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Thursday, 21 November, 2024
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शिवराज के मध्य प्रदेश में उत्पादन में इजाफे के साथ-साथ किसानों का गुस्सा भी बढ़ा है

एक दशक से भारत के सबसे अधिक कृषि विकास दर करने वाले राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को आराम से बैठा होना चाहिए था. लेकिन वे संघर्ष कर रहें हैं क्योंकि हमारी कृषि अर्थव्यवस्था और राजनीति में खोट है.

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‘दीवार पर लिखी इबारत’(राइटिंग ऑन द वॉल) एक ऐसा रूपक है जो हमारी देश भर की यात्राओं और आसपास के देशों की यात्राओं से उभर कर आया जो ज़्यादातर हमने चुनावों के आसपास की. कई बार चुनाव के इतर भी की.

दीवर पर लिखी इबारत इसलिए क्योंकि जब आप शहरों और शहरी हो रहे गावों को तेज़ी से पार करते हुए जाते हैं और आपके आंख और कान खुले होते हैं तो ये वो बातें हैं जो वहां दीवारों पर लिखी हैं या जिसकी प्रतिध्वनि सुनाई देती है- जो बताती हैं कि क्या बदल रहा है और क्या नहीं. उपमहाद्वीप अपना दिल अपनी दीवारों पर उकेरता है.

दीवार से मेरा मतलब शाब्दिक दीवार से नहीं है. ये गुजरात के हाईवे के साथ-साथ क्षितिज पर दिख रही फैक्टरियों की कतार हो सकती है, कांचीपुरम में पेरियार के बुत के नीचे लिखी लाइने हो सकती हैं या लोगों के मुस्कुराते चेहरे हो सकते हैं जो चुनाव प्रचार देखते हुए आती है.

या फिर चुनाव में जा रहे मध्यप्रदेश में जैसा हमने पाया- सोयाबीन और अनाज के ठेर, भीड़भाड़ वाली मंडियां जहां आपको खेती के समय पंजाब में जितने ट्रैक्टर-ट्रालर नज़र आते हैं, उतने ही यहा दिखते हैं. सड़क किनारे आपको उतने ही कृषि गोदाम दिख जायेंगे जितने गुजरात में आपको फैक्टरियां दिखती है.

मध्यप्रदेश में सही में हरित क्रांति आई है. अब दस सालों से यहां किसी भी अन्य राज्य के मुकाबले कृषि वृद्धि दर अधिकतम हुई है. पिछले पांच सालों से ये 14 प्रतिशत सालाना रही है, जैसा कि राज्य के मुख्य सचिव, कृषि, डॉ राजेश राजोरा मुझे बताते हैं. टीएन नायनन ने अपने सप्ताहंत में लिखे कालम ‘वीकेंड रूमिनेशन्स’ में पिछले साल लिखा था कि 2010-15 के बीच मध्यप्रदेश का कृषि उत्पादन 92 प्रतिशत तक बढ़ा है.

दो साल पहले मध्य प्रदेश ने पंजाब और हरियाणा को पछाड़ कर देश के गेहूं के सबसे बड़े उत्पादक का तमगा हासिल किया. गेंहू से लेकर सोयाबीन, दालों, तिलहन, प्याज, लहसुन और हां वो खास उपज- वैध अफीम की खेती, सभी यहां होती है.


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मध्यप्रदेश के गोदाम और मंडिया और बहुत सारे उत्पादनों से भरे पड़े है. एक राज्य जो कि कृषि (77 प्रतिशत) पर आधारित है और ज़्यादातर ग्रामीण है– जहां हर 10 में से सात आदमी कृषि पर आश्रित है, इससे वहां वोटर को संतुष्ट होना चाहिए और बहुत संपन्नता आनी चाहिए. तो मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को, जो राज्य में पिछले 13 सालों में इतना चमत्कारिक बदलाव लाये हैं, अपने चौथे कार्यकाल के लिए मशक्कत नहीं करनी चाहिए.

पर रुकिए – मध्य प्रदेश की दीवार पर लिखी इबारत ऐसी बात नहीं कहती. चौहान 2018 में अपना अब तक का सबसे कठिन चुनाव लड़ रहे हैं. भले ही पिछले चुनाव में वे कांग्रेस पर 9 प्रतिशत की बढ़त के साथ जीते थे.

हमारे मध्य प्रदेश के इस सफर में जब खरीफ की फसल कट चुकी है और रबी की बुआई का काम चल रहा है, जिन बातों को हमें देखना है वो ये है. पूरे चुनाव में चर्चा कृषि संकट की है समृद्धि की नहीं? राज्य में सबसे ज़्यादा किसान आत्महत्याएं क्यों होती है? आप जिन किसानों से मिल रहे हो वे इतने नाराज़ क्यों है?

एक दशक की कृषि वृद्धि क्यों एक सज़ा बन गई? इस कृषि राज्य में आप आंखें, कान और दिमाग खोलकर आएं- और ये आपको बताएगा कि आखिर भारतीय कृषि की असल समस्या क्या है.

सवाल ढ़ूढ़ते हुए हम भोपाल से 40 किलोमीटर दूर सिहोर जाते हैं जहां राज्य की एक सबसे बड़ी मंडी है. जवाब जो आपको मिलेंगे वो उसपर निर्भर करेगा कि आप किससे बात कर रहे है– किसान से या व्यापारी से, दलाल से या सरकारी अफसर से. हमने बात की रामेश्वर चंद्रवंशी से जो अपने ट्रैक्टर ट्रॉली पर बैठे थे- किसानी करते करते धूप से तपा हुआ उनका चहरा डूबते सूरज में दमक रहा था.

वे कहते हैं, ‘हमें कुछ नहीं चाहिए बस फसल की अच्छी कीमत चाहिए. गेहूं के लिए 3000 प्रति क्विंटल और सोयाबीन 4000 रुपये क्विंटल.’ मैं उन्हें बताता हूं कि ये दोनों मौजूदा बाज़ार भाव से 30 प्रतिशत से ज़्यादा है.

वे कहते है– मुझे इससे क्या करना. सरकार को नुकसान उठाने दो या फिर निर्यात करने दो. ‘हम उसके बाद कोई मांग नहीं करेंगे, कोई शिकायत नहीं करेंगे. और वे मुझे याद दिलाते हैं कि वो एक सक्षम किसान है जिनके पास 15 एकड़ ज़मीन है और वे बीपीएल टाइप नहीं है.’

इलेस्ट्रेशन। सोहम सेन

चौहान सरकार ने इस मांग को पूरा करने की कोशिश की है. गेहूं और चावल का न्यूनतम खरीद मूल्य को बढ़ा दिया है और उपर से इस पर एक बोनस भी देते हैं. जो उपज एमएसपी के तहत नहीं आती है, जैसे सोयाबीन, भावंतर के रूप में 500 रुपये प्रति क्विंटल बोनस दिया जाता है, जोकि सीधे किसान के खाते में जाता है.

सबसे महत्वपूर्ण हैं दालें: मूंग और उड़द. सरकार का खरीद मूल्य आज 60-70 प्रतिशत निजी व्यापारी से ज्यादा है. दाल की कीमतों में भारी कमी उपभोक्ता के लिए भायदेमंद है तो किसान के लिए घातक.

एक कृषि अर्थशास्त्री से पूछे, खासकर सुधारवादी, बाज़ार के हिमायती जैसे आईसीआरआईईआर के अशोक गुलाटी, तो आप जानेंगे कि एमएसपी जब वो बाज़ार भाव से दुगुना होता है तब भी किसान की लागत पूरी नहीं करता. तो जितना ज्यादा किसान की उपज होती है, उतना ज्यादा सरकार पैसे देती है और दोनों को इसमें पैसे का नुकसान होता है.

हम यहां तक कैसे पहुंचे? हमने वास्तव में इसके लिए काफी कठिन और मूखर्तापूर्ण काम किया. आप आईसीआरआईईआर के वर्किंग पेपर 339 को पढ़ सकते हैं जिसे अशोक गुलाटी, पल्लवी राजखोवा और प्रवेश शर्मा ने लिखा है. इसका शीर्षक ‘मेकिंग रैपिड स्ट्राइड्स: एग्रीकल्चर इन मध्य प्रदेश, स्रोस, ड्राइवर्स एंड पॉलिसी लेशन’ है. इसमें कहा गया है कि अगर आप सिर्फ उत्पादकता बढ़ाते हैं और उसे बाजार से जोड़ नहीं पाते हैं तो आपको इसका नकारात्मक परिणाम भोगना पड़ सकता है.

दाल इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है. सालों से भारत का कुल उत्पादन हमारी आवश्यकता से करीब तीन से चार मिलियन कम होता था. दुनिया में दाल की उत्पादकता बढ़ नहीं पा रही थी. परिणाम यह रहा कि दुनिया में भी इसके दाम बढ़ गए. भारत में दालों के खुदरा दाम जब तीन अंकों (100 रुपये से ज्यादा) में पहुंचे तो लोगों और मीडिया ने हंगामा मचाना शुरू कर दिया. सरकार ने त​ब न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा कर दिया और दाल का उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया. इसका परिणाम दाल के बेहतर उत्पादन के रूप में सामने आया.


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आईसीआरआईईआर का आंकड़ा बताता है कि दालों का उत्पादन घरेलू मांग से दो मिलियन टन ज्यादा हो गया. लेकिन उत्पादन ज्यादा होने के बाद भी दालों का आयात जारी रहा, क्योंकि भारत पुराने वादों से पीछे नहीं हट सकता था.

इसका परिणाम यह रहा कि भारत के पास कुल 30 मिलियन टन दाल हो जाता है कि लेकिन हमारी जरूरत 22—23 मिलियन टन की होती है. अब तक दालों के आयात पर कोई शुल्क (जीरो ड्यूटी)भी नहीं लगता. ये दाल हमारे न्यूनतम समर्थन मूल्य से करीब आधे दाम पर भारत में आ जाती है. यहां तक इसकी कीमत हमारे किसानों के लागत से भी कम बैठती है.

फिलहाल अगर दाल से किसानों की परिस्थितियां समझ में नहीं आई तो हम दाल के तड़के में इस्तेमाल होने वाले प्याज और लहसुन से बात को समझते हैं.

पिछले साल मंदसौर में किसान असंतोष की खबर राष्ट्रीय मीडिया में छाई रही. यहां पुलिस द्वारा छह किसानों की गोली मारकर हत्या कर दी गइ थी. प्याज के कटोरे के रूप में प्रसिद्ध इस इलाके में प्याज एक रुपये किलो बिक रही थी. किसानों की मौत के बाद शिवराज सरकार ने कहा कि वो सारे प्याज 8 रुपये किलो के भाव से खरीद लेगी. जब ये घोषणा हुई तो नासिक तक के किसान मंदसौर में प्याज बेचने आ गए जिससे खरीद केंद्रों के सामने 10 किमी दूर लंबी लाइन लग गई.

इसे खरीदने के बाद में सरकार के समझ में नहीं आया कि इसका करे क्या. सरकार के पास भंडारण की सुविधा नहीं थी जिससे प्याज खराब होना शुरू हो गई. इसके चलते सरकार ने फिर दो रुपये किलो के हिसाब से बेचना शुरू कर दिया. मध्य प्रदेश के करदाताओं को सरकार के इस पागलपन के चलते 785 करोड़ का नुकसान हुआ.

कुछ ऐसी ही कहानी इस साल लहसुन के साथ हो रही है. लहसुन का दाम 7 रुपये प्रति किलो तक गिर गया है. किसानों की लागत 15—20 रुपये प्रति किलो के बीच है. हम एक ऐसे अनोखे देश हैं जहां ​लहसुन के दाम इतने गिर गए हैं और हम अब भी चीन से आयात किए जा रहे हैं. इसका कारण यह है कि हमारी आधी सरकार किसान को देखती है और आधी सरकार ग्राहकों को देखती है लेकिन दोनों आपस में बात नहीं करते हैं.

अगर हम मध्य प्रदेश की चर्चा कर रहे हैं तो इसकी मुख्य फसल सोयाबीन की चर्चा किए बिना बात खत्म नहीं हो सकती है. सिहोर और दूसरे मंडियों में आप इसे भारी मात्रा में देख सकते हैं. एक समय भारत सोयाबीन का बड़ा निर्यातक हुआ करता था. तब इसका सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाला अमेरिका जे​नेटिकली मोडीफाइड यानी जीएम फसलों का उत्पादन करता था. ज्यादातर देश जीएम सोयाबीन पसंद नहीं करते थे. इसका फायदा भारत को मिलता था.

अब कुछ यूरोपीय देशों को छोड़कर बड़े सोयाबीन ​आयातक देशों ने जीएम सोयाबीन का आयात करना शुरू क​र दिया है. इसमें दुनिया का सबसे बड़ा आयातक चीन भी शामिल है. आज दुनिया में सोयाबीन के तीन सबसे बड़े उत्पादक अमेरिका, ब्राजील और अर्जेंटीना जीएम फसलों का उत्पादन करते हैं. भारत के किसान किसी भी तरह से उनकी कीमतों का मुकाबला नहीं कर सकते हैं. हमारे यहां लेफ्ट और राइट दोनों धड़ों के किसान हितैषी ​जीएम फसलों का विरोध करते हैं. इसके चलते सोयाबीन का रकबा घट रहा है, दाम कम मिल रहा है और निर्यात लगभग ठप है.


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सोयाबीन किसानों की एकमात्र उम्मीद इस बात पर टिकी है कि सरकार ईरान से कच्चे तेल की खरीद के बदले में सोयाबीन का निर्यात कर सकती है.

वैसे चुनावी राज्य मध्य प्रदेश से मिलने वाला सबक बहुत ही आसान है. राजनेताओं को जनता केवल ​इसलिए ही नहीं पसंद करेगी कि उन्होंने उत्पादन बढ़ा दिया है. जब तक कि ये नेता अच्छी अर्थव्यवस्था और कृषि को बाजार से जोड़ने का काम नहीं करेंगे तब तक ऐसे विरोधाभास का सामना उन्हें करते रहना पड़ेगा जैसे कि अभी कृषि क्षेत्र में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले राज्य के किसानों में असंतोष बना हुआ है.

सिर्फ पैसा खर्च करना इसका कोई हल नहीं है. ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य का मतलब ये नहीं कि बाजार में ​भी ज्यादा दाम मिलेगा. और क्या वास्तव में कोई सरकार ये चाहती है कि खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ जाय? नहीं चाहती हैं क्योंकि पहला ग्राहक और दूसरा मीडिया ऐसा है जो दाल, प्याज, टमाटर और आलू के दाम बढ़ते ही चिल्लाना शुरू कर देता है.

एक सही और स्मार्ट राजनेता आज खेती को बाजार से जोड़ने का काम करेगा और साथ​ ही फूड प्रोसेसिंग, रिटेल चेन, निजी क्षेत्र के कोल्ड स्टोरेज को बढ़ावा देने और फ्यूचर मार्केट को खोलने पर ध्यान केंद्रित करेगा. यह किसी ​भी एंटी इनकंबेंसी और विचारधारा से बड़ी बात है और यह संदेश मध्य प्रदेश की दीवारों पर लिखा हुआ है.

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