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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतविकास दुबे को ‘ब्राह्मणों का रॉबिनहुड’ बताने से जाति, अपराध और राजनीति के घालमेल की सही तस्वीर नहीं उभरेगी

विकास दुबे को ‘ब्राह्मणों का रॉबिनहुड’ बताने से जाति, अपराध और राजनीति के घालमेल की सही तस्वीर नहीं उभरेगी

भारतीय लोगों की कपोलकल्पनाओं ने विकास दुबे को बेवजह उत्तर प्रदेश का ‘डॉन’ बना दिया कि वह जिंदा गिरफ्तार होता तो सरकार के तख़्तापलट का भी वजह बन सकता था. 

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मीडिया अगर सनसनी और खबरों की तोड़मरोड़ की अपनी आदत से ग्रस्त न होता तो विकास दुबे को आज कोई ऐसे माफिया सरगना के रूप में शायद ही याद करता, जिसने कानपुर शहर को दहशत में डाल रखा था और जिसकी पहुंच काफी ऊपर तक थी. हकीकत यह है कि 3 जुलाई को आठ पुलिसवालों की हत्या के बाद विकास दुबे नाम का जो गैंगस्टर देशभर में कुख्यात हो गया, वह एक छोटा अपराधी था जिसका इलाका करीब 4000 की आबादी वाले चौबेपुर कस्बे तक ही सीमित था.

अपने गांव-कस्बे में जमीन हड़पने और जबरन वसूली करने के सिवाय उसका कोई लंबा-चौड़ा धंधा या इलाका नहीं था. उज्जैन में समर्पण करने के बाद उसका यह चिल्लाना कि ‘मैं विकास दुबे, कानपुर वाला…’ दरअसल किसी माफिया सरगना की गर्जना से ज्यादा, अपनी पहचान बताने की एक मुद्दई की सच्ची गुहार थी. समाचार चैनलों के दावों के विपरीत, वह मुठभेड़ की रात से पहले ‘सबसे तलाशशुदा’ अपराधियों की सूची में भी नहीं था. आठ पुलिसवालों की हत्या के बाद ही उसकी गिरफ्तारी को आसान बनाने के लिए उसके सिर पर 50 हज़ार रुपये का इनाम घोषित किया गया था, जिसे एक सप्ताह के भीतर बढ़ाकर 1 लाख, ढाई लाख और अंत में 5 लाख किया गया.

यूपी के हर जिले में छुटभैये, टुच्चे अपराधी दर्जनों की तादाद में मिल जाएंगे. 2004 की फिल्म ‘जागो’ में मनोज वाजपेयी ने जिस किरदार को निभाया उसका यह डायलॉग यहां मौजूं लगता है, ‘उत्तर प्रदेश का हर घर दावा करता है कि उसके यहां तीन नेता, दो गुंडे और एक आईएएस मिल जाएगा.’


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तोड़मरोड़ और साजिश

ऐसे मामूली गैंगस्टर को किसी मास्टरमाइंड अपराधी के रूप में पेश करना हमारी समझ को तीन तरह से विकृत करता है. सबसे पहले तो इसने इस साजिश का भ्रम पैदा किया कि विकास दुबे को इसलिए मार डाला गया क्योंकि उसके पास ताकतवर नेताओं के काले राज़ थे. लेकिन यह नामुमकिन है कि विकास दुबे के संपर्क विधायक स्तर से ऊपर के किसी नेता से रहे होंगे. नेता लोग किसी अपराधी को तीन वजहों से संरक्षण देते हैं— वह बाहुबली हो, पैसे का जुगाड़ कर सकता हो और वोट दिलवा सकता हो.

ताकतवर नेताओं के लिए विकास दुबे एक बाहुबली वाली भूमिका निभाता होगा, इसमें संदेह ही है क्योंकि कानपुर में उससे भी ज्यादा दबदबा रखने वाले अपराधी मौजूद हैं. कानपुर के स्थानीय लोगों ने ही नहीं, जमीन-जायदाद का धंधा (जो कि विकास दुबे का मुख्य धंधा था) करने वालों ने भी उसके बारे में पहले कुछ नहीं सुना था.

अगर आपका नाम दहशत पैदा करना तो दूर, किसी को पता भी न हो तो आप इलाके के बाहुबली नहीं हो सकते. विकास दुबे ने 2001 में तत्कालीन मंत्री और भाजपा नेता संतोष शुक्ल की हत्या की थी, इसके अलावा उसके खाते में कोई और बड़ा नाम नहीं है जिसे उसने अपना शिकार बनाया हो या जिससे उसने राजनीतिक साठगांठ की हो. दुबे और शुक्ल के बीच दुश्मनी इसलिए थी कि शुक्ल विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हरि कृष्ण श्रीवास्तव का राजनीतिक प्रतिद्वंदी था और दोनों चौबेपुर विधानसभा सीट के लिए टिकट के दावेदार थे. दुबे यूपी के श्री प्रकाश शुक्ल या मुन्ना बजरंगी जैसा डॉन नहीं था, जो हत्या के लिए सुपारी लिया करते थे.

इसके अलावा, चौबेपुर की राजनीतिक अर्थव्यवस्था ऐसी नहीं थी कि दुबे के पास इतना साधन जमा हो गया हो कि वह मंत्री स्तर के नेताओं को अनुग्रहीत कर सके. उसके स्थानीय राजनीतिक प्रतिद्वंदी लल्लन वाजपेयी के मुताबिक दुबे की मासिक आमदनी 10-12 लाख रुपये रही होगी. वाजपेयी के मुताबिक, इतने से चौबेपुर के आसपास ‘हरेक पुलिस थाने में दो-तीन आदमी को तो खरीदा जा सकता है’ लेकिन बड़े सरकारी अधिकारियों या ताकतवर नेताओं को नहीं.

जहां तक वोट दिलवाने की ताकत का सवाल है, दुबे खुद दावा करता था कि उसकी ‘(केवल) मेरे इलाके पर जबरदस्त राजनीतिक पकड़ है’. बेशक इसे आप बड़बोलापन भी मान सकते हैं, जो कि प्रायः अपराधियों की आदत होती है.

उदाहरण के लिए, 2006 के एक इंटरव्यू में वह ग्राम पंचायत के सरपंच का दो बार और ज़िला पंचायत के एक सदस्य का एक बार नाम लेता है और बताता है कि उसकी बीवी जिला पंचायत सदस्य है. जाहिर है, उसका राजनीतिक क्षितिज और प्रभाव चौबेपुर तक ही सीमित था. ऐसे अपराधी को ज्यादा से ज्यादा स्थानीय विधायक का ही राजनीतिक संरक्षण हासिल हो सकता है. 2017 के एक वीडियो में दुबे को डींगें हांकते हुए देखा जा सकता है कि उसके संबंध भाजपा विधायकों भगवती प्रसाद सागर और अभिजीत सांगा से हैं और इन्होंने उसका नाम किसी मामले से निकलवाने में मदद की थी. यह कहने की जरूरत नहीं है कि आठ पुलिसवालों की हत्या करने वाले और जनता के भारी गुस्से का निशाना बने अपराधी को ‘एनकाउंटर’ में मारने का फैसला चंद विधायकों की वजह से नहीं किया जा सकता.


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नाकाम अपराधी-नेता

विकास दुबे के बारे में दूसरी उल्लेखनीय बात यह नहीं है कि वह खूंखार अपराधी था, बल्कि यह है कि वह ऐसा कभी बन नहीं सकता था. 2001 में भाजपा नेता संतोष शुक्ल की हत्या करने के बाद वह बड़े कारोबार और राजनीतिक दबदबे का मालिक बनने के रास्ते पर चल सकता था. यूपी में हरि शंकर तिवारी, ब्रजेश सिंह, धनंजय सिंह, अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी सरीखे बाहुबली नेता इसी रास्ते पर चलकर आगे बढ़े. लेकिन दुबे दो दशक बाद भी चौबेपुर में ही सिमटा रहा.

एक बाहुबली नेता बनने में उसकी विफलता अपराध और राजनीति के मेल के बारे में कुछ गूढ़ बातें उजागर करती है. दुबे अपने समुदाय में अपने लिए भरोसेमंद संरक्षण का नेटवर्क नहीं तैयार कर सका, जो उसे राजनीतिक ताकत से लैस कर सकता था. दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता ने टिप्पणी की है कि ‘विकास दुबे कानपुर का (ब्राह्मणों का) रॉबिनहुड बन गया, जैसे कि अतीत में हरि शंकर तिवारी गोरखपुर का बन गया था.’

मामूली बातों पर अपने गांव और समुदाय के व्यक्तियों की हत्या करके कोई रॉबिनहुड कैसे बन सकता है? यह सच है कि उसके सभी साथी और शिकार भी ब्राह्मण थे, जिनमें डीएसपी देवेंद्र मिश्र भी शामिल थे जिन्हें घेरकर मार डाला गया था.

मुख्तार अंसारी ने किसी मुसलमान को या हरि शंकर तिवारी ने किसी ब्राह्मण को शिकार बनाया हो, यह ढूंढ पाना मुश्किल होगा. इसके अलावा, दुबे ने अपना दायरा बढ़ाने की कोशिश नहीं की जिसका अर्थ है कि उसके वसूली के धंधे उसके अपने ही इलाके में सीमित थे. आम तौर पर यही देखा गया है कि ऊंची महत्वाकांक्षा के साथ नेता बने अपराधी अपने इलाके से बाहर कमाए गए पैसे से अपने गांव-प्रखंड में लोगों को अनुग्रहीत करते हैं. दुबे को परमार्थी रोबिनहुड नहीं बल्कि दुखदायी उपद्रवी ही मानना चाहिए.

जाति की सीढ़ी

तीसरे, दुबे को ब्राह्मण ‘नेता’ मानने का एक खतरा यह है कि तब उसके कैरियर में आए मोड़ों में व्यापक राजनीतिक अर्थ खोजे जाने लगते हैं. शेखर गुप्ता का कहना है कि ‘निचली और मझोली जातियों की राजनीतिक ताकत जैसे-जैसे बढ़ती गई, उसके जवाब में ब्राह्मणों और ठाकुरों के गिरोह उभरते गए.’ वास्तव में इसका उलटा ही होता है.

किसी जाति की राजनीतिक ताकत (और आर्थिक समृद्धि) जैसे-जैसे बढ़ती है, उसके अंदर अपराधियों का उभार भी बढ़ने लगता है. उदाहरण के लिए, यूपी के अंदरूनी इलाकों में हरित क्रांति के बाद जब पिछड़ी जातियों ने काफी आर्थिक ताकत और इसके बूते स्थानीय स्तर पर राजनीतिक ताकत भी हासिल कर ली तब उसके अंदर अपराधी भी उभर आए. ओबीसी ने जब राजनीतिक ताकत हासिल नहीं की थी, उससे पहले से ही ब्राह्मण और ठाकुर दबंग अपराधी जातियां थीं और आज भी हैं. इसी तरह, दलितों ने राजनीतिक ताकत तो हासिल कर ली मगर उसमें अपराधी माफिया इसलिए नहीं उभरे क्योंकि वे स्थानीय स्तर पर दबंग नहीं हैं. अपराधी उन्हीं इलाकों में उभरते हैं जहां उनकी जाति/समुदाय जमीनी स्तर पर दबंग और राजनीतिक रूप से ताकतवर होती है.

इसलिए, उत्तर प्रदेश में जाति-अपराध-राजनीति के घालमेल की सच्ची तस्वीर न केवल अपराध के स्वरूप को समझने में मददगार होगी बल्कि यह भी खुलासा करेगी कि जमीनी स्तर पर राजनीति दरअसल किस तरह काम करती है.


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दिल्ली के मीडिया की कपोल्कल्पनाएं

दिल्ली से जो तमाम तरह की व्याख्याएं उभर रही हैं वे न केवल ‘बदनाम यूपी’ के बारे में महानगरीय घिसी-पिटी कल्पनाओं पर आधारित हैं बल्कि इन धारणाओं को और मजबूत ही करती हैं. विकास दुबे किस तरह यूपी का डॉन बन गया और गिरफ्तार होने के बाद उसके खुलासों से सरकार भी किस तरह गिर सकती थी, ये सब मीडिया की उत्तेजना में उभरी खामख्याली की ही देन हैं जो बहस के स्तर को कमजोर करती है.

पिछले कुछ वर्षों में अतीक अहमद, धनंजय सिंह या बिहार के मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे कई माफिया सरगना उभरे, वे गिरफ्तार भी किए गए लेकिन उन्होंने जांच एजेंसियों के सामने जो खुलासे किए होंगे उनका कोई राजनीतिक नतीजा निकला हो, यह हमने तो नहीं सुना. वास्तव में, यूपी के स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) ने श्री प्रकाश शुक्ल और कई नेताओं के बीच साठगांठ के ठोस सबूत भी पेश किए थे, मगर इन नेताओं से किसी ने इस्तीफे की मांग की हो यह हमने नहीं सुना.

क्यों? क्योंकि ऐसे नेता सभी राजनीतिक दलों में मौजूद थे.

हकीकत पानी की तरह से सरल भी है और जटिल भी और हम अगर अपराध का सचमुच खात्मा चाहते हैं तो हमें समझना पड़ेगा कि इसका ढांचा और इसकी नींव किस ईंट-गारे से बना है. यह समझने का मौका हम विकास दुबे के साथ गंवा चुके हैं.

(राहुल वर्मा सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर), नई दिल्ली में अध्येता हैं और आसिम अली सीपीआर में रिसर्च असोसिएट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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