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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतऋषि सुनक, साजिद जाविद और नादिम जहावी ब्रिटिश PM पद के एशियाई मूल के उम्मीदवार, क्या है इनकी मुश्किल

ऋषि सुनक, साजिद जाविद और नादिम जहावी ब्रिटिश PM पद के एशियाई मूल के उम्मीदवार, क्या है इनकी मुश्किल

क्या टोरीज़ किसी एशियाई को बोरिस जॉनसन के उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार कर सकते हैं? अंग्रेजी राष्ट्रवाद इसके आड़े आ रहा है.

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सोने और फर से सजे क्रिमसन वेलवेट वाले वस्त्र पहने हेनरी अष्टम अपने पोर्ट्रेट फ्रेम से एकदम अदृश्य ढंग से हमें घूर रहे होंगे. इंग्लैंड के बढ़ते विदेशी व्यापार ने ट्यूडर-कालीन लंदन को एकदम बदल दिया, जिसे बेल्जियम के कारीगरों और फ्लोरेंस के दिग्गजों का बोलबाला होने वाले समय के तौर पर याद किया जाता है. कुलीन वर्ग के प्रवासियों ने अपनी संपत्तियों के बलबूते पर सम्राट के साथ नजदीकी बढ़ा ली थी. इस सिलसिले में एक उदाहरण दिया जाता है, एक व्यापारी फ्रांसिस्को डी. बर्दी ने एक अंग्रेजी प्रतिस्पर्द्धी की पत्नी को अपने साथ रहने को राजी किया और फिर उसके पति को उसका खर्च उठाने से इनकार करने में गिरफ्तार करा दिया.

फिर, 1517 में मई दिवस की पूर्व संध्या पर अंग्रेजों का गुस्सा भड़क उठा. एक भाषणकर्ता ने गरजते हुए कहा, ‘अनजान और परदेसी लोग गरीब अनाथ बच्चों की रोटी छीन रहे हैं, तमाम शिल्पकारों की जीविका पर डाका डाल रहे हैं, और व्यापारियों के बीच भी घुसपैठ कर रखी है.’ हजारों लोगों की भीड़ ने अमीर आप्रवासी व्यापारियों और गरीब आप्रवासी श्रमिकों के घरों पर धावा बोल दिया.

पांच शताब्दियों के बाद एक बार फिर अंग्रेजी राष्ट्रवाद द्वीप की सबसे सशक्त राजनीतिक ताकत है. हालांकि, एक विरोधाभास भी है, वो यह कि बतौर प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का उत्तराधिकारी बनने के शीर्ष नौ दावेदारों में से तीन—ऋषि सुनक, साजिद जाविद और नादिम जहावी—एशियाई मूल के हैं.

उनकी दावेदारी का राजनीतिक कारण लगभग स्वतः स्पष्ट है. इन तीनों ने अपनी पेशेवर क्षमता के बलबूते खासी प्रतिष्ठा हासिल की है, पार्टी नेतृत्व का अहम समर्थन रखते है, और परंपरागत तौर पर श्रम-समर्थक एशियाई समुदायों के बीच समर्थन बढ़ाने में मददगार होंगे. हालांकि, एक समस्या है—नस्लवाद. हालांकि, कोई इतना अशिष्ट नहीं है कि इसे यह नाम दे.

अंग्रेजी राष्ट्रवाद का उदय

पांच दशक पहले राजनेता इनॉक पॉवेल ने एक भाषण दिया था जो अंग्रेजी राष्ट्रवाद का मूल पाठ बन गया है. 1968 में बर्मिंघम में कंजर्वेटिव पार्टी सदस्यों की एक बैठक में उन्होंने कहा, ‘एक रोमन की तरह मुझे लगता है कि टीबर नदी खून से भर गई है.’ उन्होंने दावा किया कि प्रवासी देश पर हावी हो रहे हैं. अश्वेत लोग श्वेत निवासियों को अपने ही घरों को छोड़ने को विवश कर रहे हैं. उन्होंने एक निर्वाचक को उद्धृत करते हुए कहा, ‘अगले 15-20 सालों में श्वेत लोगों की कमान अश्वेत लोगों के हाथ में होगी.’

1948 से लेबर और कंजर्वेटिव दोनों सरकारों ने आप्रवासन को तरजीह दी है, खासकर इस जरूरत को समझते हुए कि युद्ध के बाद पुनर्निर्माण के लिए श्रमिक आवश्यक थे, लेकिन पॉवेल के भाषण के समय तक समाज इस तरह के तनाव को पचा पाने में असमर्थ लग रहा था.

एडवर्ड हीथ, जो बाद में 1970-1974 तक प्रधानमंत्री रहे, ने पॉवेल को शैडो कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया था. हालांकि, सार्वजनिक प्रतिक्रिया अधिक स्पष्ट थी—ईस्ट एंड डॉक के श्रमिक और स्मिथफील्ड मीट पोर्टर पॉवेल के समर्थन में एकजुट हो गए और राजनेता को मिले 100,000 से अधिक पत्रों में से केवल 800 के करीब ऐसे थे जिसमें उनकी आलोचना की गई थी.

पॉवेल का भाषण भले ही एक नस्लभेदी दोषारोपण हो—लेकिन इसने संस्कृति और पहचान को लेकर गहरी चिंताओं को उजागर किया था. विद्वान पीटर ब्रुक का मानना है कि राजनेता की ऐतिहासिक कल्पनाओं को भारत के विभाजन ने आकार दिया था. ब्रुक लिखते हैं, ‘1946 में पॉवेल का सपना ब्रिटेन से स्व-सरकार को निकालकर राजशाही तक पहुंचाने के लिए आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण करना था, अर्थात् भावनात्मक स्तर पर राष्ट्रीय एकता कायम करना.’

विभाजन के बाद पॉवेल को आभास हो गया था कि जो राजनीतिक एकीकरण नहीं हो पाया वो सांप्रदायिक टकराव में बदल जाएगा—और यही उनके लिए एक वास्तविक खतरा था. पॉवेल के अपने निर्वाचन क्षेत्र में सिख बस चालकों की दाढ़ी बढ़ाने और पगड़ी पहनने की अनुमति देने की मांग को लेकर विवाद भड़का. एक स्कूल को लेकर विवाद उठा, जहां एक बच्ची अपनी कक्षा में अकेली श्वेत थी.

इतिहासकार आर.एम. लुमियांस्की की राय है कि सातवीं शताब्दी के बाद से ही एक अलग अंग्रेजी राष्ट्र के अस्तित्व की भावना धीरे-धीरे इंग्लैंड की राजनीति में अपनी जड़ें जमाने लगी थी—जिसकी अभिव्यक्ति सदियों बाद वैचारिक तौर पर अलग-अलग राय रखने वाले जॉर्ज ऑरवेल और ई.पी. थॉम्पसन जैसे लेखकों के लेखन में झलकी. उसी सांस्कृतिक संवेदनशीलता को अब धार दी जानी थी.


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ब्रेग्जिट का बुखार

यूरोपीय संघ के भीतर मुक्त आवाजाही के नतीजों के मद्देनजर बढ़ती आप्रवासी-विरोधी भावनाओं के बीच नई दक्षिणपंथी पार्टियों ने कंजर्वेटिव पार्टी को घेरा और अंग्रेजी संप्रभुता को बहाल करने की मांग की, जिसके बारे में उनका दावा था कि उसे नष्ट कर दिया गया है. आयरिश पत्रकार फ़िंटन ओ’टोल ने लिखा था, ‘इंग्लैंड एक राष्ट्रीय आजादी का आगाज कर रहा है, जिस पर शायद ही कभी चर्चा हुई हो, और अकेले ही इसके लिए तैयार है. यह इतिहास की सबसे अजीबो-गरीब राष्ट्रवादी क्रांतियों में से एक के कगार पर है.’

1970 से 1990 के दशक तक कंजर्वेटिव और लेबर पार्टियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को आगे बढ़ाया था, जिसका केंद्र लंदन शहर था. यह प्रोजेक्ट बड़े पैमाने पर समृद्धि लाने में सहायक बना, जैसा ट्यूडरकाल में था—लेकिन कुछ असमानता भी बढ़ी, और कई समुदायों के सांस्कृतिक बंधन टूटे. इस संकट का क्षेत्रीय स्वरूप अधिक स्पष्ट था. 1975 में भी जब ब्रिटेन ने यूरोपीय आर्थिक समुदाय में बने रहने को लेकर मतदान किया था तब इंग्लैंड में समर्थन अन्य जगहों की तुलना में अधिक मौन था. 2016 में ‘ब्रेक्सिट’ जनमत संग्रह के दौरान भी उत्तरी आयरलैंड और स्कॉटलैंड ने यूरोप के साथ रहने के पक्ष में मतदान किया. जबकि इंग्लैण्ड ने व्यापक स्तर पर ऐतिहासिक रिश्ते तोड़ने को चुना.

जनमत संग्रह से पहले ही, माइकल केनी ने पाया कि ‘जातीय-बहुसंख्यक राष्ट्रवाद की एक नई जनभावना उभर रही है जो आगे चलकर राजनीति, राजनेताओं और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मोहभंग के तौर पर गहरा सकती है.’

कंजर्वेटिव पार्टी के लिए यूरोप एक गंभीर चुनौती का प्रतिनिधित्व करता था. पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने यूरोपीय राजनीतिक एकीकरण को खारिज कर दिया था लेकिन आर्थिक संघ को अपनाया था. थैचर इस बात को अच्छी तरह समझती थीं कि यूरोप से छोड़ने से ब्रिटिश वित्त पूंजी और उद्योगों को नुकसान होगा. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि इससे महाद्वीपीय राजनीति को आकार देने में ब्रिटेन की आवाज खारिज हो जाएगी.

हालांकि, पार्टी अब अपने आर्थिक आधार—ब्रिटिश पूंजीवाद—और ब्रेक्सिट आंदोलन का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकलुभावनवाद के बीच किसी एक को चुनने के लिए बाध्य थी.

प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन पूरी निपुणता के साथ अंग्रेजी राष्ट्रवाद का उपयोग कर पार्टी की कमान संभालने में सफल हुए और उन्होंने कुलीनवादी हीथ और वैश्विकरणवादी थैचर की विरासत को पीछे छोड़ दिया. कई अंदरूनी सूत्रों ने कहा यह जानते हुए कि इससे आर्थिक संकट उत्पन्न होगा जॉनसन को जनमत संग्रह में हार की उम्मीद थी.

जॉनसन ने 2019 के चुनाव में भारी-भरकम बहुमत के साथ जीत हासिल ही शायद पद छोड़ने पर बाध्य होने के लिए की थी क्योंकि यूरोप के साथ व्यापारिक संबंध गंवाने के बाद आर्थिक संकट तो अवश्यंभावी माना जा रहा था.

नस्लवाद का सवाल

टिम बेल और अन्य लोगों का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि कंजर्वेटिव  के सामने एक अहम समस्या है—आव्रजन और नस्लवाद पर अपनी पूरी राजनीति चमकाने के बाद क्या ये नेता अब पलट सकते हैं? शिक्षित, आर्थिक रूप से सफल, और आव्रजन को लेकर वैचारिक तौर पर अपनी पार्टी के रुख से सहमत सुनक और जाविद जैसी हस्तियां अंग्रेजी जमात में शामिल नजर आती हैं. हालांकि, उनकी जाति उन्हें उन सामाजिक तनावों का कारण भी बनाती है जिनके कारण कंजर्वेटिव मतदाताओं ने यूरोप पर पार्टी के खिलाफ विद्रोह किया था.

ब्रिटेन की आर्थिक प्रतिस्पर्धात्मकता को बनाए रखने के लिए सरकार ने यूरोपीय संघ के बाहर से प्रवासियों को बढ़ाने की अनुमति दी, ताकि उन्हें वे नौकरियां दी जा सकें जो पहले यूरोपीय लोगों के पास थी. आपको यह समझने के लिए किसी खास कल्पना शक्ति की जरूरत नहीं है कि जो मतदाता किसी पोलिश या हंगेरियन श्रमिक को नहीं चाहते थे, वह भारतीयों या पाकिस्तानियों के बड़े समूहों का स्वागत कैसे करेंगे. कई लोगों के लिए कोई एशियाई प्रधानमंत्री चुना जाना एकदम नागवार कदम होगा.

बेशक, अंग्रेजी राष्ट्रवाद को ठोस नस्लवाद से जोड़कर भ्रमित नहीं होना चाहिए. कंजर्वेटिव एक लंबे समय से श्रमिक वर्ग के श्वेत मतदाताओं की भर्ती के लिए नस्लवाद का इस्तेमाल करते रहे हैं. यहां तक कि, जैसा ऑस्ट्रेलियाई राजनेता बॉब कैर ने अपने चर्चित दावे में कहा था, थैचर भी ‘निश्चित तौर पर नस्लवादी’ थीं.

सुनक और जाविद जैसे राजनेताओं का प्रभाव दर्शाता है कि हाल के दशकों में कंजर्वेटिव पार्टी ने कितना लंबा रास्ता तय कर लिया है. पार्टी खुद आश्चर्यजनक ढंग से, जैसा पॉवेल ने कभी कहा था, किसी अश्वेत को श्वेतों की कमान सौंपने की इच्छुक नजर आ रही है. हेनरी अष्टम की तरह, आधुनिक कंजर्वेटिव नेतृत्व का वैश्विक-दृष्टिकोण लंदन की जातीय विविधता वाली महानगरीय संस्कृति पर केंद्रित है—न कि अंग्रेजी गांवों और छोटे शहरों पर.

विद्वान कृष्ण कुमार ने एक विचारशील निबंध में लिखा है कि अंग्रेज बुद्धिजीवियों की नजर में कभी-कभी राष्ट्रवाद ‘किसी विदेशी घटना जैसा होता है, जिसकी शुरुआत कहीं और हुई और शुक्र है कि यह ब्रिटिश सीमाओं से दूर ही रहा.’ हालांकि, वह पूरी दृढ़ता के साथ तर्क देते हैं कि वास्तव में यह अस्तित्व में रहा है, जो राजशाही के प्रति आस्था, एक खास ग्रामीण व्यवस्था, साम्राज्यवादी सोच और श्वेत होने पर गर्व जैसी चीजों के बीच साफ परिलक्षित होता है.

ब्रिटिश रूढ़िवादिता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपने पार्टी नेतृत्व की संस्कृति और इस तथ्य के बीच सामंजस्य कैसे बैठाए कि उसकी चुनावी निर्भरता अंग्रेजी राष्ट्रवाद में निहित है. ऐसा करना कठिन होगा—और शायद असंभव भी.

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट कर करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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