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Wednesday, 20 November, 2024
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देश के राजनीतिक विमर्श को इतना अश्लील तो मत बनाइये!

विरोधी दलों की महिला नेताओं पर सामंतों जैसी ओछी टिप्पणियों में शालीन होने की कौन कहे, शालीन दिखने की भी परवाह नहीं कर रहे नेता.

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देश के राजनीतिक विमर्श के ‘राजनीतिक’ शब्द को सच्चे अर्थों में राजनीतिक होने को लेकर तो पहले से ही गहरे संदेह जताये जाते रहे हैं, उथलेपन के नये प्रतिमान रचता हुआ अब वह अश्लील भी हो चला है- कम से कम इस अर्थ में कि विरोधी दलों की महिला नेताओं पर सामंतों जैसी ओछी टिप्पणियों में शालीन होने की कौन कहे, शालीन दिखने की भी परवाह नहीं करता. विडम्बना यह कि उसकी प्रकृति में इस असामाजिक परिवर्तन के पीछे देश की सत्ता पर काबिज पार्टी के साथ उस सोशल मीडिया की भी भूमिका है, जिसका दुरुपयोग करने में लगी शक्तियों को उसे वास्तव में सोशल होने देना गवारा नहीं. कोढ़ में खाज यह कि गिरावट की इस प्रतिद्वंदिता में खुद को प्रतिपक्ष कहने वाले भी पीछे नहीं हैं.

याद कीजिए, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गत 9 जनवरी को जयपुर में देश की रक्षामंत्री के महिला होने का किस कदर मज़ाक उड़ाया था और उनके मज़ाक का औचित्य सिद्ध करने के लिए उनकी पार्टी के प्रवक्ताओं ने कैसे-कैसे तर्क {पढ़िये: कुतर्क} दिये थे. राहुल के शब्द थे, ‘राफेल पर 56 इंच के सीने वाले प्रधानमंत्री जवाब नहीं दे पाए और उन्होंने एक महिला को आगे कर दिया….निर्मला सीतारमण से कहा कि आप मेरी रक्षा करो, मैं खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता…आपने देखा कि ढाई घंटे तक यह महिला जवाब नहीं दे पाईं.’

जैसा कि बहुत ‘स्वाभाविक’ था, इसके कड़े प्रतिवाद पर उतरी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी सरकार के साथ राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों को राहुल की लानत मलामत करते-करते अचानक ‘महिलाओं की मर्यादाएं’ याद आ गई थीं और उनकी पैरोकारी की खोल ओढ़कर वे हरहाल में उनकी रक्षा की कसमें खाने लगे थे, लेकिन जैसे ही राहुल ने अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस का महासचिव बनाकर औपचारिक तौर पर राजनीति में उतारा और इस जमात को उनके पदभार संभालने से पहले ही उनसे प्रबल प्रतिद्वंदिता मिलने का अंदेशा सताने लगा, उसने उक्त असुविधाजनक खोल उतार फेंका. सोशल मीडिया पर मायावती व ममता बनर्जी जैसी विपक्षी महिला नेताओं पर लगातार भद्दी व ओछी टिप्पणियां करते आ रहे इसके ‘सिपाहियों’ में प्रियंका के खिलाफ शाब्दिक हमलों में नीचे गिरते जाने की होड़-सी लग गई.

ये पंक्तियां लिखने तक इन सिपाहियों द्वारा कहीं प्रियंका के इंदिरा गांधी जैसे नैन-नख्शों पर लतीफे गढ़े जा रहे हैं, तो कहीं उन्हें कांग्रेस की दुकान की नई सेल्स गर्ल बताया जा रहा है, जिसे वह अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए ले आये हैं. उन्हें नरेन्द्र मोदी के 56 इंची सीने से कमतर ठहराने के लिए अलग-अलग नामों से एक ऐसी पोस्ट भी वायरल की जा रही है, जिसे प्रचारित करने वालों में जरा-सा भी सामाजिक या राजनीतिक विवेक होता तो वे शर्म से डूब मरते.

यकीनन, यह पोस्ट एक समय सोनिया गांधी के योगदान का मूल्यांकन करते हुए भाजपा नेता प्रमोद महाजन द्वारा उनके खिलाफ की गई बेहद घृणास्पद टिप्पणी को भी शर्मसार कर देती है और उसका उद्देश्य एकदम साफ है- प्रियंका की राजनीतिक योग्यताओं या अयोग्यताओं पर बात करने के बजाय सारी बहस उनके स्त्री शरीर पर केन्द्रित कर ऐसे हालात पैदा किये जायें कि कांग्रेस उन्हें लेकर शर्माने को मजबूर हो जाये.

कोई तो इस जमात से पूछे कि इस तरह वह कांग्रेस से सत्ता की प्रतिद्वंदिता कर रही है या महिला विरोध की? और क्या यही वह भारतीय संस्कृति है, संघ परिवार खुद को जिसका स्वघोषित रक्षक घोषित किये हुए है? निर्मला सीतारमण की मर्यादा की रक्षा के लिए उबल पड़ना और प्रियंका के मर्यादा हनन के वक्त खामोशी ओढ़ लेने का मतलब इतना कठिन नहीं है कि उसे समझा ही न जा सके, फिर भी संघ की ‘राष्ट्रसेविकाएं’ और ‘दुर्गा वाहिनियां’ ऐसे चुपचाप तमाशा देख रही हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो.

लेकिन प्रियंका तो फिर भी प्रियंका हैं, सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज, मेनका गांधी, निर्मला सीतारमण, हेमामालिनी, स्मृति ईरानी, किरण खेर और शायना एनसी जैसी भाजपाई ब्रिगेड की महिलाओं को तब भी महिला होने के नाते महिलाओं के सम्मान के लिए एकजुट होने का अपना कर्तव्य याद नहीं आता, जब भाजपा के नेता, यहां तक कि उनकी एक महिला विधायक भी मायावती की स्त्री अस्मिता का मजाक उड़ाती हैं.

भाजपा की ये महिला नेता यह भी याद नहीं कर पातीं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जो बड़े-बड़े नारे दिए थे, उनमें एक ‘बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार मोदी सरकार’ भी था. वरना वे जरूर पूछतीं कि नारी पर बहुत हुए इस वार के प्रतिकार का आखिर यह कैसा ढंग है कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के अभियान को इस तरह संचालित किया जाये कि बेटी दलित की हो या सोनिया की, विरोध में खड़ी नजर आये तो उसे दुश्मन की बेटी समझ लिया जाये? देश और समाज को ऐसी अंधता की ओर ले जाकर नया भारत कैसे बनाया जा सकता है, जिसे बनाने के दावे के प्रचार में नरेन्द्र मोदी सरकार अरबों-खरबों रुपये फूंके जा रही है?

कहां तो सत्ताधीशों से अपेक्षा थी कि वे उस बीमार मानसिकता का इलाज सुनिश्चित करेंगे जो ‘बहुत हुआ नारी पर वार’ के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार है और कहां वह दिमागी सफाई उनके स्वच्छता अभियान के एजेंडे पर ही नहीं है, जिसके बगैर आम तो आम मायावती, ममता और प्रियंका जैसी अपनी-अपनी पार्टियों में खास जगह रखने वाली महिलाएं भी ‘भक्तों’ के निशाने पर आने से नहीं बच पा रहीं.

प्रसंगवश, राजनीति को लम्बे अरसे तक हमारे देश तो क्या दुनिया भर में सिर्फ और सिर्फ पुरुषों का खेल माना जाता रहा है. अभी भी सारे तथाकथित सशक्तीकरणों के बावजूद इस खेल के मैदानों में डैने फैलाए बैठा पुरुषवर्चस्व उन्हें आम महिलाओं के लिए ‘खोलने’ को तैयार नहीं है. विकसित होती लोकतांत्रिक चेतनाओं के फलस्वरूप कुछ महिलाएं उसकी कई घोषित-अघोषित बन्दिशें तोड़कर या उन्हें चुनौती देती हुईं इस खेल में अपनी पारंगतता सिद्ध करने लगती हैं तो भी मर्दवादी उन पर ऐसे प्रहारों पर उतर आते हैं, जिन्हें ‘बेलो द बेल्ट’ कहा जाता है.

इतिहास गवाह है- युद्धों की सर्वाधिक कीमत आमतौर पर बच्चों के साथ महिलाएं ही चुकाती आई हैं- शरीर से भी और मन से भी. दुश्मन फौजें उन्हें सम्पत्ति के तौर पर ‘अपनी’ और ‘दुश्मन की’ जैसे खांचों में बांटकर उनकी ‘रक्षा’ करते या बेरहमी से रौंदते आये हैं. कई बार उनके द्वारा की जाने वाली यह ‘रक्षा’ भी रक्षित महिलाओं के प्रति सदाशयता के बजाय खुद की नाक बचाने से जुड़ी होती है.

बताना गैरज़रूरी है कि महिलाओं को अनेक बार अपने पुरुषों की नाक बचाने की एकतरफा ज़िम्मेदारी निभानी ही पड़ती है, तो कई बार उसे न बचा पाने के अनर्थ भी झेलने पड़ते हैं. दुर्भाग्य यह कि उनकी इस विवशता के खिलाफ जिस व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक और साथ ही राजनीति आन्दोलन की ज़रूरत है, वह कम से कम अपने देश में अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है.

इस आन्दोलन के उलट प्रतिगामी शक्तियां उन्हें ऐसी गुफाओं की ओर ले जाने के फेर में रहती हैं, जहां वे अंधेरों की शिकार होकर मुक्ति कामना से ही महरूम हो जायें. ऐसे में उनके लिहाज से आज का सबसे विकट सवाल यही है कि क्या वे आगामी लोकसभा चुनाव में भी, जिसे भाजपा पानीपत की तीसरी लड़ाई बता रही है और अन्य बहुत से लोग लोकतांत्रिक युद्ध की संज्ञा दे रहे हैं, कीमत चुकाने को ही अभिशप्त रहेंगी? इसी से जुड़े हुए दो और मौजूं सवाल हैं कि क्या यह इस तथ्य के मद्देनजर देश के लिए अशोभनीय नहीं कि किसी समाज की सभ्यता की परख उसमें महिलाओं की स्थिति से होती है? इस अशोभनीयता से निजात पानी है तो क्या हालात बदलने की शुरुआत आज और अभी से करने की जरूरत नहीं है? इस शुरुआत में तो पहले ही बहुत देर हो चुकी है.

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