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Sunday, 22 December, 2024
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शाहीन बाग भारत का तहरीर और तकसीम स्क्वायर है, यह कोई स्थानीय प्रदर्शन नहीं: उमर खालिद

हम मुसलमान सिर्फ अपनी नागरिकता की रक्षा कर के ही शांत नहीं रहेंगे. हमें मुसलमान बनकर रहने का अधिकार है और शाहीन बाग इस बात का वसीयतनामा है.

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जब आप ईवीएम पर जाकर बटन दबाएंगे तो उसे इतनी ताकत से दबाइए कि शाहीन बाग तक वो करंट महसूस की जाए. दिल्ली चुनाव के मद्देनज़र भाजपा के लिए प्रचार करते हुए अमित शाह ने ये बात कही. उनका संदेश था कि हज़ारों शाहीन बागों से बचे. इसके बाद कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने प्रेस कांफ्रेंस कर केजरीवाल पर आरोप लगाया कि वे शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों के साथ खड़े हैं.

साफ तौर पर, शाहीन बाग अब किसी क्षेत्र या किसी प्रदर्शन के स्थान तक सीमित नहीं रह गया है. इसने अपने नाम को वैश्विक स्तर पर कर लिया है जैसे कि मिस्र का तहरीर स्कवायर, तुर्की का तकसीम स्क्वायर और न्यू यॉर्क का वॉल स्ट्रीट है. भारत के कई कोनों में हर शाम एक शाहीन बाग उभरता है. जैसे कि कोलकाता में पार्क सर्कस, लखनऊ में घंटा घर और बंगलुरू में मॉस्क्यू रोड.

एक पोस्टर पर लिखा मिला- ‘यू डिवाइट, वी मल्टीप्लाई’.

एक चुप्पी ओढ़ा समुदाय बोल पड़ा है

चाहे वो शाहीन बाग हो या नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ किसी और जगह बैठे लोग हो, स्पष्ट है कि ये कोई साधारण प्रदर्शन के स्थान नहीं है. यहां बैठे लोग उस भीड़ की तरह नहीं है जो किसी भव्य राजनीतिक भाषण के बाद बिखर जाए. दिन के हर हिस्से में शाहीन बाद जिंदा रहता है. बच्चे अपने मां के साथ बैठे हैं, दादी लोग मंच के पास हैं, घरों से उनके लिए खाना आता है, कृतियां बनाई जाती है और वहीं गाने भी गाए जाते हैं.

हथियारों से लैस पुलिसबलों को नज़रअंदाज़ कर प्रदर्शनकारियों ने शाहीन बाग को इस तरह के स्थान में बदल दिया है जहां लोग निडर और दृढ़ता से बैठे हैं. अंतत: कहे तो क्रांति जनशक्ति का उत्सव है.


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निंदा करने वाले कुछ लोगों का कहना है कि प्रदर्शनकारियों ने क्या हासिल किया है और क्या वे नरेंद्र मोदी और अमित शाह की योजना को बदल सकते हैं? आज़ादी के बाद पहली बार, भारतीय मुसलमानों ने एक भाषा तलाशी है, राजनीति के उस व्याकरण को खोज़ा है जिससे वे अपनी तकलीफें और आकांक्षाओं को बता पाएं. मोदी के शासन के पिछले पांच सालों में पहली बार …वे लोग जो लिंचिंग होने के बावजूद कभी बाहर नहीं निकल पाए, जो अयोध्या के अन्यायपूर्ण फैसले के बाद भी चुप्पी लेकर बैठे रहे, निराशा और डर में समाए लोग अब बोलने लगे हैं. चुप्पी ओढे एक समुदाय खुद के लिए बोलने लगा है. जो मुस्लिम औरतें और युवा इन प्रदर्शनों में बैठे हैं वो साधारण भारतीय लोग जो व्हाट्सएप युनिवर्सिटी से पढ़े हुए हैं उनसे काफी जागरूक, अप-टू-डेट, सूचनाओं से लैस, ज्यादा तार्किक, सचेत हैं. मेरे लिए ये अभी तक की सामूहिक लड़ाई की बहुत बड़ी उपलब्धि है.

क्या हमारी चुप्पी ने मदद की?

बहुत लंबे समय से मुसलमान सिर्फ वोट बैंक तक सीमित हो गए हैं, सलाह ये दी जाती है कि वो दब कर रहे और कोई दूसरा उनके लिए लड़े. ये जो कोई ‘दूसरा’ है वो स्वघोषित धर्मनिरपेक्षतावादी, उदारवादी और एंटी-कॉस्ट लड़ाकू है. जबकि इनमें से बहुत सारे लोग सच में इस समुदाय के शुभचिंतक हैं, कुछ लोग मुसलमानों की कीमत पर अपना स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं और वोट जीतते हैं. मुसलमानों को चुप रहना चाहिए, वे कहेंगे, अन्यथा यह केवल हिंदुत्व-वादी समाज को ध्रुवीकृत करने में मदद करेगा और हमने कई दशकों तक उनकी सलाह सुनी.

इस बात से मुसलमानों को क्या हासिल हुआ या भारत को क्या मिला? क्या उनकी चुप्पी भारत के ध्रुवीकरण को माप रही थी. क्या इसमें उभरता हुआ फासीवाद निहित हो सकता है? क्या इसने धर्मनिरपेक्षता को बचाया है? मुसलमानों से जुड़ने से बचने के लिए क्या विपक्ष भाजपा के वोट बैंक को नुकसान पहुंचा रही है? राजनीतिक सुरक्षा से इतर ये सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की भी गारंटी नहीं देता है.

एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय की तुलना में अशिक्षा की दर (42.7 प्रतिशत) मुसलमानों के बीच सबसे ज्यादा है. देश की शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश की दर भी इस समुदाय की सबसे कम है, बाकी अन्य वंचित समुदायों से भी कम. किसी भी अर्थव्यवस्था में जहां नौकरी की सुरक्षा लगातार गिरती चली जाए ऐसे में शायद सबसे ज्यादा मुसलमान ही प्रभावित हो रहे हैं. सच्चर आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और अमिताभ कुंडू आयोग- एक के बाद एक ने माना कि ये समुदाय भारत में सबसे बड़ा वंचित अल्पसंख्यक समुदाय है. तनख्वाह मिलने वाले रोजगार में, सरकारी नौकरी में, पुलिस में, सेना में और किसी अन्य उद्योग में काम करने का इनका हिस्सा अप्रत्याशित तौर पर काफी कम है. एक ही स्थान है जहां पर हमारा सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व है, वो है- भारत के जेलों में.

ऐसे में हमारी चुप्पी ने कैसे मदद की है?

मुस्लिम राजनीति

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर आज न केवल मुसलमान सिर्फ बोल रहे हैं बल्कि वे राजनीति को फिर से गढ़ रहे हैं. मुख्यधारा की राजनीतिक सोच के इतर मुसलमान न केवल वोट ब्लॉक रह गया है और न ही एक समुदाय. लेकिन उन प्रदर्शनों से काफी सारे दबे हुए ज़ज्बात (जिसे ताकत से दबाया गया) मुस्लिम समुदाय के बीच दौड़ने लगी है. ये इतनी तेज़ी से हो रहा है कि जो काफी लंबे समय से केंद्र में रहकर इन समुदायों की रहनुमाई करते थे…उन्हें भी इन्हीं लोगों के बीच से चुनौती मिल रही है. ये किसके द्वारा हो रहा है? मुस्लिम समुदाय के सबसे ज्यादा वंचित आवाज़ों के ज़रिए- जो कि महिलाएं और युवा वर्ग है.

आंतरिक मोबिलाइजेशन ने उन पार्टियों और लोगों को परेशानी में डाल दिया है जो मुस्लिमों से वोट बैंक के आधार पर ही सौदा करना चाहते हैं जो एक तरह की सोच रखते हैं और उन्हें फिर से रुढ़ीवादी समुदाय के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं.


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धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी ने अयोध्या फैसले के बाद एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने मुस्लिमों को देशभक्ति से भरे स्वर में डांट लगाई. जावेद आनंद के अनुसार, शाह बानो के फैसले का विरोध करने और उसे उलट देने के बाद, मुस्लिम हिंदू अधिकार को ‘एजेंडा’ देने में उलझ गए.

हालांकि, मुसलमानों को अपनी अवांछित सलाह देते हुए, उन्होंने राजीव गांधी सरकार के लिए कोई शब्द नहीं कहा, जिसने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भारत में मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि बनाया. क्या एआईएमपीएलबी ने कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंका या चुनौती दी होगी? इससे इतर लेकिन फिर भी कांग्रेस सरकार ने ऐसा करने के लिए चुना, क्योंकि उसने हमेशा मुसलमानों पर नियंत्रण लागू करने के लिए अनुकूल शक्ति प्रदान की.

भारतीय राजनीति का इतिहास ऐसी कई घटनाओं से पटा पड़ा है जहां धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने मुस्लिम समुदाय की चुप्पी को बांध कर रखा. लेकिन अब हम किसी से भी ब्लैकमेल नहीं किए जाएंगे.

एक नया मोड़

हां, हम धर्मनिरपेक्ष हैं. लेकिन धर्मनिरपेक्षता के लिए हमारी लड़ाई संदर्भ से बाहर नहीं जाएगी, हम किसी दायरे में रहकर काम नहीं करेंगे जो मुसलमानों को असमानता के जकड़न में डाले. सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ लड़ते हुए हमने न केवल धर्मनिरपेक्षता को बचाने के लिए लड़ाई शुरू की है बल्कि सामाजिक न्याय के लिए भी काम शुरू किया है. हम सिर्फ नागरिकता को बचाए रखने तक हीं नहीं रुकेंगे. हमें मुसलमान रहने का अधिकार है और हम भी भारत के सामान नागरिक हैं.


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ये आंदोलन ब्लैक सिविल राइट्स आंदोलन जैसा ही है. हम नए संभावनाओं के उभार की तरफ हैं. सामान होने की फिर से संभावना लिए.

(लेखक एक जनवादी कार्यकर्ता और जेएनयू के पूर्व छात्र हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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