आज हम ऊपर आसमां नीचे! जी हां, टोक्यो ओलंपिक में हासिल दोहरी-तिहरी खुशियों के बीच देशवासियों के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे. पड़ें भी क्यों, भाला फेंक के महारथी नीरज चोपड़ा ने देश को उसके एथलेटिक्स के इतिहास का पहला स्वर्ण पदक भेंट किया, तो हॉकी टीम ने हॉकी में चार दशकों से ज्यादा से चला आ रहा पदक का टोंटा दूर कर दिया है. कुश्ती और मुक्केबाजी समेत दूसरी कई प्रतियोगिताओं के खिलाड़ियों ने भी पदक या दिल में से कोई एक चीज जरूर जीती है. यानी वे हारे भी हैं तो लड़कर हारे हैं.
स्वाभाविक ही अनेक रोमांचित देशवासी भारतीय पुरुष हाकी टीम द्वारा कांटे के मुकाबले में जर्मनी को चार के मुकाबले पांच गोलों से हराकर जीते कांस्य पदक को ‘सोने से कम नहीं’ बताकर खुश हो रहे हैं. यह और बात है कि उन्हें महिला हाकी में कांस्य पदक के मुकाबले में ग्रेट ब्रिटेन के हाथों हाथ आई शिकस्त की कसक भी कुछ कम नहीं सता रही. सुपरमॉम मैरीकॉम के खाली हाथ लौटने का मलाल भी उन्हें है ही. लेकिन यह खुशी इस कसक और मलाल से ऊपर है कि देश ने इस ओलम्पिक में किसी भी ओलम्पिक में सर्वाधिक पदक जीतने का अपना 2012 का लन्दन का रिकार्ड तोड़ डाला है. 2012 में उसने दो रजत व चार कांस्य मिलाकर कुल छः पदक जीते थे, जबकि इस बार सात जीते हैं.
अब सरकारें, अपनी परम्परा के मुताबिक, पदक जीतने वाले खिलाड़ियों पर धनवर्षा और उनके घरों तक की सड़कें पक्की करा देने जैसे लोकलुभावन एलान कर रही है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की है कि वे ओलम्पिक में भाग लेने गये खिलाड़ियों को स्वतंत्रता दिवस पर विशेष अतिथि के तौर पर लाल किले पर तो आमंत्रित करेंगे ही, अपने आवास पर उनसे व्यक्तिगत रूप से भी मिलेंगे और बात करेंगे.
इतना ही नहीं, उन्होंने भारतीय खिलाड़ियों द्वारा ओलम्पिक में रचे गये इतिहास और प्रदर्शित जज्बे की सराहना करते हुए कहा है कि वह अब नये भारत की पहचान बन रहा है. महिला हॉकी के सेमीफाइनल में पहुंचने का अभूतपूर्व करिश्मा कर दिखाने वाली भारतीय टीम की प्रशंसा करते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया है कि इस ओलम्पिक को उनके करिश्मे के लिए ही याद किया जायेगा. नीरज चोपड़ा के गोल्ड की तारीफ तो खैर सारे खिलाड़ियों पर भारी है.
लेकिन इन घोषणाओं के बीच मीडिया के एक बड़े हलके का राष्ट्रवाद इतना जोर मारने लगा है कि वह इस ‘उपलब्धि’ को हाइप देते हुए खेलों की दुनिया में हमारे बुरे हाल से जुड़ी सारी जमीनी हकीकतों को झुठला देना चाहता है. इस कड़वे सच को भी कि लंदन ओलम्पिक का रिकार्ड तोड़कर भी हम अपने बुरे हाल की जमीनी हकीकत में बहुत सुधार नहीं कर पाये हैं. दरअसल, यह हकीकत इतनी कड़वी है कि जिस पड़ोसी चीन को हमारे ‘राष्ट्रवादी’ फूटी आंखों भी नहीं देखना चाहते और जो हमारे बाद गुलामी से आजाद हुआ, आज वह दुनिया के चौधरी अमेरिका के साथ पदकों की होड़ में शामिल है जबकि हम 48वें स्थान पर हैं और हमारी झोली में सिर्फ एक स्वर्ण पदक है, जो तेरह साल बाद हासिल होने के कारण अकाल के फल जैसा लग रहा है. कई छोटे-छोटे और अनाम से देश अभी भी हमसे बेहतर स्थिति में और हमसे ऊपर हैं.
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प्रसंगवश, 2016 के रियो ओलंपिक में देश के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद मोदी सरकार ने 2024 के ओलम्पिक में पचास पदक जीतने का लक्ष्य रखा था, लेकिन तीन साल पहले 2021 में हम उसके पांचवें हिस्से के आस-पास भी नहीं फटक पाये हैं.
कोई पूछे क्यों, तो जवाब है कि उनको लेकर ‘इंडिया मांगे मोर’ का ‘उद्घोष’ करता मीडिया गिनती की ‘सक्सेज स्टोरीज’ के बहाने जो ‘अतिरिक्त राष्ट्रवाद’ परोस रहा है और जिसके आगे-पीछे खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के नाम पर देश में कई कर्मकांड आयोजित किये जा रहे हैं, उनका उद्देश्य ‘अपनी सरकार’ को इस ‘क्यों’ की आंच से बचाना ही है.
अन्यथा क्या कारण है कि यह सवाल नहीं पूछा जा रहा कि पदक तालिका के लिहाज से 2016 के रियो ओलम्पिक में लंदन के मुकाबले फिसड्डी साबित होने के बाद सरकार ने देश में खेलों की स्थिति सुधारने के लिए नीति आयोग द्वारा ‘लेट अस प्ले’ नामक जो व्यापक कार्ययोजना व कार्यबल तैयार करने का दावा किया था, उनका क्या हुआ ?
ज्ञातव्य है कि प्रस्तावित कार्यबल को खेल सुविधा, ट्रेनिंग, चयन प्रक्रिया और अन्य संबंधित मामलों में समूची रणनीति तैयार करनी थी और उसमें घरेलू व बाहरी दोनों विशेषज्ञों को शामिल किया जाना था.
उन दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खेलों में भारत का प्रदर्शन सुधारने के सुझाव देने और उपाय करने लिए एक समिति का भी गठन किया था और उनका दावा था कि यह समिति दुनिया भर में बेहतर प्रणालियों का अध्ययन कर 2020, 2024 और 2028 के ओलंपिक खेलों को ध्यान में रखते हुए रोडमैप व कार्ययोजना बनाएगी. उन्होंने राज्यों से भी ऐसी समितियां बनाने और अपनी पसंद से एक या दो खेलों का चयन कर उसमें ताकत दिखाने को कहा था.
ऐसे में यह सवाल इस समय नहीं तो कब पूछा जायेगा कि उनके उन सारे एलानों का क्या हुआ? या कि देश के सफलतम लंदन ओलम्पिक के वक्त भारतीय खेल प्राधिकरण के महानिदेशक रहे दीपक वर्मा के उस सुझाव पर कितना अमल हुआ कि सरकार को ओलंपिक खेलों की कार्ययोजना तैयार करते वक्त 12 से 16 वर्ष की उम्र के खिलाड़ियों के प्रशिक्षण व प्रोत्साहन पर खास ध्यान देना चाहिए, क्योंकि ओलम्पिक में प्रदर्शन सुधारने के लिए कम उम्र से ही प्रतिभाओं को तराशने का काम बहुत जरूरी है-साथ ही सारे खेलों में कुलांचने के बजाय संभावना वाले चुनिंदा खेलों को विशेष महत्व देना भी.
जहां तक कोरोना की महामारी का सवाल है, वह इन सारे सवालों से बचने का बहाना नहीं हो सकती. प्रधानमंत्री के ही अनुसार वह वैश्विक महामारी है और चीन जैसे जो देश पदकों की ढेरी लेकर ओलम्पिक से लौटेंगे, वे भी कोरोना के कम सताये नहीं हैं.
ज्ञातव्य है कि रियो ओलम्पिक के वक्त तक जूनियर खिलाड़ियों पर खेलों के लिए निर्धारित कुल धनराशि का मात्र 8 से 12 प्रतिशत खर्च किया जाता था, जबकि सीनियर खिलाड़ियों पर 80 प्रतिशत से अधिक और यह सवाल अभी भी बरकरार है कि इस ढर्रे को बदले बगैर किसी बेहतर की उम्मीद क्यों कर की जा सकती है? यह क्या कि जो खिलाड़ी ओलम्पिक में जाने या पदक जीतने लायक हो जायें, उनके लौटने पर प्रधानमंत्री उन्हें विशेष अतिथि बनाकर और राज्य सरकारें उन पर भरपूर धनवर्षा कर वाहवाही लूटें लेकिन जो खेल प्रतिभाएं भविष्य के सितारे बनने की जद्दोजहद में संघर्ष कर रही हों, उनके प्रति सौतेलेपन में कोई कमी न आने दी जाये?
यह विश्वास करने के कारण हैं कि इस सौतेलेपन को खत्म कर दिया जाये तो हमारे भविष्य का आकाश अनेक नई खेल प्रतिभाओं की जगर-मगर से भर सकता है. इस ओलम्पिक में भारतीय हॉकी का फिर से अतीत के गौरव को हासिल करती दिखना भी इसकी एक मिसाल है. क्रिकेट के उन्माद और हॉकी की उपेक्षा के बीच 2018 में ओड़िशा की नवीन पटनायक सरकार ने हॉकी इंडिया के साथ पुरुष व महिला दोनों राष्ट्रीय टीमों को प्रायोजित करने के लिए पांच साल का करार कर अपनी गरीबी के बावजूद ईमानदारी व दृढ़ निश्चय के साथ उस पर अमल कर एस्ट्रोटर्फ के मैदानों समेत खिलाड़ियों को वह सब कुछ उपलब्ध कराया जो उन्हें चाहिए था, तो पुरुष व महिला दोनों टीमों ने अपनी मेहनत से चमत्कार कर दिखाया. पुरुष टीम ने 41 साल बाद सेमीफाइनल में जगह बनाई तो महिला टीम ने सर्वथा पहली बार.
देश में खेलों की बेहतरी अपेक्षित है तो पूछना होगा कि क्या केन्द्र व दूसरे राज्यों की सरकारें ओड़िसा द्वारा देश को दिये गये हाकी के पुनरुन्नयन के तोहफे से कुछ सीखेंगी? खासकर उसके मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के इस कथन से कि ’खेल में निवेश युवाओं में निवेश है’? अगर हां तो हमारी खेल प्रतिभाओं को अपनी चमक बिखेरने से कोई नहीं रोक पायेगा.
अगर नहीं तो हम सरकारों की इस समझ का खामियाजा भुगतने को अभिशप्त होते रहेंगे कि महज विजयी खिलाड़ियों को विशेष अतिथि बनाकर, उनकी तारीफ के पुल बांधकर या उन पर रुपये लुटाकर देश के खेलों और खिलाड़ियों का भविष्य संवारा जा सकता है. इस स्थिति से बचना है तो अभी जमीन पर न पड़ रहे पांवों को जमीन पर उतार कर भी देखना और सोचना होगा.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)