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Friday, 12 September, 2025
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आरएसएस शताब्दी वर्ष: सेवा से संघर्ष तक, सामाजिक संगठन और राष्ट्र निर्माण की कसौटी पर संघ

संघ की हिंदू और हिंदुत्व की अवधारणा सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक तत्वों का समावेशी संगम है. संघ मानता है कि हिंदुत्व कोई मत या पंथ नहीं, बल्कि सभ्यता, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना है.

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1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. इस साल संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है. संघ की स्थापना का मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज को जागृत और संगठित करते हुए राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक गौरव को बढ़ाना था. दैनंदिन शाखाओं के ज़रिए संघ ने अनुशासन और चरित्र-निर्माण पर बल दिया. इसी आधार पर व्यक्तित्व विकास और सामाजिक संगठन को समर्पित यह संस्था आज विश्व का सबसे बड़ा और प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बन चुकी है.

संघ की शताब्दी यात्रा संघर्ष, सेवा, समर्पण, संगठन और संस्कारों से भरी रही है. इसका व्यापक असर भारतीय समाज में साफ दिखाई देता है. संघ ने समाज सेवा, स्वदेशी, शिक्षा, ग्राम-विकास, आपदा-राहत, वनवासी कल्याण और सामाजिक समरसता जैसे कई क्षेत्रों में लगातार काम किया और सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश की. इसकी विचारधारा हमेशा सभी को साथ लेकर चलने और समरसता पर केंद्रित रही है. संघ का मकसद व्यक्तियों में नैतिकता, कर्तव्यबोध और नेतृत्व क्षमता का विकास करना है. संघ अपने स्वयंसेवकों को एक राष्ट्रीय दृष्टि देता है. उसका मानना है कि हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि वह अपने राष्ट्र को किस दिशा में ले जाना चाहता है और उसमें उसका योगदान क्या हो सकता है. संघ अपने स्वयंसेवकों को भारत-बोध से प्रेरित करते हुए निष्काम कर्म और निस्वार्थ सेवा की सीख देता है. यह सब जीवन में अध्यात्म के समावेश से ही संभव माना जाता है.

संघ का मूल विचार और उद्देश्य

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूल विचार और दर्शन है—“राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना”. इसके लिए समाज में एकता, समरसता और सनातन सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा ज़रूरी मानी गई है. संघ का मुख्य उद्देश्य एक सशक्त, संगठित और आत्मनिर्भर राष्ट्र का पुनर्निर्माण करना है—ऐसा भारत जो अपनी गौरवशाली संस्कृति, समृद्ध इतिहास और श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों पर गर्व करे. अनुशासन, निस्वार्थ सेवा और “राष्ट्र सर्वोपरि” की भावना संघ की नींव है. “संघ शक्ति कलियुगे” का मंत्र इसकी विचारधारा का केंद्रीय भाव है. इस लक्ष्य को पाने के लिए संघ संगठन और सेवा को सर्वोत्तम साधन मानता है.

भारत के सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में संघ के स्वयंसेवकों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा है. स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भागीदारी की. 1962 के भारत-चीन युद्ध और 1947, 1965, 1971 तथा 1999 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में स्वयंसेवकों ने उल्लेखनीय योगदान दिया. दादरा-नगर हवेली और गोवा मुक्ति आंदोलन में निर्णायक भूमिका निभाई. आपातकाल के दौरान लाखों स्वयंसेवक जेल गए और भूमिगत आंदोलन चलाकर लोकतंत्र की रक्षा की.

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने, प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं में राहत कार्य, भारतीय संस्कृति व परंपराओं के संरक्षण, शिक्षा, संस्कार और स्वदेशी को बढ़ावा देने में संघ का योगदान उल्लेखनीय रहा. सामाजिक सुधार, राष्ट्रीय सुरक्षा और सकारात्मक परिवर्तन में स्वयंसेवक कठिन परिस्थितियों में भी अपनी अडिग प्रतिबद्धता दिखाते आए हैं. विडंबना यह है कि इतने काम करने के बावजूद संघ को कई बार प्रतिबंधों और विरोध का सामना करना पड़ा.

संघ की हिंदू और हिंदुत्व की अवधारणा सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक तत्वों का समावेशी संगम है. संघ मानता है कि हिंदुत्व कोई मत या पंथ नहीं, बल्कि सभ्यता, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना है. डॉ. हेडगेवार ने हिंदू की परिभाषा इस रूप में दी—वह व्यक्ति जो भारत को अपनी मातृभूमि और संस्कृति के रूप में स्वीकार करे. यानी जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि एक हो. इस दृष्टिकोण में अन्य मत-पंथों के लोग भी शामिल हो सकते हैं, यदि वे भारतीय जीवन-मूल्यों और सनातन संस्कृति में आस्था रखते हैं.

संघ का मानना है कि हिन्दुत्व एक समावेशी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, जिसमें भेदभाव से ऊपर उठकर भारत की एकता और अखंडता को महत्व दिया गया है. इसका उद्देश्य किसी भी समुदाय की उपेक्षा नहीं, बल्कि सभी को भारतवासी के रूप में संगठित करना है.

हाल ही में दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि संघ का हिंदुत्व स्वीकार और समावेशिता का प्रतीक है, न कि बहिष्कार और विरोध का. उन्होंने ज़ोर दिया कि समरसता, सद्भाव और सहअस्तित्व हिंदू जीवन पद्धति की पहचान है. इसमें मुस्लिम और अन्य पंथों के प्रति भी सहज स्वीकार्यता है. उन्होंने राष्ट्र-राज्य और राष्ट्र, पंथनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव, परंपरा और आधुनिकता, भारतीय भाषाएं और राष्ट्रभाषा हिंदी बनाम अंग्रेज़ी जैसे विषयों पर भी संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट किया. यह व्याख्यानमाला नागरिक समाज से संवाद कर संघ को लेकर फैली भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास था.

शताब्दी वर्ष में संघ ने समाज में “पंच-परिवर्तन” पर ज़ोर दिया है. इनसे भारतीय समाज में सकारात्मक, सर्वांगीण और संतुलित बदलाव लाने का लक्ष्य है. इसमें सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, कुटुंब प्रबोधन, स्वदेशी जीवनशैली और नागरिक कर्तव्यों पर विशेष ध्यान दिया गया है. इन पंच-परिवर्तनों के ज़रिए भारत की एकता, अखंडता और समृद्धि को बढ़ाया जाएगा.

सामाजिक समरसता का आधार संघ की समावेशी राष्ट्र और समाज की अवधारणा है. यह अवधारणा जातीय भेदभाव से मुक्त समानता पर आधारित समरस समाज के निर्माण की है.

स्वदेशी का अर्थ है अपनी चेतना को भारतीय सोच और मनीषा के अनुरूप ढालना. इसका मतलब है उपभोक्तावाद के प्रभाव में न आना और अपने राष्ट्र को आर्थिक रूप से मज़बूत करने के लिए स्वदेशी सामान का उपयोग करना. जिन वस्तुओं का उत्पादन हम स्वयं कर सकते हैं, उन्हें दूसरे देशों से आयात नहीं करना चाहिए. संयमित उपभोग ही उपभोक्तावाद की चुनौती का सही उत्तर है.

“स्व” का बोध और “स्व” के प्रति गर्व की भावना ही हमें औपनिवेशिक दासता से पूरी तरह मुक्त कर सकती है. भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भ्रमण और भजन—हर क्षेत्र में स्वदेशी को प्राथमिकता देनी चाहिए. औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए भाषाई परतंत्रता से बाहर आना ज़रूरी है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत भारतीय भाषाओं के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया है. भारतीय भाषाओं में अध्ययन-अध्यापन और पाठ्य-सामग्री उपलब्ध होने से दूरदराज़ क्षेत्रों के वंचित वर्गों के विद्यार्थी भी अपनी प्रतिभा का विकास कर सकेंगे और राष्ट्र-निर्माण में योगदान देंगे. अंग्रेज़ी की जकड़न लंबे समय से प्रतिभा विकास की बाधा रही है. अपने भाषाई स्वबोध को जागृत करके ही हम आत्मनिर्भर और स्वतंत्रचेता राष्ट्र बना सकते हैं और सुनहरे भविष्य के निर्माता बन सकते हैं.

आज पूरी दुनिया पर्यावरणीय संकट और आपदाओं से जूझ रही है. भारत भी इससे अछूता नहीं है. पिछले कुछ दशकों में भू-स्खलन, बादल फटना, बाढ़ और सूखे जैसी आपदाओं ने जनजीवन को प्रभावित किया है. गर्मी, बरसात और सर्दी—तीनों ही मौसम अपने-अपने रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं. हिमालय, जिसे भारत की सुरक्षा की ढाल माना जाता है, अब खतरे में है. ऋतु-चक्र पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है. यह पर्यावरण संकट प्राकृतिक असंतुलन का नतीजा है.

अब ज़रूरी है कि हम विकास का ऐसा मॉडल अपनाएं जो प्रकृति का सहयोगी हो. प्रकृति के दोहन और शोषण पर आधारित संघर्षपूर्ण संबंधों की जगह हमें सह-अस्तित्व और साहचर्य पर आधारित संबंध बनाने होंगे. यही मनुष्य और मानवता के लिए कल्याणकारी होगा.

कुटुंब प्रबोधन का उद्देश्य संकटग्रस्त पारिवारिक और सामाजिक जीवन को बचाना है. परिवार भारत की सबसे बड़ी विशेषता और उपलब्धि रहा है। यह परंपराओं और संस्कारों का संवाहक है और सामाजिक सुरक्षा तथा संतोष का मूल स्रोत है, लेकिन आज व्यक्तिवाद और उपभोक्तावाद की पश्चिमी आंधी ने इसकी नींव हिला दी है. परिवार टूट रहे हैं, रिश्तों में आत्मीयता की जगह अलगाव और संघर्ष बढ़ रहा है. यह प्रवृत्ति बेहद चिंताजनक है. इस चुनौती को समय रहते पहचानकर संघ इसे प्राथमिकता के आधार पर हल करने के लिए प्रतिबद्ध है.

यह सवाल अहम है कि एक नागरिक के रूप में हमारे कर्तव्य क्या हैं. हम कर्तव्य-सचेत समाज की बजाय अधिकार-सचेत और आत्मकेंद्रित समाज बनते जा रहे हैं. अक्सर हम सारी जिम्मेदारियाँ सरकार पर छोड़ देते हैं, जबकि सच यह है कि बिना नागरिक सहभागिता के सरकार भी बड़ा परिवर्तन नहीं कर सकती.

टैक्स और बिल समय पर जमा करना, लाइसेंस नवीनीकरण, मतदान करना, यातायात नियमों का पालन, बिजली-पानी की बचत, राष्ट्रीय संपत्ति की रक्षा और राष्ट्रीय पर्वों व प्रतीकों का सम्मान—ये सभी कार्य दैनिक जीवन की सच्ची देशभक्ति हैं. इसलिए नागरिकों को अपने कर्तव्यों का बोध होना और राष्ट्र-निर्माण में सक्रिय योगदान देना ज़रूरी है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिपादित पंच-परिवर्तन से सामाजिक जीवन में अनुशासन, देशभक्ति और नागरिक सहभागिता बढ़ेगी. इससे राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और राष्ट्रोन्नति की मज़बूत नींव तैयार होगी.

संघ की भावी कार्ययोजना में शाखाओं के माध्यम से विस्तार प्रमुख है. डॉ. हेडगेवार की कल्पना थी—“संघ अंततः समाज में विलय हो जाएगा और समाज संघमय हो जाएगा.” इस एकात्मता की भावना को कबीर की वाणी स्पष्ट करती है: “जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी.”

शताब्दी संकल्प में संघ ने शिक्षा में भारतीय दृष्टि का समावेश, स्वावलंबन पर आधारित अर्थव्यवस्था, संसाधनों और सत्ता का विकेंद्रीकरण, ग्रामोदय से राष्ट्रोदय, तथा युवाओं को संस्कार और रोजगार देकर प्रतिभा पलायन रोकने को प्राथमिकता दी है.

“वसुधैव कुटुंबकम्” के आदर्श पर चलने वाला संघ, “सर्वे भवन्तु सुखिनः” जैसे कल्याण-मंत्र के साथ विश्व शांति और मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए कार्यरत रहेगा.

(लेखक रामानुजन कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्राचार्य हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


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