हाल ही में महाराष्ट्र के यवतमाल में एकलव्य से जुड़े फर्स्ट जनरेशन लर्नर्स की बैठक के दौरान विदर्भ के एक वंचित समुदाय से संबंधित एक युवा लड़के ने मुंबई के एक प्रतिष्ठित संस्थान में पढ़ाई के दिनों के अपने प्रेरणादायक किस्से साझा किए. शहरी भारत में उच्च शिक्षा ग्रहण करने से हुई प्रगति से वह रोमांचित लग रहे थे.
हालांकि, जब उन्होंने इन किस्सों में अनुभव किए गए मौन जातिवाद के बारे में बात की तो उसमें एक निराशा छिपी हुई थी. जब यूनिवर्सिटी प्रशासन ने उन्हें और अन्य छात्रों को उनकी अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) दर्जे के लिए ओरिएंटेशन में ही अलग कर दिया, तब से लेकर दीक्षांत समारोह तक, जहां एससी/एसटी सेल की विशेष तस्वीर ली गई थी, वो उस अलग तरह से व्यवहार किए जाने की भावना से छुटकारा नहीं पा सके थे. प्रशासन के लिए, यह एक नियमित अभ्यास था, लेकिन पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी के लिए यह रिजर्वेशन सिस्टम के ‘लाभार्थियों’ के रूप में पहचाने जाने वाले कलंकित समुदाय का जीवंत अनुभव था.
अपनी पढ़ाई के दौरान इनमें से कई शिक्षार्थियों ने भेदभाव का अनुभव किया था. इस दावे को साबित करने के लिए किसी रिसर्च की ज़रूरत नहीं है कि ये भेदभाव शिक्षार्थियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं और उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं. ‘रिसवर्ड स्डूडेंट्स’ के तौर पर लेबल किए जाने पर, उनकी ‘मेरिट’ की पूरे कैंपस में अपमानजनक तरीके से चर्चा की जाती है. भारत के फर्स्ट जनरेशन लर्नर्स के सामने आने वाली बाधाओं से निपटने के दौरान, हमें शिक्षा और रोज़गार में भ्रामक ‘मेरिट बनाम रिसर्वेशन’ बहस को निपटाने पर विचार करना होगा.
ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों से संबंधित जाति के विद्वान और तथाकथित ‘उच्च जाति’ के बुद्धिजीवी दोनों मेरिट के संबंध में विपरीत धारणा रखते हैं. हालांकि, ऐसा लग सकता है कि वे रिसर्वेशन का समर्थन करते हैं, लेकिन वे उस प्रमुख आख्यान को बनाए रखते हैं जो कहता है कि ‘रिसर्वेशन मेरिट से समझौता करता है’.
लेकिन यह तर्क तथाकथित मेधावी समुदायों के व्यक्तियों की खूबियों का मूल्यांकन करने के लिए एक स्वतंत्र प्रणाली स्थापित करने के बारे में नहीं है. बल्कि, मेरिट से संबंधित बहस हाशिए पर मौजूद समुदायों को उनके रिसर्वेशन की स्थिति के आधार पर कलंकित करने और अपमानजनक लेबल देने के बारे में ज्यादा है. हमें उन नैरेटिव्स को चुनौती देनी चाहिए जो मेरिट को सामाजिक न्याय-उन्मुख नीतियों के विरुद्ध खड़ा करते हैं.
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‘मेरिट’ का दूसरा नाम
भारत में आम धारणा के विपरीत, मेरिट की अवधारणा, जिसे अक्सर सफलता का पैमाना माना जाता है, सच में भाई-भतीजावाद का एक रूप है. इसने कुछ समुदायों और परिवारों को सत्ता और संस्थागत नियंत्रण के महत्वपूर्ण पदों पर कब्ज़ा करने में सक्षम बनाया है. ये भाई-भतीजावादी समूह स्वयं-घोषित मेरिट के नाम पर अपना प्रभुत्व बनाए रखते हुए, अपने सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों और संस्थानों में फैलाने में कामयाब रहे हैं. परिणामस्वरूप, व्यापक रूप से “मेरिटवाला” कहे जाने वाले व्यक्तियों और समुदायों ने रिजर्व्ड कैटेगरी के स्टूडेंट्स को कलंकित किया है.
यह भारत में एक अनकही कहानी है, मुख्यतः क्योंकि मेरिटवालों ने कभी भी अपनी मेरिट पर सवाल नहीं उठाया है. किसी भी शैक्षिक सुधार के लिए यह एक महत्वपूर्ण सच्चाई है जो मिशन को एक अधिक न्यायसंगत समाज बनाने की दिशा में मार्गदर्शन करती है जो विविध प्रतिभाओं को महत्व देती है और वंचितों को समान अवसर प्रदान करती है.
भारत में हम अक्सर सांस्कृतिक, आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में कुछ समूहों का प्रभुत्व देखते हैं. ज़मीनी हकीकत चौंका देने वाली है. एससी, एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के फैकल्टी मेंबर्स विभिन्न भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) में कुल फैकल्टी का केवल 6 प्रतिशत और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में 9 प्रतिशत हैं. 2023 में डिजिटल साइंस जर्नल नेचर में प्रकाशित एक आर्टिकल में अंकुर पालीवाल ने खुलासा किया कि शीर्ष पांच आईआईटी में कार्यरत लगभग 98 प्रतिशत शिक्षाविद उच्च जातियों के हैं. यह इन प्रतिष्ठित संस्थानों में ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए प्रतिनिधित्व और अवसरों की स्पष्ट कमी की ओर इशारा करता है.
क्या आपने कभी सवाल किया है कि कैसे पारंपरिक कुशल कारीगरों और श्रमिक समुदायों को जानबूझकर दरकिनार कर दिया गया और कैसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी ‘मेधावी’, विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों से जुड़ गए?
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शक्ति और विशेषाधिकार को कायम रखना
जब हम ‘मेधावी’ व्यक्तियों की भाई-भतीजावादी प्रथाओं की बारीकी से जांच करते हैं, तो हम देखते हैं कि कैसे उनकी आत्म-केंद्रित रणनीतियों ने भारत की विविध जातियों और जनजातियों की असली मेरिट को कमज़ोर कर दिया है, जो हमारे देश में विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं. भाई-भतीजावाद, अवसरों में करीबी दोस्तों या परिवार के सदस्यों का पक्ष लेना विशेषाधिकार को कायम रखता है और असमानता खड़ी करता है. इसके साथ ही, मेरिट को किसी की क्षमताओं और योग्यताओं के एक वस्तुनिष्ठ माप के रूप में चित्रित किया जाता है और शैक्षणिक संस्थानों और भर्ती प्रक्रियाओं में इसे ज्यादा महत्व दिया जाता है. ऐसा लगता है कि मेरिट का तर्क अक्सर दमनकारी और अपमानजनक हो जाता है, जो स्व-घोषित मेधावी समुदायों के व्यक्तियों के प्रभुत्व को मजबूत करने में मदद करता है. हमें इस अतार्किक रुख पर सवाल उठाने और इसका समाधान करने की ज़रूरत है.
परिणामस्वरूप, हाशिए पर रहने वाले समुदाय योग्यता की गलत धारणाओं से पीड़ित हैं. उनकी असल क्षमता उन सामाजिक बाधाओं से बाधित होती है जिनका वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अवसरों तक सीमित पहुंच के कारण हर रोज़ सामना करते हैं. यह नुकसान उन्हें समान स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने से रोकता है और उनकी वास्तविक क्षमताएं अपरिचित और अविकसित रहती हैं.
अपनी किताब द टायरनी ऑफ मेरिट (2020) में माइकल सैंडल का तर्क है कि हालांकि, योग्यता सभी के लिए समान अवसर प्रदान करती है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है. निष्पक्ष होने के अपने दावे के बावजूद, मेरट के तंत्र में मौजूदा असमानताओं को प्रभावी ढंग से कम करने के बजाय अनजाने में और खराब करने की क्षमता है. भारत में हमें यह सवाल करना चाहिए कि क्या योग्यतातंत्र की वर्तमान प्रणाली वास्तव में सभी के लिए एक जैसे मौके देती है या क्या यह कुछ के लिए फायदे और दूसरों के लिए नुकसान को बरकरार रखती है. हमें योग्यतावाद की धारणा को सुधारने के लिए संघर्ष करना चाहिए.
पूरे इतिहास में रिसर्वेशन जैसे सामाजिक न्याय कार्यक्रमों का विरोध करने के लिए मेरिट को एक प्रोपेगेंडा टूल की तरह से इस्तेमाल किया गया है. यह ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों के संघर्षों और उपलब्धियों पर संदेह पैदा करने की कोशिश करता है, उनकी सफलताओं को गलत तरीके से अयोग्य के रूप में चित्रित करता है. इसके विपरीत सामाजिक न्याय नीतियों का लक्ष्य पिछले अन्यायों को सुधारना और अधिक समावेशी समाज बनाना है. भाई-भतीजावाद के व्यापक प्रभाव को गंभीरता से स्वीकार करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है. ऐसा करके, हम सामाजिक न्याय में बाधा डालने वाली दमनकारी प्रणालियों को नष्ट कर सकते हैं और अधिक न्यायसंगत शैक्षिक और आर्थिक संरचना स्थापित करने की दिशा में काम कर सकते हैं.
आइए हम भारत की विविध जातियों और जनजातियों में मौजूद प्रामाणिक मेरिट को पहचानें और महत्व दें, साथ ही यह सुनिश्चित करें कि पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों को अपनी असल क्षमताओं को प्रदर्शित करने के समान अवसर मिल सकें. इस तरह, हम एक निष्पक्ष और अधिक न्यायपूर्ण समाज की ओर बढ़ सकते हैं जो सभी व्यक्तियों की क्षमता और योगदान को महत्व देता है, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो.
पारंपरिक अर्थों में मेरिट के प्रभुत्व और भाई-भतीजावाद जैसी चिंताओं को दूर करने के लिए भारत को रिसर्वेशन जैसे उपायों को गतिशील तरीके से लागू करके और विविधता, समानता और समावेशन (डीईआई) दृष्टिकोण को अपनाकर सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देनी चाहिए. ये कदम भारत को कुछ स्व-सेवारत समुदायों का पक्ष लेने से दूर जाने और एक अधिक समावेशी समाज बनाने में मदद करेंगे जो सभी के लिए एक जैसे मौके देता होगा. रिसर्वेशन नीतियां ऐतिहासिक अन्यायों को दूर करने और कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने में प्रभावी साबित हुई हैं. इसी तरह, DEI रणनीति अपनाना वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप है और इसने समावेशी वातावरण को बढ़ावा देने और सकारात्मक बदलाव लाने में अपनी प्रभावशीलता दिखाई है.
इन दृष्टिकोणों को लागू करके, भारत पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के सामने आने वाली बाधाओं को दूर कर सकता है और एक निष्पक्ष और न्यायपूर्ण शैक्षिक और नौकरी प्रणाली स्थापित कर सकता है जो सभी व्यक्तियों को लाभ पहुंचाती हो, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो. इस तरह हम एक अधिक समावेशी समाज की दिशा में काम कर सकते हैं जो विविधता को महत्व देता है और असल मेरिट और टैलेंट को बढ़ावा देता है.
(राजू केंद्रे एकलव्य इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक हैं, जो उच्च शिक्षा के लोकतंत्रीकरण की दिशा में कार्य करती है. वे रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन के फेलो भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RajuKendree है. प्रतीक्षा खंडारे एकलव्य इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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