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Saturday, 21 December, 2024
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बाबा साहेब से जुड़ गई है रविदास की वैश्विक परंपरा

रैदास ने भारतीय समाज की बुराइयों को खत्म करके एक आदर्श समाज बनाने की कल्पना की थी, जहां किसी को कोई कष्ट न हो. लेकिन भारत में टेक्स्ट बुक रैदास के बारे में आम तौर पर खामोश हैं.

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इस पूरे हफ्ते दुनियाभर के विभिन्न देशों अलग-अलग दिन विचारक सद्गुरु रैदास (रविदास) जी महाराज की जयंती मनाई जा रही है. वैसे तो सद्गुरु रैदास की शिक्षाओं को विभिन्न समुदाय अपने-अपने स्तर पर मानता है, लेकिन संगठित तौर पर इनकी शिक्षाओं को मनाने वाले समाज को दुनियाभर में रविदसिया समुदाय के नाम से जाना जाता है, जिनका मूल संबंध अविभाजित पंजाब प्रांत से है.

पिछले कुछ एक दशक में इस समुदाय ने मुख्यधारा के सिख धर्म से थोड़ा सा हटकर अपने लिए अलग गुरुद्वारे बना लिए हैं, जिसमें सद्गुरु रैदास, गुरु नानक, गुरु गोविंद सिंह समेत बाबासाहब आम्बेडकर आदि के चित्र लगे हैं. इन गुरुद्वारे के अलग होने का कारण सिख धर्म में पुनर्जीवित हुए जातिवाद को माना जाता है. आज की तिथि में पूरे यूरोप में इस समुदाय के अपने दो न्यूज चैनल, कांशी टीवी और आजाद टीवी भी है, जिसके माध्यम से सद्गुरु रैदास का ज्ञान पूरी दुनिया में फैल रहा है.


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ऐसा नहीं है कि सद्गुरु रैदास का महत्व और सम्मान अभी हाल ही में बढ़ा है, बल्कि उनके सम्मान का अंदाजा हम इससे भी लगा सकते हैं कि सिख धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रन्थ साहब’ में सदगुरु जी महाराज की तकरीबन 40 वाड़ियां शामिल है. इसके साथ ही सद्गुरु कबीरदास जी के दोहों एवं साखियों में सद्गुरु रैदास जी का बहुत ही सम्मान के साथ खास उल्लेख मिलता है, खासकर उनका एक दोहा जिसमें वो अपने मित्र/सखा/गुरूभाई रैदास जी के सम्मान में कहते हैं कि ‘बेगमपुर के रहवैया, हमार साहब’.

यदि आधुनिक भारत के राष्ट्र निर्माताओं की बात की जाये तो बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर अपनी एक अति महत्वपूर्ण किताब ‘अछूत कौन’ को नन्दनार, रविदास और चोखामेला की याद में समर्पित करते हैं. अकादमिक जगत में अपनी किताब को किसी की याद में समर्पित करने को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है.

सद्गुरु रैदास जी की मूल शिक्षाओं को पांच प्रमुख संकल्पनों को केंद्र में रखकर समझने की कोशिश की जा सकती है –

बेगमपुरा यानि आदर्श राज्य की कल्पना

विदित हो कि अपने समय की समस्याओं के समाधान के लिए विभिन्न दार्शनिक एक आदर्श राज्य की संकल्पना करते थे. ऐसे विचारकों में सबसे पहला नाम यूनानी विचारक प्लेटो का आता है, जिन्होंने न्याय की अवधारणा को समझने के लिए एक आदर्श राज्य की परिकल्पना की. सद्गुरु रैदास अपने विचारों को समझने के लिए ‘बेगमपुरा’ की संकल्पना करते हुए अपने अनुयायियों से कहते हैं,

‘ऐ मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है, जो हालांकि अभी दूर तो है, पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है. उसमें कोई भी दूसरे या तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है; बल्कि, सब एक समान हैं. वह देश सदा आबाद रहता है. वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहे जाते हैं. जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं, उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है. उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं. इसके साथ ही वो कहते हैं कि जो भी उनके विचार ‘बेगमपुरा’ के समर्थक हैं, वो उनके मित्र है (कहे रैदास ख़लास चमारा, जो तू शहरी मीत हमारा).


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भूखमरी से निजात- रैदास के बेगमपुरा संकल्पना में भूखमरी से निजात पाना एक अहम मुद्दा है, जहां वो कहते हैं कि ‘ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सबन को अन्न, छोट बड़ा सब संग बसे, रैदास रहे प्रसन्न’.

ऐसा लगता है कि सद्गुरु रैदास की इसी संकल्पना को साकार करने के लिए आगे चलकर सिख और रविदसिया धर्म में लंगर की व्यवस्था हुई, जहां किसी भी जाति, धर्म, मजहब, रंग, लिंग आदि का व्यक्ति जाकर खाना खा सकता है.

मेहनत की इज्जत – यदि सद्गुरु रैदास के जीवन और उनकी शिक्षा को देखें तो उन्होंने अपने जीवन में श्रम की महत्ता पर ज़ोर दिया, क्योंकि वो खुद चमड़े का काम करके अपनी रोजी चलाते थे. ऐसा उनके समकालीन सद्गुरु कबीर ने भी किया जो कि खुद जुलाहा समुदाय से आते थे और सूत कातकर अपना परिवार चलाया करते थे.

गुरु रैदास और कबीर का श्रम करके अपना और अपने परिवार का पेट पालना भारत की स्थापित संत परंपरा के खिलाफ था क्योंकि उनमें मांगकर खाने को महिमामंडित किया जाता रहा है. स्थापित संत परंपरा के साधु-संन्यासी खुद काम ना करने की वजह से राजाओं की कृपा पर भी निर्भर रहते थे. इस वजह से वो राजाओं को समय समय पर महिमामंडित भी करते रहते थे. आत्म-निर्भर होने की वजह से सद्गुरु रैदास और कबीर के पास ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी.

जाति उन्मूलन की अवधारणा

जाति-प्रथा का विरोध भारत के गैर ब्राह्मणवादी ज्ञान परंपरा के मूल में रहा है, जिसकी शुरुआत हम गौतम बुद्ध की शिक्षाओं तक में खोज सकते हैं, जहां वो बताते हैं कि ‘ना जच्चा वासलों होती, ना जच्चा ब्रांहनों होती; कम्मुना ही वासलो होती, कम्मुना ही ब्राह्मणों होती’ यानि जन्म से ना कोई ब्राह्मण होता है, ना ही नीचा होता है, बल्कि यह सब कुछ कर्म से ही होता है.

इसी बात को आगे बढ़ते हुए सद्गुरु रैदास कहते हैं कि ‘रैदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच नर कुं नीच कर डारि है , ओछे करम कौ कीच’ यानि कोई जीव नीच समझी जाने वाली श्रेणी में जन्म लेने से नीच नहीं होता बल्कि नीच तो वह अपने बुरे कर्मो के कारण होता है. जीव नीच तब बनता है जब उस पर बुरे कर्मो का कीचड़ पड़ता है.

भारतीय महाद्वीप में व्याप्त जाति व्यवस्था पर वे कहते हैं कि ‘जाति, जाति में जाति है, तिन केलन के पात, रविदास ना मानुष बन सके, जब तक जाति ना जात.’ सद्गुरु रैदास कि इन लाइनों में हम देख सकते हैं कि वो जाति व्यवस्था को ही मनुष्य विरोधी बता रहे हैं, और उसके समाप्त होने की कल्पना कर रहे हैं.

सनातनी ज्ञान परंपरा का खंडन

सद्गुरु रैदास की वाणी में सनातनवादी ज्ञान परंपरा का विरोध भी दिखाई देता है, जो कि उनकी प्रसिद्ध वाणी ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’ में दिखता है. सनातन परंपरा पर पल रहे ब्राह्मणवाद पर भी सद्गुरु रैदास चोट करते रहते थे, जिसको हम उनकी वाणी‘चारो वेदन किया खंडौति, ताकौ विप्र करे डंडौति’में देख सकते हैं.

अकादमिक जगत में रैदास के मानववादी शिक्षाओं की अनुपस्थिति

यदि सद्गुरु रैदास के उपरोक्त चिंतन को देखा जाये तो यह साफ साफ दिखाई देता हैं कि उनकी शिक्षा मानव कल्याण को लेकर थी. इसके बावजूद जब हम भारत के अकादमिक जगत को देखते हैं तो यहां उनकी शिक्षाएं ना के बराबर ही पढ़ाई गयी हैं. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत के अकादमिक जगत में सद्गुरु रैदास का परिचय सिर्फ उनकी शिष्या मीराबाई के गुरु तक ही सीमित करने की कोशिश हुई है. यह स्थिति तब हुई है जब भारत में उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में हुए सांस्कृतिक क्रांति आंदोलनों को रैदास, कबीर, चोखामेला आदि के विचारों से प्रेरणा मिली थी.

भारत के सांस्कृतिक आंदोलनों पर शोध करने वाली अमेरिकी मूल की प्रोफेसर गेल ओम्वेट अपनी किताब ‘कल्चरल रिवोल्ट इन कालोनियल सोसायटी’ में इन आंदोलनों पर संतों और गुरुओं की शिक्षाओं के प्रभाव का वर्णन किया है. उनकी इस किताब को बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम अपने भाषणों में अक्सर उद्धृत करते थे. गेल ओम्वेट की दूसरी किताब ‘सीकिंग बेगमपुरा’ गुरु रैदास समेत ऐसे तमाम संतों एवं गुरुओं के विचारों पर प्रकाश डालती है.

(लेखक लंदन यूनिवर्सिटी के रॉयल होलोवे से ‘बढ़ती असमानता’ पर पीएचडी कर रहे हैं.)

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