SIR ड्राइव की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि यह किसी खास समुदाय को निशाना बनाती है. असली मुद्दा यह है कि इससे लाखों असली वोटर, खासकर गरीब और ग्रामीण इलाकों के लोग, वोटर लिस्ट से बाहर हो सकते हैं.

इन लोगों को अक्सर सरकारी दफ्तरों और प्रक्रियाओं की जानकारी नहीं होती, और कई बार सिस्टम से डर भी लगता है. यह बात तभी समझ आती है जब कोई ऐसे लोगों के बीच जाकर उनकी स्थिति देखे और सुने.

माइग्रेशन इन इंडिया रिपोर्ट 2020-21 (पीएलएफएस 2020-21, MoSPI) के अनुसार, भारत में कुल माइग्रेशन दर 28.9% है और ग्रामीण इलाकों में 26.5%. कुल प्रवासियों में से करीब 10.8% लोग रोज़गार की वजह से एक जगह से दूसरी जगह चले जाते हैं.

सीधी भाषा में कहें तो—SIR गरीब और लगातार जगह बदलने वाले लोगों पर यह साबित करने का बोझ डाल देता है कि वे कौन हैं और कहां के हैं.

दबी आवाज़ों को शांत करना

भारत में अभी भी दस्तावेज़ और डिजिटल सिस्टम तक पहुंच बराबर नहीं है.

अमीर देशों में भी यह समस्या रही है. उदाहरण के लिए—यूके का विंडरश स्कैंडल. 1948 से 1973 के बीच कैरेबियन देशों से आए हज़ारों लोग, जो ब्रिटेन में सालों से रह रहे थे, उन्हें इसीलिए हिरासत में लिया गया या देश से निकाल दिया गया क्योंकि वे अपने रहने का दस्तावेज़ साबित नहीं कर पाए.

एक देश अपनी जनता के भरोसे पर चलता है, लेकिन जब सिस्टम सिर्फ कागज़ों को इंसान से ऊपर रख दे, तो वह सिस्टम असफल हो जाता है.

भारत को ऐसा जोखिम नहीं उठाना चाहिए. हमें पहले से ही इन समस्याओं को समझकर हल निकालना चाहिए.

यह भी याद रखें कि इस देश में गरीब और हाशिये पर रहने वाले लोगों के लिए वोट सिर्फ एक अधिकार नहीं है, यह उम्मीद है.

यह वह पल होता है जब बड़े नेता उनके दरवाजे तक आते हैं, जब उनके होने को मान्यता मिलती है—कुछ पल के लिए ही सही.

चुनाव उनके लिए लोकतंत्र का त्योहार है. वादे टूट सकते हैं, मुश्किलें वापस आ सकती हैं, लेकिन वोट का हक उनके लिए उम्मीद की आखिरी डोर है.

अगर यह अधिकार उनसे छिन गया—चाहे गलती से या लापरवाही से—तो यह सिर्फ एक वोट नहीं, उनकी आवाज़ छीन लेना होगा.

इस स्थिति को बिना इसे डर पैदा करने वाली प्रक्रिया बनाए सुधारा जा सकता है. ज़रूरत जल्दबाज़ी की नहीं, बल्कि ईमानदारी, पारदर्शिता, ज़िम्मेदारी और समय की है.

लोकतंत्र को मजबूत करने वाली प्रक्रिया अपनी सबसे कमजोर जनता को दूर धकेल कर नहीं चल सकती.

इतनी बड़ी सत्यापन प्रक्रिया शुरू करने से पहले — राज्य सरकारें, एनजीओ और स्थानीय संस्थाओं के साथ मिलकर, लोगों को दस्तावेज़ जुटाने में मदद कर सकती हैं. यानी, हटाने की नहीं, पहचान और दस्तावेज़ बनाने में मदद की ड्राइव.

यही असल में लोकतंत्र की भावना के ज़्यादा करीब है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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