पुराने पारंपरिक ‘सेक्युलर’ हलकों में इन दिनों चर्चा है कि भारतीय राजनीति का विवेक ध्वस्त हो चुका है और लोकतंत्र के मलबे से उठते बगूले में ‘इस्लामोफोबिया’ यानी इस्लाम से दहशत की धूल भर गई है.
आप इस विचार से सहमत भी हो सकते हैं और असहमत भी. खतरा यह है कि जैसे ही आप इस बारे में कोई फैसला करेंगे, बहस वहीं खत्म हो जाएगी. क्या आप यह ऐलान करना चाहते हैं कि गणतंत्र, भारत नामक विचार, लोकतंत्र, विविधता, यानी सब कुछ खत्म हो चुका है? या यह घोषणा करना चाहते हैं कि छद्म धर्मनिरपेक्षता जैसी तमाम चीजों से छुटकारा मिल चुका है? दोनों ही हाल में बहस खत्म हो जाती है.
लेकिन अगर हम यह कहें कि दोनों तरह के तर्कों में कुछ-कुछ सच्चाई है कि कुछ ऐसी बारीक बातें होती ही हैं जो मामले को इतना सीधा या एकपक्षीय नहीं रहने देतीं, तब क्या होगा?
अगर विवेक उस तौर-तरीके से परिभाषित होती थी जिसके तहत धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का द्वंद्व 2009 तक के छह दशकों तक भारत की राजनीतिक तकदीर का फैसला कर रहा था, तो यह कहना सही होगा कि मोदी-शाह की भाजपा के उभार ने उसे ध्वस्त कर दिया है. आज पश्चिम बंगाल को छोड़कर जिस भी राज्य में मुसलमानों की अच्छी आबादी है वहां आप पुराने समीकरण के आधार पर भाजपा को परास्त नहीं कर सकते. इस लिहाज से, पारंपरिक सेक्युलर को लेकर शिकायत का आधा भाग सच है.
दूसरा यानी ‘इस्लामोफोबिया’ वाला भाग भी उतना ही सच है और इसकी अपनी जटिलताएं हैं. यह पश्चिमी राजनीतिक विमर्श वाला ‘इस्लामोफोबिया’ नहीं है. यह मुस्लिम जीवन पद्धति, धार्मिक क्रियाओं, खानपान, राष्ट्रीय विस्तारवाद, उम्मा में निहित किसी सामूहिक सत्ता आदि को लेकर व्यापक भय जैसी चीज नहीं है. भारत में, यह मुसलमानों के दोस्त बने दिखने से ज्यादा गैर-भाजपा दलों में दहशत के रूप में नुमाया हो रहा है.
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वे मुसलमानों के खिलाफ कोई कड़वी बात नहीं कहेंगे लेकिन भाजपा जब मुसलमानों को निशाना बना रही है और अलग-थलग कर रही है तब वे भाजपा पर हमला करने से कतराएंगे. बल्कि वे अधिक व्यापक, घिसी-पिटी बातें करेंगे और उस पार्टी को फिरकापरस्त, सांप्रदायिक, विविधता विरोधी, आदि-आदि कहेंगे. लेकिन आप उन्हें किसी मुस्लिम आयोजन में प्रमुख तथा परिचित मुसलमानों के साथ शायद ही देखेंगे. न ही उन्हें मुसलमानों के सरोकारों के लिए लड़ते देखेंगे. वे तो शाहरुख खान और उनके बेटे के पक्ष में भी आवाज़ नहीं उठाएंगे.
उदाहरण के लिए, उन्होंने किसानों के आंदोलन का जिस तरह समर्थन किया और सीएए विरोधी आंदोलन पर मोदी सरकार के हमले के खिलाफ कानाफूसी चलाई, उसमें और आज की स्थिति में काफी फर्क आ गया है. इतने दशकों से मुस्लिम वोटों के बूते मजबूत होती रही सभी पारंपरिक सेक्युलर पार्टियों ने इस ‘पचड़े’ से खुद को अलग रखा है.
प्रमुख राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों ने दिल्ली में सीएए विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ताओं को ‘यूएपीए’ जैसे क्रूरतम कानूनों के तहत निरंतर कैद में रखे जाने के खिलाफ शायद ही कोई सवाल उठाया. और अब जहांगीरपुरी कांड में और भी सख्त एनएसए कानून का प्रयोग किया जा रहा है.
कुछ दलों ने दिशा रवि के पक्ष में आवाज़ उठाई मगर उमर खालिद, शरजील इमाम, मीरान हैदर के बारे में? या देवांगना कालीता, नताशा नरवाल जैसों के बारे में क्या हुआ, जो गैर-मुस्लिम हैं और जिन्होंने मुसलमानों के सरोकारों के पक्ष में आवाज़ उठाई?
ऐसा लगता है कि सेक्युलर दुनिया में ‘पार्टी लाइन’ यह ली गई है कि आप मुसलमानों या उनके सरोकारों के पक्ष में खड़े मत नज़र आइए, आज की चुनावी राजनीति के लिए यह आत्मघाती है. बुद्धिमानी के तकाजे पर ढोंग और कायरता ही सेक्युलर बहादुरी का हिस्सा बन गई है. मसले को कोर्ट के भरोसे छोड़ दो. वह काम नहीं करती तो न्यायपालिका से लेकर चुनाव आयोग और मीडिया तक को रीढ़ विहीन बताकर उन्हें कोसा जा सकता है. यह आसान भी है और सुरक्षित भी.
तर्क दिया जा सकता है कि जब भाजपा हिंदू वोटों को एकजुट करके चुनाव जीत लेती है तो हम क्या कर सकते हैं? देश के बड़े हिस्से, खासकर राजनीतिक केंद्र में अगर मुस्लिम वोटों की कोई गिनती नहीं रह गई है तो शोर मचाकर हिंदू वोटों को भी गंवाने का क्या मतलब?
यह और कुछ नहीं बल्कि हार को स्वीकारना और राजनीतिक कल्पनाशीलता के मामले में दिवालियापन का ही सबूत है.
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चूंकि अभी बुलडोजर और जहांगीरपुरी गरम मामला है, इसके बारे में भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के बयानों पर गौर कीजिए. वामपंथी दलों को छोड़कर हर किसी ने अपने प्रमुख, जाने-पहचाने नेता को घटनास्थल से दूर ही रखने की पूरी सावधानी बरती है. उनके बयान इन्हीं आरोपों पर केंद्रित हैं कि भाजपा दंगे भड़का रही है, लोगों को बांट रही है, आदि-आदि.
असली मुद्दे की बात करने से परहेज करना एक ढर्रा बन गया है, जैसे यह कि यह सबसे गरीब मुसलमानों को निशाना बनाने का मामला है- लंपटों का हिंदू जुलूस मुस्लिम बस्तियों में खासकर मस्जिदों के आगे से उकसाऊ नारे लगाता, हथियार लहराता, उग्र संगीत बजाता गुजरता है, दंगा भड़कता है, पुलिस कार्रवाई करती है. इसके बाद, जेसीबी का अवतरण होता है, जो सामूहिक दंड देने के लिए 21वीं सदी का साधन बन गया है. इस पर आम आदमी पार्टी की प्रतिक्रिया खास तौर से गौर करने लायक है.
हम निष्पक्षता बरतते हुए कबूल करते हैं कि न तो पुलिस पर और न नगर निगम पर उसकी सरकार का कोई नियंत्रण है. लेकिन राजनीति में संदेश देने के लिए भाषा अहम भूमिका निभाती है. उसके नेताओं ने कहा कि बुलडोजर तो पहले भाजपा नेताओं के घरों पर चलाना चाहिए, जिन्होंने पिछले 15 साल से दिल्ली में बांग्लादेशी और रोहिंग्या प्रवासियों को अवैध रूप से बसा रखा है. एक नेता ने कहा कि बुलडोजर तो भाजपा मुख्यालय पर चलाना चाहिए, इसलिए नहीं कि उसने दिल्ली में सबसे गरीब मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर ऐसा जुल्म ढाया है, जो ज्यादातर आम आदमी पार्टी (आप) को वोट देते हैं, बल्कि इसलिए कि भाजपा ने (उन्हीं मुसलमानों के द्वारा) मनमाना अतिक्रमण और अवैध निर्माण करने की छूट दी है.
अब हालत यह है कि भाजपा और आप, दोनों अवैध बसाहट और निर्माण की बातें कर रही हैं. एक जो है वह उन्हें हटाने के आदेश दे रही है जबकि दूसरी यह ताना कस रही है कि ‘जरा देखो, ऐसी बातें कौन कह रहा है’. यह और बात है कि दोनों प्रतिद्वंद्वी पार्टियां राजधानी में करीब 2000 अवैध बस्तियों को ‘नियमित’ करने की होड़ में लगी हैं लेकिन राजनीति में न तो ढोंग नई बात है और न ही गैर-जवाबदेही.
तथ्य यह है कि भाजपा का विरोध करने वाले सभी मुख्यधारा वाले दलों में आप ने इसमें महारत हासिल कर ली है. भाजपा पर हमला करो मगर अल्पसंख्यकों के मामलों को लेकर नहीं. जब जेएनयू में उपद्रव मचा था और कई छात्र नेताओं को ‘टुकड़े-टुकड़े’ के नारे लगाने के लिए गिरफ्तार किया गया तब अरविंद केजरीवाल की क्या प्रतिक्रिया थी?
उन्होंने कहा था कि अगर पुलिस उनकी सरकार के अधीन होती तो बेकसूर छात्र जेल से बाहर होते लेकिन जिन्होंने सचमुच में ऐसे नारे लगाए वे जेल में बंद होते. इसके विपरीत राहुल गांधी जेएनयू जा पहुंचे लेकिन इससे दिल्ली में उनकी पार्टी को कोई फायदा हुआ हो तो वह बाद के चुनावों में सामने नहीं आया.
तमाम राज्यों में भी ऐसा ही हुआ. तेलंगाना में भी गठबंधन भले कायम दिख रहा है मगर केसीआर की टीआरएस और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम के बीच दूरी बढ़ती दिख रही है. असम में कांग्रेस को अब बदरुद्दीन अजमल के साथ नहीं देखा जा सकता.
पश्चिम बंगाल के पिछले चुनाव में प्रशांत किशोर ने ममता बनर्जी के चुनाव अभियान की बागडोर संभाली, तो उसके बाद से ममता को मुस्लिम आयोजनों में हिजाब ओढ़े नहीं देखा जा रहा, न ही उन्हें अपने यहां अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी के बीच ज्यादा समय बिताते देखा जा रहा है. गुरुग्राम में सार्वजनिक स्थानों पर मुसलमानों के नमाज पढ़ने को लेकर हुए विवाद से कांग्रेस बिलकुल अलग रही. उसकी खामोशी से तो ऐसा लग रहा था मानो वह भी उसमें शामिल हो.
अब दो राज्यों पर ध्यान रखने की जरूरत है. देखना है कि महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का बेमेल गठबंधन इस चुनौती का किस तरह सामना करता है. भाजपा को शिवसेना और कांग्रेस की कमजोरियां मालूम हैं. इसलिए हम देख रहे हैं कि राज ठाकरे मुस्लिम विरोधी राग अलापने लगे हैं, मस्जिदों में लाउडस्पीकर जैसे मसलों को उठाने लगे हैं जिसे शिवसेना अतीत में उठाती थी. वहीं दूसरा राज्य है कर्नाटक.
हम उस मुकाम पर पहुंच गए हैं कि अब कोई बड़ा राजनीतिक दल रमजान के महीने में सार्वजनिक इफ्तार पार्टी करने को तैयार नहीं है, न ही कई नेता ऐसी किसी पार्टी में दिखना चाहते हैं. नयी दिल्ली इतिहास के उस बेढब दौर से गुज़र रही है जब विदेशी दूतावास और प्रवासी ही इफ्तार पार्टी कर रहे हैं और मुस्लिम तथा सेक्युलर हस्तियों की मेजबानी कर रहे हैं.
यह एक बात है कि भाजपा अपने विरोधियों को मुस्लिम वोटों के बिना भी जीत हासिल करके दिखा सकती है लेकिन अब तो उसने उनका दिमाग इस तरह फेर दिया है कि वे मुसलमानों के साथ दिखने या उनके सरोकारों से जुड़ने के नाम से भी घबरा उठते हैं, चाहे वे सरोकार कितने भी जायज क्यों न हों.
राजनीतिक बुलडोजर ने उनकी राजनीतिक कल्पनाशीलता को कुचल दिया है. इसने उनमें इस्लाम को लेकर इतनी दहशत भर दी है कि वे मुसलमानों के साथ अपनी पहचान जोड़ने को तैयार नहीं हैं. फिर भी वे चाहते हैं कि मुसलमान उन्हें वोट दें ताकि भाजपा से भारतीय धर्मनिरपेक्षता की और खुद उनकी भी रक्षा हो सके. भारतीय राजनीति आज इस मुकाम पर आ पहुंची है.
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