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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतकाफी लंबी खिंची जंग से वैश्विक मिलिट्री सप्लाई सिस्टम हुआ तबाह, भारत का आगे आने का वक्त

काफी लंबी खिंची जंग से वैश्विक मिलिट्री सप्लाई सिस्टम हुआ तबाह, भारत का आगे आने का वक्त

अमेरिका ने यूक्रेन में ए-ग्रेड स्वीचब्लेड ड्रोन उतारा, तो भारत को छोटे डिलिवरी सिस्टम वाले हथियारों का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू करने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए

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यूक्रेन युद्ध के नौ हफ्ते बाद संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरस ने कीव के बुरी तरह तबाह उपनगरों का दौरा किया और कहा कि 21वीं सदी में युद्ध बेहूदगी है. लेकिन ऐसी खीझ भरी प्रतिक्रिया से असलियत का किसी तरह के लेनादेना न होने की ही उम्मीद की जा सकती है क्योंकि युद्ध अब दसवें हफ्ते में बढ़ चला है. बदतर तो यह है कि यह युद्ध नाटो को रूस के खिलाफ सीधे भिडऩे के लिए एकजुट कर रहा है और यूक्रेन को मिलिट्री हार्उवेयर की सप्लाई बढ़ गई है, जिसमें तोप और बखतरबंद गाडिय़ों के अलावा एंटी-आर्मर, एंटी-एयर, एयर-डिफेंस और साइबर अस्त्र शामिल हैं.

व्लादीमीर पुतिन फौरन हरकत में आए और चेताया कि रूस के लिए रणनीतिक खतरा बनने वाले और दखंलदाजी करने वाले किसी भी देख के खिलाफ ‘बिजली की गति’ से मुहिम चलाई जाएगी. उन्होंने यह भी कहा कि रूस के पास ऐसे औजार हैं, जिसकी किसी के पास काट नहीं है और जरूरत पड़ी तो वे उसका इस्तेमाल करने जा रहे हैं. रूस ने पोलैंड और बुल्गारिया को गैस सप्लाई रोक दी है. ये भी संकेत हैं कि रूस दक्षिण-पश्चिम यूक्रेन में अलग हुए क्षेत्र ट्रांसनिस्ट्रीया से एक और मोर्चा खोल सकता है. लगता है, युद्ध लंबा खिंचने की ओर बढ़ चला है.

लंबे खिंचे युद्ध की वजह से मिलिट्री हार्डवेयर की सप्लाई चेन टूट सकती है. उपकरणों के अंतरसंबंध की वजह से उसके एजेंटों का भौगोलिक विस्तार संभव हुआ है. एक दिलचस्प रिपोर्ट में रूस की सप्लाई चेन और प्रिसिजन गाइडेड म्युनिशन (पीजीएम) का हवाला दिया गया है. कुछ पीजीएम में अमेरिकी कंपनियों के पार्ट्स होने की बात सामने आई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘रूस के ज्यादातर मिलिट्री हार्डवेयर अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, नीदरलैंड, जापान, चीन और दूसरों से आयातित पेचीदा इलेक्ट्रॉनिक्स पर आश्रित हैं.’ कई उपकरण दोहरे इस्तेमाल के काबिल हैं.

लंबे खिंचे युद्ध में रूस की चीन पर निर्भरता बढ़ेगी और नए स्रोतों की तलाश, कई बार गुपचुप तरीके की दरकार उत्पादन क्षमताओं को बाधित करेगी. मौजूदा वैश्विक राजनैतिक परिदृश्य में टेक भू-राजनीति का हाथ ऊपर हो गया है और लंबे दौर में चीन की मदद के बिना रूस की फौज को मुश्किल का सामना करना पड़ेगा. इसके बावजूद पश्चिमी स्रोतों के नुकसान की भरपाई आसान नहीं होगी. यह देखना दिलचस्प होगा कि यूक्रेन को अमेरिका और उसके सहयोगियों के जरिए मिल रहे सिस्टम की बराबरी के सिस्टम की रूस की मांग पर चीन का रुख क्या होता है.


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अमेरिका और उसके मारक ड्रोन

अमेरिका ने खुलेआम ऐलान किया है कि उसकी योजना भारी मात्रा में यूक्रेन को हथियार देने की है, जिसमें ड्रोन, तोप, राडार और दूसरे अस्त्र सिसटम शामिल हैं. मीडिया रिपोर्ट में बताए गए अमेरिकी ड्रोन गौर के काबिल हैं. स्वीचब्लेड ड्रोन कामिकेज या फिदायीन हमले की तरह होते हैं. उसमें जेवलिन मल्टीपरपज वारहेड होता है और दिशा की तलाश के लिए जीपीएस सिस्टम का इस्तेमाल होता है. उसका ठोस आकार और हल्का वजन होता है, जिसे आसानी से कोई उठा सकता है. उसे दुश्मन के मोर्चे पर डटे जवानों के लिए खास तरह से बनाया गया है. उसे स्थिर और गतिमान दोनों तरह के निशानों पर चलाया जा सकता है. बखतरबंद गाडिय़ों पर भी. उसके दो रूप हैं-स्वीचब्लेड 300 और स्वीचब्लेड 600. स्वीचब्लेड 300 करीब 15 मिनट तक उड़ सकता है और 10 किमी. तक वार कर सकता है. स्वचब्लेड 600 करीब 40 मिनट उड़ सकता है और 40 किमी तक मार कर सकता है. उसकी एक कीमत करीब 6,000 डॉलर है. फिर, कई ड्रोन में इस्तेमाल की जाने वाली हेलफायर मिसाइल की कीमत 1,50,000 डॉलर है. एमक्यू-9 रीपर ड्रोन की कीमत प्रति इकाई 3.2 करोड़ डॉलर है और तुर्की का बैरक्तार टीबी2 ड्रोन की कीमत प्रति इकाई 10-20 लाख डॉलर है.

अप्रैल के तीसरे हफ्ते में पेंटागन ने बताया कि वह फोनिक्स घोस्ट मिसाइल की सप्लाई कर रहा है, जिसे अमेरिकी वायु सेना में 2022 में ही शामिल किया गया है. उसकी मारक क्षमता और काबिलियत अभी नहीं बताई गई है लेकिन मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, यी भी कामिकेज ड्रोन ही है. वह खासकर पूर्वी यूक्रेन में मध्यम दर्जे की बखतरबंद गाडिय़ों, अहम कमान और कंट्रोल ठिकानों, तोप ठिकानों, फौजी ठिकानों और साजोसामान ठिकानों पर मार करने में उपयोगी होगा.

ऊपर बताए गए दोनों ड्रोन रणनीतिक मोर्चों पर छोटे-बड़े सभी अभियानों में उपयोगी हैं. कल्पना कीजिए कि आसामन से तराह कई-कई फिदायीन बम जमीन के ठिकानों पर उतर रहे होंगे. इन सिस्टमों का यूक्रेन युद्ध में प्रदर्शन देखने लायक होगा. तुर्की के ड्रोन की अजरबैजान की नगरनो-कराबाख में अर्मेनिया पर जीत में अहम भसूमिका थी.


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भारत की आगे की राह

भारत को अब इंतजार नहीं करना चाहिए, बल्कि छोटे डिलिवरी सिस्टम पर आधारित हथियारों का बड़े पैमाने पर उत्पादन की ओर बढऩा चाहिए. अमेरिका शायद टेक्नोलॉजी संबंधी मदद करे और देश ऐसी हथियारों के उत्पादन का हब बन सकता है. अगर टेक्नोलॉजी संबंधी मदद न मिले तो भारत को आने मौजूदा औद्योगिक आधार को बना सकता है और उसमें स्टार्ट अप को शामिल कर सकता है और उन्हें वित्तीय मदद दे सकता है. अगर कामयाबी मिलती है तो सस्ते और बडे पैमाने पर उपलब्ध ड्रोन महंगे ड्रोन और विमानों की जगह ले सकते हैं. उन्हें आसमान में जंगी जहाजों और हेलिकॉप्टरों की करीबी मदद के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. रणनीतिक योजनाकारों के लिए शायद बजट की कमी के दौर में मिलिट्री को कारगर बनाने में भी मदद मिल सकती है.

, ऐसे वीपन सिस्टम को विकसित करने वाली भारतीय इकाइयों को अपने उपकरणों के लिए इिकाने की तलाश की चुनौती से पार पाना होगा और इससे सप्लाई चेन में आ रही बाधाएं दूर की जा सकती हैं. यह वाकई एक समस्या है कि भारत अभी भी काफी सैन्य साजोसामान अमेरिका, यूरोप, इज्राएल और रूस से खरीदता है. हथियारों के उपकरणों का स्वेदशीकरण की कोशिश के अलावा भारत की उपकरण हासिल करने की काबिलियत वैश्विक भू-राजनीति में उसके रुख से तय होगी. व्यापक भू-राजनैतिक व्यवसािा में टेक भू-राजनीति की व्यवस्था प्रत्यक्ष और परोक्ष अड़चन पैदा कर सकती है. सप्लाई चेन को खुला रखने के लिए रणनीतिक मिशन अपनाना होगा, जिसमें दोहरे इस्तेमाल के आइटम और गुपचुप सप्लाई के तरीके भी शामिल हो सकते हैं.

अवधारणा के स्तर पर आधुनिक युद्धक्षेत्र में छोटे बनाम बड़े की संभावनाएं भारत के सैन्य नीतिकारों को खोजनी होंगी. युद्ध में बड़े की बनिस्बत छोटे प्लेटफॉर्म को तरजीह देने की व्यवस्था भारत के हक में हो सकती है, बशर्ते हम साझा सैन्य सिद्धांत यानी भारत के भावी युद्धक्षेत्र के विचार पर अमल करने का फैला करें. इसके तहत ढांचागत बदलाव भी करने होंगे. इसस भी बढक़र, ऐसे बदलाव में सेना के अलग अंगों और उसके आंतरिक विरोध का सामना करना पड़ेगा, जिसे सैन्य नेतृत्व को मौजूदा युद्धों से सीख लेकर निबटाना होगा और बदलाव को आगे बढ़ाना होगा.

अब वक्त आ गया है कि भारतीय सेना मिलिट्री हार्डवेयर में छोटे बनाम बड़े की संभवनाएं तलाश करे और उसके नफा-नुकसान पर विचार करे. अगर वैश्विक भू-राजनीति और भारत के हितों के संदर्भ में एक सब-सिस्टम इजाद करने पर विचार किया जाता है तो यह दिलचस्प होना चाहिए. भारत के सबसे पुराने साझा मिलिट्री थिंक टैंक यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन ऐसे विषय पर विचार की आदर्श जगह हो सकती है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन  बेंगलुरु स्थित तक्षशिला संस्थान के स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम के डायरेक्टर हैं. वह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के सैन्य सलाहकार भी रहे हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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