लद्दाख गतिरोध ने पारदर्शिता बढ़ाई है क्योंकि इससे सूचना सिपाहियों के एक वर्ग जिन्हें सैटेलाइट वॉरियर्स कहा जा सकता है, को व्यापक दृष्टिकोण मिला है. सैटेलाइट तस्वीरों के मुख्य स्रोत के तौर पर बढ़ते ये लोग, जो ज्यादातर थिंक टैंक या मीडिया से जुड़े हैं, चीन के सैन्य कदमों से भारतीय और अंतरराष्ट्रीय जनता को अवगत करा रहे हैं.
व्यावसायिक स्तर पर उपलब्ध सैटेलाइट तस्वीरों पर आधारित उनकी सूचनाएं अक्सर जमीनी हालात पर आधिकारिक ब्यौरे से भिन्न होती हैं. आधिकारिक स्तर पर उनके दावों का कोई खंडन न होने से सैटेलाइट वॉरियर्स को खुली छूट मिल गई है जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान, भले ही वे केवल गलवान के संदर्भ में हैं, सामान्यत: सच्चाई छिपाने का प्रयास ही नजर आते हैं.
पिछली बार मोदी सरकार को 2017 में डोकलाम पर चीन के साथ समझौता करना पड़ा था, उस समय सैटेलाइट वॉरियर्स की संख्या बेहद सीमित थी और डोकलाम को एक जीत के तौर पर पेश किए जाने के आगे उनकी आवाज अनसुनी रह गई थी. कुछ सैटेलाइट वॉरियर्स की तमाम कोशिशों के बावजूद यह तथ्य कि ‘जीत’ अल्पकालिक थी और चीन को एक मार्ग रेखा पर सड़क बनाने से रोकने तक ही सीमित थी, उजागर नहीं हो पाया क्योंकि गढ़ी गई कहानी ने सच्चाई छिपा ली थी. डोकलाम में चीन की चालबाजी की सच्चाई सैटेलाइट फोटोग्राफ्स के माध्यम से उपलब्ध है और अभी तक आम लोगों की कल्पना से परे है. 2019 का बालाकोट हमला भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों के सैटेलाइट वॉरियर्स के बीच सूचना युद्ध का मैदान बन गया था जिसमें हमले के साक्ष्य सफलता या विफलता के अपने-अपने दावों के तौर पर पेश किए गए.
सूचना क्षेत्र पर कब्जा
मौजूदा लद्दाख गतिरोध में सैटेलाइट वॉरियर्स की भूमिका एकदम जुदा नजर आ रही है. वे सूचनाएं पब्लिक डोमेन में लाने के मामले में एकदम अग्रिम पंक्ति में हैं और मोदी सरकार से मोर्चा लेते दिखते हैं, जिसने ऐसा रुख अख्तियार कर लिया है जैसे या तो उनका कोई वजूद नहीं है या फिर उनकी बातें कोई मायने ही नहीं रखती हैं. अब यह तो केवल वक्त ही बताएगा कि क्या ऐसी नीति अपनाना बुद्धिमत्तापूर्ण है, जब तक कि चीजें इतनी न बिगड़ें की चुप्पी ही एकमात्र विकल्प बचे और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जनता क्या सोचेगी.
लद्दाख से लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर संकट शुरू होने के समय से ही यह नजर आता रहा है कि मोदी सरकार अपना पक्ष सुस्पष्ट तौर पर सामने रखने में नाकाम रही है. प्रधानमंत्री मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के विरोधाभासी बयान इसका प्रमुख उदाहरण हैं. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता पर निर्भरता और सूचना क्षेत्र को इस तरह खाली छोड़ देना राजनीतिक विषाद को निमंत्रण दे सकता है, क्योंकि सीमा पर चीन की गतिविधियों का मनोवैज्ञानिक असर मील का पत्थर साबित होता है. सूचनाएं सामने आना वैश्विक स्तर पर भारत की छवि के लिए बेहद अहम है, क्योंकि इस पर दुनिया की नजरें टिकी रहती हैं कि भारत बदमाश देश चीन के साथ कैसे निपटता है.
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सब कुछ संतोषजनक नहीं
सूचना क्षेत्र में कोई चुनौती न होना सैटेलाइट वॉरियर्स को खुला मैदान देता है. सच जनता के सामने लाने की उनकी कोशिश भले ही नेक-नीयत वाली हों लेकिन सैन्य विशेषज्ञता के अभाव में केवल सैटेलाइट तस्वीरों के आधार पर उनका जमीनी हालात का गलत आकलन कर लेना दुष्प्रचार का सबब भी बन सकता है.
इन सैटेलाइट वॉरियर्स को चीन द्वारा चालबाजी से और जान-बूझकर सैन्य तैनाती के प्रदर्शन के जरिये अपनी सैन्य क्षमता के आकलन को लेकर भ्रमित भी किया जा सकता है. शत्रुता की साजिश दिखाने के लिए जमीन पर नक्शे बनाने और उन्हें जान-बूझकर उजागर करने जैसे कदम उठाए जाते हैं ताकि सैटेलाइट वॉरियर्स उन्हें देखें और इन्हें आम लोगों को डराने और भ्रमित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सके. ऐसे में, सैटेलाइट वॉरियर्स अनजाने में ही चीन की मनोवैज्ञानिक जंग में मोहरा बन सकते हैं.
सैटेलाइट से जुड़ी खुफिया सूचनाओं की आधिकारिक क्षमता सैटेलाइट वॉरियर्स की पहुंच से परे है, क्योंकि यह जानकारी विविध उपग्रहों के जरिये जुटाई जाती है और सैन्य विशेषज्ञता और जमीनी हालात की जानकारी रखने वाले लोग इसका आकलन करते हैं. सैटेलाइट वॉरियर्स को मोदी सरकार की तरफ से नजरअंदाज करने का कारण संभवतः भारतीयों के बीच उनकी सीमित पहुंच होना है.
कुछ को छोड़ दिया जाए तो, भारतीय प्रिंट और टेलीविजन मीडिया ने इन सैटेलाइट वॉरियर्स की रिपोर्टों और दावों से एक सम्मानजनक दूरी बना रखी है. ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप ही ऐसे प्रमुख प्लेटफॉर्म हैं जो इन तस्वीरों के बेरोक-टोक प्रसार का माध्यम बन रहे हैं लेकिन इनका दायरा सीमित है. कुल मिलाकर भारतीयों तक इन सैटेलाइट वॉरियर्स की पहुंच संभवत: बहुत ज्यादा नहीं है.
अंतरराष्ट्रीय मंच पर जरूर उनकी बातें सुनने वाले मौजूद हैं जिसमें रणनीतिक विश्लेषक, खुफिया एजेंसियां और राजनीतिक निर्णयकर्ता शामिल होते हैं. ऐसे वर्गों के विचार राजनीतिक नेतृत्व की अवधारणा और उसके आधार पर नीति निर्माण को प्रभावित कर सकते हैं. इस तथ्य को यह सोचकर दरकिनार किया जा सकता है कि दुनिया का अधिकांश हिस्सा कोविड-19 के कारण आई चुनौतीपूर्ण स्थिति से निपटने में इतना व्यस्त है कि उसे भारत-चीन गतिरोध और सैटेलाइट वॉरियर्स के दावों में कोई दिलचस्पी नहीं होगी. अल्पावधि के लिए तो यह तर्क स्वीकार्य हो सकता है लेकिन यह इसके दीर्घकालिक परिणामों की अनदेखी होगी. यदि संकट ज्यादा समय तक खिंचा तो सैटेलाइट वॉरियर्स अपने आकलन में बेहतर साबित होंगे और मोदी सरकार की चुप्पी को समझौते या तथ्य छिपाने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है.
भारत के लिए भारी पड़ सकती है मौजूदा नीति
सूचना के मंच पर मैदान में उतरे नए खिलाड़ी से निपटने में अब तक अपनाई गई नीति, जो जनता के लिए बुरी खबर ला सकती है, की निश्चित तौर पर समीक्षा किए जाने की जरूरत है. किसी सैटेलाइट वॉरियर्स से सीधे लड़ने की आवश्यकता नहीं है. इसके बजाय, जमीनी हालात की व्याख्या करने वाली सुस्पष्ट अधिकृत तस्वीरें सामने लाई जाएं जो राजनेताओं और अधिकृत प्रवक्ताओं के बयानों के अनुरूप हों.
सरकार का जनता से झूठ बोलना सर्वविदित है और यहां तक कि शासन कला के नाम पर इसे जायज भी ठहराया जा सकता है. लेकिन मौजूदा स्थिति में जो हो रहा है, वह है गहन चुप्पी, इससे संदेह बढ़ रहा है कि मोदी सरकार तथ्यों को छिपाने में शामिल है और साथ ही यह धारणा भी कि अंतरराष्ट्रीय राय कोई मायने नहीं रखती है.
तस्वीरें और हेडलाइन अभिव्यक्ति के किसी भी अन्य माध्यम से ज्यादा ध्यान आकृष्ट करती हैं. सैटेलाइट वॉरियर्स का उभरना ऐसी घटना नहीं है जो लद्दाख संकट सुलझने के साथ ही गुजर जाएगी. ये मोदी सरकार से मोर्चा लेने और भारत का नुकसान चाहने वाली ताकतों को चारा मुहैया कराने का साधन बने रहे सकते हैं. इसका नफा-नुकसान तो अंतत: इतिहास का हिस्सा बनेगा लेकिन यह तय है कि सैटेलाइट वॉरियर्स पूरी क्षमता से बढ़ेंगे और भारत को इस पर शुतुरमुर्ग की तरह अनदेखी वाली नीति अपनाने का खामियाजा भुगतना पड़ेगा.
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(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) तक्षशिला इंस्टीट्यू, बेंगलुरु में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय में पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. वह द स्ट्रैटेजी ट्रैप: इंडिया एंड पाकिस्तान अंडर द न्यूक्लियर शैडो के लेखक हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)