रमज़ान के पवित्र महीने के दौरान गुलमर्ग में डिज़ाइनर जोड़ी शिवन और नरेश द्वारा आयोजित एक फैशन शो ने विवाद खड़ा कर दिया है जो अब जम्मू और कश्मीर विधानसभा तक पहुंच गया है. मुस्लिम बहुल आबादी वाले इस क्षेत्र में, इस इवेंट की खूब आलोचना हुई है, कुछ धार्मिक हस्तियों ने इसे “सांस्कृतिक आक्रमण” से कम नहीं बताया है.
पवित्र महीने के दौरान रनवे पर बॉडी दिखाने वाली मॉडलों के प्रदर्शन के लिए कानूनी कार्रवाई की मांग की गई है, जिसमें “धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने” के लिए ज़िम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराने की मांग की गई है. इस प्रतिक्रिया की गंभीरता इस तथ्य से स्पष्ट होती है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होकर जांच के आदेश दिए हैं.
भारत में जन भावना की असलियत एक भावनात्मक प्रतिक्रिया से कहीं ज़्यादा है. कई मामलों में यह विमर्श की सीमाएं तय करती है, यह तय करती है कि किसे स्वीकार किया जाए और किसे ज़्यादा तवज्जो दी जाए. यह अभूतपूर्व नहीं है. सामुदायिक मूल्यों का महत्व है और उनका प्रभाव सिर्फ जनमत से कहीं आगे तक फैला हुआ है.
हालांकि, भारत की इस ज़मीनी सच्चाई को स्वीकार करते हुए, मैं एक-दूसरे के प्रति ज़्यादा सहनशील होने की वकालत भी करना चाहती हूं. जब किसी को एहसास होता है कि उसके कामों से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंची है और वह माफी मांगकर अपनी गलती सुधारना चाहता है, तो क्या उसे माफ नहीं किया जाना चाहिए?
डिज़ाइनर जोड़ी अब खुद को विवादों में घिरा हुआ पा रही है. आलोचनाओं को समझते हुए, उन्होंने औपचारिक माफी मांगी और अपने शो से लोगों को हुई किसी भी ठेस के लिए खेद जताया, लेकिन आक्रोश अभी भी जारी है. कई लोगों के लिए केवल माफी काफी नहीं है.
पश्चाताप से ज़्यादा ठोस कार्रवाई की मांग एक बड़े मुद्दे को उजागर करती है: ऐसे देश में जहां सांस्कृतिक और धार्मिक संवेदनशीलताएं सार्वजनिक जीवन में गहराई से समाहित हैं, क्या कभी वास्तविक सुलह का कोई रास्ता निकलता है?
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धर्म पर आधारित नीति
जनभावना का सम्मान करना सिर्फ महत्वपूर्ण नहीं — यह भारत के कामकाज का तरीका है, एक आधारभूत मूल्य जिस पर भारत बना है, सार्वजनिक जीवन को आगे बढ़ाने का एक अलिखित नियम है.
लेकिन हम सीमा कहां खींचते हैं? क्या आक्रोश हमेशा सज़ा की ओर ले जाता है, भले ही पश्चाताप असली हो? क्या गलतियों को स्वीकार करना, खेद जताना और सुधार करने की कोशिश करना कुछ मायने नहीं रखता? या हम एक ऐसा समाज बन गए हैं जो माफ करने से इनकार करता है, जो हर गलती को आक्रोश के अंतहीन चक्र में घसीटने पर ज़ोर देता है — जो अटका हुआ है, सज़ा और प्रतिशोध की एक ही कहानी को बार-बार दोहराता है.
हमने रणवीर अल्लाहबादिया के मामले में भी कुछ ऐसा ही देखा है, जहां एक गलत मज़ाक के कारण इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई कि उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है मानो वे कोई ख़तरनाक अपराधी हों. आक्रोश सिर्फ आलोचना और कानूनी कार्रवाई की मांग तक ही सीमित नहीं रहा — यह उनके परिवार तक फैल गया, यहां तक कि उनके माता-पिता को भी कुछ लोगों के हाथों असली ज़िंदगी के परिणामों का सामना करना पड़ रहा है. हो सकता है कि उन्होंने लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई हो, लेकिन अब जो कुछ सामने आ रहा है, उससे पता चलता है कि उनके और समय रैना के लिए आगे कोई रास्ता नहीं है, कम से कम तुरंत तो नहीं.
जनभावना के कारण ऐसी प्रतिक्रियाएं केवल व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं हैं, कभी-कभी वह सरकारी फैसलों को भी परिभाषित करती हैं, उदाहरण के लिए, राम मंदिर उद्घाटन के दौरान ड्राई डे की घोषणा और मांस की बिक्री पर प्रतिबंध.
यह पहली बार नहीं है कि सार्वजनिक नीति या सामाजिक व्यवहार धार्मिक संवेदनाओं से प्रभावित हुआ है. भारत ने लंबे समय से धार्मिक और सांस्कृतिक विचारों से प्रभावित नीतिगत फैसले देखे हैं. 1832 की शुरुआत में, पारसी नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शन, जिसे बॉम्बे डॉग दंगों के रूप में जाना जाता है, ने शहर के कमर्शियल सेंटर को ठप कर दिया, जब अंग्रेज़ों ने आवारा कुत्तों को मारने की अनुमति देने वाले कानून को आगे बढ़ाया. इसने पारसी समुदाय को बहुत आहत किया.
अप्रैल 2022 में दक्षिण और पूर्वी दिल्ली के महापौरों ने नवरात्रि के दौरान मांस की दुकानों को बंद रखने का आह्वान किया, यह तर्क देते हुए कि “ज़्यादातर लोग त्योहार के दौरान मांसाहारी भोजन नहीं खाते हैं” — भले ही नागरिक निकायों द्वारा कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया गया था. इसी तरह, अपने लाइव रोस्ट शो को लेकर विवाद के केंद्र में ऑल इंडिया बकचोद (एआईबी) ने अपनी टिप्पणियों के लिए मुंबई आर्चडायोसिस और ईसाई समुदाय से बिना शर्त माफी मांगी. सिख मान्यताओं के सम्मान के प्रतीक के रूप में गुरुद्वारे के पास धूम्रपान या नशीले पदार्थ लाने की आलोचना की जाती है.
भारत हमेशा से ही ऐसा देश रहा है जहां आस्था और भावनाएं मायने रखती हैं, जहां कुछ लोग इन कार्यों को परंपरा के प्रति सम्मान के रूप में देखते हैं, वहीं अन्य लोग इन्हें इस बात के उदाहरण के रूप में देखते हैं कि धार्मिक संवेदनशीलताएं किस तरह सार्वजनिक जीवन को आकार देती हैं, जो अक्सर किसी विशेष धर्म को मानने वालों से परे होती हैं. राज्य द्वारा लगाए गए प्रतिबंध, यहां तक कि अस्थायी प्रतिबंध भी धार्मिक अनुष्ठानों के लिए आदर्श बन गए हैं. जैसे-जैसे भारत अपनी विविधतापूर्ण और बहुलवादी पहचान को आगे बढ़ा रहा है, ये बहसें बार-बार सामने आती रहेंगी — हमें आस्था, शासन और व्यक्तिगत पसंद के बीच संतुलन बनाने की चुनौती देती हैं.
जब जनता की भावनाएं आहत होती हैं, तो नागरिक समाज उम्मीद करता है कि जिम्मेदार व्यक्ति को माफी मांगनी चाहिए और किसी तरह के परिणाम भुगतने चाहिए, लेकिन क्या होता है जब कुछ लोगों के अनुसार वह माफी पर्याप्त नहीं होती, जब मुक्ति का कोई रास्ता उपलब्ध नहीं होता? क्या हम ऐसा समाज बना रहे हैं जहां एक गलती हमेशा के लिए एक व्यक्ति को परिभाषित करती है? या क्या हम एक अधिक न्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपना सकते हैं — ऐसा दृष्टिकोण जो अपराध को स्वीकार करता है, लेकिन पश्चाताप, विकास और मुक्ति के लिए भी जगह देता है?
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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