कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर ने भारत के गहरे निराशाजनक विरोधाभास को उजागर किया है, दुनिया में सबसे उन्नत डाटा इंफ्रास्ट्रक्चर वाले देशों में से एक में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, संक्रमण दर और यहां तक कि शवों की गणना की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है. यह आसान—और तार्किक भी—है कि इस सबका ठीकरा महामारी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिर फोड़ दिया जाए. लेकिन समस्या की जड़ें और भी ज्यादा गहरी हैं. सत्तासीन रही सरकारों ने वैज्ञानिकों को दरकिनार किया, डाटा पर नियंत्रण रखा और डाटा जुटाने और उसके विश्लेषण की पूरी प्रक्रिया का राजनीतिकरण कर डाला.
कोविड-19 महामारी की पहली लहर के बाद, ‘झूठे आशावाद के खतरों’ से अच्छी तरह वाकिफ साइंटिफिक एक्सपर्ट हाशिये पर चले गए. जनवरी 2021 में कोविड-19 पर मोदी सरकार की अपनी राष्ट्रीय वैज्ञानिक टास्क फोर्स ने बैठकें करना बंद कर दिया. मार्च में सरकार ने घातक म्यूटेंट के संबंध में इंडियन सार्स-कोव- 2 जीनोमिक्स कंसोर्टियम (आईएनएसएसीओजी) की रिपोर्टों को भी नजरअंदाज कर दिया.
वैज्ञानिकों की अनदेखी के अलावा सरकार ने साइंटिफिक डाटा तक पहुंच को भी प्रतिबंधित कर दिया है. 29 अप्रैल 2021 को सैकड़ों भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रधानमंत्री मोदी को लिखे गए एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें आरोप गया कि असाधारण संक्रमण दर पर ‘महामारी विज्ञान के आंकड़ें व्यवस्थित तरीके से एकत्र और जारी नहीं किए जा रहे.’ उन्होंने ये शिकायत भी की कि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा कोविड-19 डायग्नोस्टिक सेंटर्स से एकत्र किया जाने वाला डाटा विश्लेषण के लिए केवल सरकारी विशेषज्ञों को ही उपलब्ध है. भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार ने पत्र मिलने की बात तो स्वीकारी है, लेकिन अभी तक कोई डाटा जारी नहीं किया गया है.
यह भी पढ़ें: असलियत को कबूल नहीं कर रही मोदी सरकार और भारतीय राज्यसत्ता फिर से लड़खड़ा रही है
एक नियमित व्यवस्था
मौजूदा सरकार के गैर-वैज्ञानिक रुख को देखते हुए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. अंतरराष्ट्रीय सहयोग बहुत हद तक सीमित हो गया है. इस वर्ष के शुरू में विदेश मंत्रालय (एमईए) ने शिक्षाविदों के बीच वर्चुअल चर्चा रोकने की भी कोशिश की (यद्यपि ऑनलाइन चर्चा के लिए अनुमति जरूरी होने संबंधी नए नियमों को हंगामे के बाद हटा दिया गया था). वैज्ञानिक चर्चा से जुड़े बुनियादी सम्मेलनों पर पुनर्विचार हो रहा है. 2019 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस में आम तौर पर नोबेल पुरस्कार विजेताओं को मिलने वाली जगह प्रशासक-धर्मशास्त्रियों ने ले ली, जिन्होंने प्राचीन धर्मग्रंथों को वैज्ञानिक प्रमाण के तौर पर इस्तेमाल करने वकालत की थी और यहां तक कि गुरुत्वाकर्षण तरंगों का नाम ‘नरेंद्र मोदी वेव्स’ कर देने का प्रस्ताव भी रखा!
अत्यधिक राष्ट्रवादी सरकार के डाटा नियंत्रित करने संबंधी कदम भारत की साक्ष्य आधारित नीति के समृद्ध इतिहास के साथ कतई मेल नहीं खाते. आजादी के बाद, यहां तक कि आधुनिक भारत की राजनीतिक सीमाएं स्पष्ट होने से पूर्व ही, पी.सी. महालनोबिस और पी.वी. सुखात्मे जैसे वैज्ञानिकों ने सरकार के साथ मिलकर डाटा जुटाने संबंधी दुनिया के सबसे उन्नत इन्फ्रास्ट्रक्चर को स्थापित करने का काम किया. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) रैंडम सैंपलिंग की तकनीक इस्तेमाल करने वाली दुनिया की पहला व्यापक आधार वाली सर्वेक्षण पद्धति है. स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों ने पोलियो, कुष्ठ रोग और एचआईवी जैसी बीमारियों पर काबू पाने के लिए इन और कई अन्य सर्वेक्षणों में साथ मिलकर काम किया है.
हालांकि, महामारी के दौरान भारत के डाटा आर्किटेक्ट की कमजोरियां स्पष्ट तौर पर उजागर हुई हैं लेकिन समस्या की असली जड़ अतीत से गहराई से जुड़ी है. पिछले तीन दशकों से अधिक समय से सत्तासीन रही सरकारों ने अपने निहित राजनीतिक हितों के लिए भारत के डाटा सिस्टम का दुरुपयोग किया है. उदाहरण के तौर पर, 2000 के दशक की शुरुआत में व्यापक आधार वाले एनएसएस के डिजाइन में एक छोटा-सा बदलाव राजनीतिक रूप से तो उपयोगी रहा लेकिन इसने कथित तौर पर भारतीय गरीबी की रेखा को पूरी तरह कृत्रिम तौर पर नीचे ला दिया, और इसने जैसा नोबेल पुरस्कार विजेता एंगस डिएटन कहते हैं ‘भारतीय गरीबी पर महा बहस’ की शुरुआत कर दी. 2000 के दशक के मध्य में भारतीय गरीबी रेखा में सांख्यिकीय बदलाव का इस कदर राजनीतिकरण हुआ कि अंततः ये मामला सुप्रीम कोर्ट जाकर ही थमा.
यह भी पढ़ें: कोविड से हुई गड़बड़ियों के अलावा भारत की कहानी का दूसरा पहलू भी है, जो उम्मीद जगाता है
भारत में सुविधाओं का अभाव
मानव विकास के ट्रेंड के बारे में विश्वसनीय जानकारी हासिल करना भी अब मुश्किल है. जनसंख्या सर्वे, मृत्यु दर, कुपोषण, टीकाकरण और स्वास्थ्य संबंधी डाटा की कोई कमी नहीं है लेकिन इसे एकत्र करने का तरीका पक्षपातपूर्ण और अनियमित है. क्वेश्चनायर और प्रोटोकॉल बदलते रहते हैं. ट्रेंड का पता लगाने के लिए उन्हें समेटना मुश्किल है. ये सर्वेक्षण गैर-संचारी रोगों या मौत के कारणों की घटनाओं पर डाटा एकत्र नहीं करते.
नतीजतन, कोविड-19 महामारी की दस्तक से पहले भी भारतीय आबादी में असमय होने वाली मौतों का कारण पता लगाना मुश्किल रहा है. अहम सांख्यिकी आंकड़े भी इस समस्या को दूर नहीं कर सकते क्योंकि भारत में केवल 80 फीसदी मौतें दर्ज की जाती हैं, और उनमें से केवल 22 प्रतिशत में कोई आधिकारिक कारण बताया गया होता है. द मिलियन लाइव्स सर्वे, जिसने भारत में खास कारणों से होने वाले जोखिम और मृत्यु दर का अध्ययन किया, में दावा किया गया कि आत्महत्या, सड़क हादसे और सांप के काटने के कारण पहले की तुलना में कहीं अधिक जानें जा रही हैं. हालांकि, इस सर्वेक्षण की भी सीमाएं थीं और यह इस पर कोई खास जानकारी नहीं देता कि भारतीय आबादी के कोविड-19 की चपेट में आने संबंधी जोखिम क्या हैं.
मौजूदा संकट को काफी हद तक सिद्धांतन राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा हल किए जाने की कोशिश की जा रही है जिनकी प्रवृत्ति डाटा नजरअंदाज करने और ‘कानूनी ढांचे, संस्थागत तंत्र और प्रशासनिक प्रावधानों’ पर निर्भर रहने की है. इस पूरी कवायद में वैज्ञानिक हाशिये पर हैं. महामारी के दौरान वे नए टीके, कम लागत वाले वेंटिलेटर, टेस्टिंग के तरीकों और संक्रमण का पता लगाने वाले मात्रात्मक मॉडल के विकास में अग्रिम मोर्चे पर रहे हैं.
इन विशेषज्ञों का मोल भारत पहुंच रही विदेशी सहायता (या भारतीय स्वास्थ्य बजट, जो सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 1 प्रतिशत है) से कई गुना ज्यादा है. समय आ गया है कि वैज्ञानिकों को नीतियां तय करने की प्रक्रिया में वापस लाया जाए और भारत की सहयोगात्मक, डाटा विश्लेषक और साक्ष्य-आधारित नीति की महान परंपरा को फिर से बहाल किया जाए.
शरीन जोशी अमेरिका स्थित जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ फॉरेन सर्विस में इंटरनेशनल डेवलपमेंट की एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्होंने येल यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में पीएचडी की है. वह मूल रूप से जयपुर (भारत) की रहने वाली है. उनका शोध दक्षिण एशिया में असमानता, मानव पूंजी निवेश और बुनियादी स्तर पर साझे उद्देश्यों के लिए उठाए जाने कदमों जैसे मुद्दों पर केंद्रित है. व्यक्त विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: ICU- 70 साल के बुजुर्ग या 30 साल की महिला के लिए? कोरोना की दूसरी लहर में डॉक्टर, नर्स मनोचिकित्सक का कर रहे रुख