दिल्ली और मुंबई के दिग्गज पत्रकार जो कि महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर रखें हुए हैं. वे रोज़ सेना के मुखपत्र सामना को गीता ज्ञान की तरह आत्मसात कर रहे हैं, क्योंकि इसके संपादकीय के ज़रिए भाजपा से बढ़ती कड़वाहट और अपनी झल्लाहट दोनों को सेना स्पष्ट कर रही है, साथ में उसकी इच्छा और मुख्यमंत्री पद की इसकी मांग के तर्क भी यहां पेश किए जा रहे हैं. सेना की नब्ज़ टटोलने का एक और तरीका ट्विटर के ज़रिए पार्टी नेता संजय राउत का भाजपा पर तीरों का छोड़ना हो गया है.
गुरुवार को सामना के संपादकीय ने उन सभी लोगों को चुप कर दिया जिनको इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि शिवसेना जो कि दक्षिणपंथी हिंदूवादी पार्टी होने का दंभ ही नहीं भरती बल्कि गौरवान्वित महसूस करती है, कैसे सेक्युलरिज़्म के नाम पर राजनीति करने वाली कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला पायेगी.
शिवसेना का इस संपादकीय में एक नया ही रूप नज़र आया, दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के आंदोलन और पुलिस की कड़ी कारवाई पर तीखी टिप्पणी करते हुए सामना में लिखा गया, ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के मोर्चे पर दिल्ली में अमानवीय लाठीचार्ज हुआ. सैकड़ों विद्यार्थियों के सिर फूट गए, हड्डियां टूट गईं और खून बहा. हजारों गिरफ्तारियां हुईं.’
भाजपा सरकार की छात्रों की मांगों का निवारण न कर पाने के लिए उसकी आलोचना करते हुए याद दिलाया कि जब अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार विरोधी और कांग्रेस सरकार विरोधी आंदोलन हो रहा था, तब भाजपा के नेता खुलकर जोर-शोर से इस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे.
सेना का बदला हुआ स्वर इस लाइन से आप समझ सकते हैं- ‘मोदी की आज की सरकार और भाजपा का स्थान इस आंदोलन से ही बना था. इसलिए आज जब दिल्ली में भाजपा का शासन है तो विद्यार्थियों के आंदोलन को रक्तरंजित करके कुचलना ठीक नहीं.’
यह भी पढ़ें : महाराष्ट्र में अमित शाह के जाल में फंस रही हैं शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस
शिवसेना के संजय राउत जो कि सामना का संपादकीय लिखते हैं उनकी कलम वहीं नहीं थकी. नई शिवसेना का एक और रूप इस आलेख में दिखाई दिया- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों का न केवल शिवसेना ने समर्थन किया बल्कि उनकी तारीफ भी कर डाली, और इन छात्रों के समर्थन के बहाने पुराने सहयोगी पर अब विरोधी बनी भाजपा पर निशाना भी साधा. ‘जेएनयू’ एक नक्सलवादी और वामपंथी विचारों वाले लोगों का अड्डा है. ऐसा ‘दक्षिणपंथी’ विचार वालों का कहना है.’ ऐसा लिख कर क्या शिवसेना कहना चाहती है कि वो दक्षिणपंथी नहीं रही और कांग्रेस और एनसीपी के साथ आने के लिए अपना भगवा चोला उखाड़ फेंक दिया है.
ये वही शिवसेना है जिसके प्रमुख उद्धव ठाकरे चुनाव के पहले अयोध्या जा कर सार्वजनिक रूप से स्वयं को सबसे बड़ा हिंदूवादी बताते हैं और कहते हैं कि उन्होंने कभी राम नाम और राम मंदिर की मुहिम नहीं छोड़ी. उनका तर्क था कि राम मंदिर के आंदोलन का असली नेतृत्व शिवसैनिक कर रहे हैं और भाजपा केवल इसे चुनावी मुद्दे के रूप में भुना रही है.
सवाल उठता है कि क्या अब शिवसेना अपने नए रूप में हिंदुत्व का मुद्दा छोड़ देगी. क्या वो अब दक्षिणपंथी नहीं रहेगी?
शिवसेना इतने पर ही नहीं रुकती है. पार्टी के मुखपत्र ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की तारीफ में भी कशीदे पढ़ डाले. सामना लिखता है, ‘इसी विश्वविद्यालय से निकले डॉ. अभिजीत बनर्जी इस बार के नोबेल पुरस्कार विजेता घोषित हुए और इससे देश की प्रतिष्ठा दुनियाभर में बढ़ी. इस विश्वविद्यालय ने कई अच्छे नेता और विशेषज्ञ देश को दिए हैं लेकिन उसमें से कोई ‘दक्षिणपंथी’ विचारों वाला नहीं था.’
‘दिल्ली के रास्तों पर कानून-व्यवस्था के नाम पर अति कर दी गई. यही कांग्रेस के राज में होता तो भाजपा वाले संसद को सिर पर उठा लेते और ‘एबीवीपी जैसे संगठन देश को बंद करने की घोषणा करते.’
इसी साल 20 फरवरी को सामना में राउत लिखते हैं, ‘महाराष्ट्र में ‘युति’ की चर्चा पर पूर्णविराम लग गया है. कुछ विरोधियों का सवाल है कि युति क्यों हुई? ऐसा दर्द उठा ही था और जब नहीं हुई थी तब कहा जाता था, ‘छी, छी, शिवसेना तो मुद्दे को तानती है!’ ऐसे सवालों का जवाब देने से अच्छा है कि महाराष्ट्र के हित में जो नई व्यवस्था बनी है, उसे आगे लेकर जाएं, इसी में सबकी भलाई है. जनता के मन में कम लेकिन हमारे राजनीतिक विरोधियों के दिमाग में सवालों का कीड़ा कुछ ज्यादा ही बिलबिला रहा है. ‘युति’ के कारण ये कीड़े कुचल दिए जाएंगे, इस डर से उनकी बिलबिलाहट शुरू है.’ तब शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी को कीड़ों की तरह कुचलने की बात कर रही थी. वहीं सेना अब भाजपा को आड़े हाथों ले रही है.
सितंबर 23 को चुनावों के पहले इसी शिव सेना के ये बोल थे -‘महाराष्ट्र के विरोधी दल की पहले से ही भ्रूण हत्या हो चुकी है. कांग्रेस और राष्ट्रवादी के दिग्गज नेताओं और वर्तमान विधायकों ने भाजपा तथा शिवसेना में प्रवेश किया है. कांग्रेस आईसीयू में है और राष्ट्रवादी लड़खड़ाते हुए खड़ी है.’
यह भी पढ़ें : अड़ना शिवसेना की मजबूरी है, वरना बीजेपी उसे खा लेगी
बार-बार दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा पर हमला शिवसेना यूं करती दिख रही है मानो वो दक्षिणपंथ छोड़ कर मध्यमार्गी या सेक्युलर हो गई है, या सीधे तौर पर ये दिखाता है कि नए दौर में, नए साथियों के साथ अब शिव सेना रूपी शेर ने अपना चोला बदल लिया है. अब ये वो पार्टी नहीं रही जो भारत पाकिस्तान क्रिकेट मैच के विरोध में वानखेड़े स्टेडियम का पिच उखाड़ डालती थी या फिर राष्ट्रवाद के नाम पर पाकिस्तानी कलाकारों पर प्रतिबंध की मांग करती रही है और वाघा बॉर्डर पर कांग्रेसी और वामपंथी कैंडल मार्च करने वालों को हिकारत से देखती रही है. अब तो नई शिवसेना स्वयं को दक्षिणपंथ से भी दूर करती दिख रही है.
इन सब बातों से साफ हो रहा है कि बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना सेक्युलर ताकतों के साथ मिलकर महाराष्ट्र में नये किस्म की राजनीति करने को तैयार है. लेकिन उसके इस नये स्वरूप को क्या उसके समर्थक स्वीकार कर पाएंगे यह देखना होगा.