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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतचावल, इलेक्ट्रिक वाहन और अब लैपटॉप- बाज़ारों में सरकारी दखलंदाजी एक नया नौकरशाही दुःस्वप्न है

चावल, इलेक्ट्रिक वाहन और अब लैपटॉप- बाज़ारों में सरकारी दखलंदाजी एक नया नौकरशाही दुःस्वप्न है

व्यापार नीति में सुधारों को उलटने की कोशिश अब तक शुल्कों में बढ़ोतरी तक सीमित रही थी, लेकिन अब सरकार ने आगे बढ़कर ठोस प्रतिबंध लागू कर दिए हैं जो लाइसेंस-परमिट राज लाने वाले सोच की ओर वापसी है.

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लगता है, बुरे विचारों का भी एक मौसम होता है. सरकार के सबसे ताजा फैसले के तहत अब पर्सनल कंप्यूटर, लैपटॉप, नोटबुक आदि के आयात के लिए लाइसेंस लेना पड़ेगा. आयात के लिए लाइसेंस लेने की प्रथा तीन दशक पहले खत्म कर दी गई थी. इसके बाद यह पहला मौका है जब आयात पर इस तरह का प्रतिबंध लगाया गया है. 

व्यापार नीति में सुधारों को उलटने की कोशिश अब तक शुल्कों में बढ़ोतरी तक सीमित रही थी, और इस तरह पांच साल पहले किए गए इस वादे को खारिज कर दिया गया था कि शुल्कों को कम करके दक्षिण-पूर्व एशिया में लागू दरों के बराबर लाया जाएगा. अब सरकार ने इससे आगे बढ़कर ठोस प्रतिबंधों को लागू कर दिया है. लक्ष्य ऊंचे हैं— राष्ट्रीय सुरक्षा, और आयात की जाने वाली चीजों को देश में ही बनाना. लेकिन भारत कभी जिस आर्थिक नरक में था उसका रास्ता भी तो अच्छे इरादों से ही तैयार हुआ था. 

महत्वपूर्ण बात यह है कि आर्थिक नीति (मसलन शुल्कों) पर निर्भरता ने उन प्रशासनिक उपायों के लिए रास्ता बनाया है, जो लाइसेंस-परमिट राज स्थापित करने वाली मानसिकता की देन हैं. 

इसका एक और ताजा उदाहरण है गैर-बासमती चावल के निर्यात पर रोक, हालांकि देश के पास अपनी जरूरत से ज्यादा यह चावल भंडारों में पड़ा है. लेकिन इस रोक के मकसद भी निर्विवाद हैं— महंगाई पर लगाम लगाना और अभाव से बचना. इसके लिए सरकारी भंडारों से ज्यादा चावल जारी किया जा सकता था. लेकिन प्रशासनिक उपाय निर्यात पर रोक लगाने का किया गया. इसके चलते चावल के वैश्विक बाजार में एक भरोसेमंद सप्लायर के रूप में भारत की अंतरराष्ट्रीय साख को झटका लगा. 

बाज़ारों में, खासकर जटिल नियमों के मद्देनजर दखल देने की सरकार की कोशिशों की एक विशेषता यह रही है कि उसके कारण अकसर विवाद पैदा होता है क्योंकि कंपनियां अपना खेल करना चाहती हैं. इसका नतीजा यह होता है कि नीतिगत माहौल खराब हो जाता है. 

बिजली वाले वाहनों के निर्माण को प्रोत्साहन देने का इतिहास इसी दिशा में आगे बढ़ा है, जबकि सरकार ने कई कंपनियों के फर्जी दावों की जांच शुरू की है. उसने प्रोत्साहन को 40 फीसदी से घटाकर 15 फीसदी कर दिया है. इससे यह सवाल उभरा है कि क्या 40 फीसदी वाला शुरुआती प्रोत्साहन क्या ज्यादा नहीं था या जरूरी भी था या नहीं. इस तरह के सवाल खुद इस उद्योग के अंदर भी उभरे. 

प्रोत्साहन में कटौती का फौरी असर यह हुआ है कि कीमतों के मामले में झटका लगा है और बिजली वाले दोपहियों की बिक्री में भारी गिरावट आई है. 

अनुपात और उपयुक्तता का सवाल माइक्रोन द्वारा गुजरात के एक कारखाने में चिप एसेंबलिंग तथा परीक्षण (चिप निर्माण से अलग) में प्रस्तावित निवेश को लेकर भी उभरता है. सरकारी नीति 50 फीसदी की पूंजीगत सब्सीडी की इजाजत देती है, जबकि गुजरात सरकार ने 20 फीसदी अतिरिक्त देने का वादा किया है. यानी कुल 2.75 अरब डॉलर के निवेश में से 2 अरब डॉलर भारतीय करदाताओं की जेब से लिया जाएगा. पूरी तरह विदेशी स्वामित्व वाले उपक्रम के लिए इसे किस तर्क और हिसाब से जायज ठहराया जा सकता है?


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कभी-कभी घोषणा पहले कर दी जाती है और बाजार के भागीदारों से विचार-विमर्श बाद में किया जाता है. क्रेडिट कार्ड के जरिए विदेश में किए गए खर्च पर टैक्स लगाने की घोषणा ऐसी नीति-निर्माण प्रक्रिया का उदाहरण है जिसमें सोच-विचार कार्रवाई से पहले न करके बाद में किया जाता है. 

इस तरह का टैक्स (जो वाकई टैक्स नहीं है बल्कि जिसे टैक्स रिटर्न भरने के बाद वापस कर दिया जाएगा) वसूलने में व्यावहारिक कठिनाई को आसानी से समझा जा सकता था अगर इसकी घोषणा से पहले बैंकों और क्रेडिट कार्ड कंपनियों से विचर-विमर्श किया जाता. 

नतीजतन, टैक्स कब से वसूला जाएगा यह इस तारीख का फैसला टाला जाता रहा है और नीति में बार-बार संशोधनों की घोषणा की जाती रही है. खर्चों के मकसद और अनुपात के आधार पर तीन तरह के टैक्स लागू किए जाने हैं. इसे कार्रवाई संबंधी दुःस्वप्न ही कहा जा सकता है, जो भारत की ही खासियत है और जिसका कोई मकसद नहीं है. 

1991 में बाजार-केंद्रित जो सुधार किए गए और उनका नेतृत्व सरकार में कार्यरत अर्थशास्त्रियों ने किया. उनका प्रभाव भी फीका पड़ा है और दुनिया के लिए दरवाजे खोलने की इच्छाशक्ति भी कमजोर पड़ी है. व्यवस्था नौकरशाहों के हाथों में है. सो, देश के 86 फीसदी मुद्रा भंडार को रातोरात रद्द करने के फैसले को कोई समझदार अर्थशास्त्री समर्थन नहीं देता. 

वक़्त आ गया है कि नीति-निर्माण प्रक्रिया में अर्थशास्त्र को, और समय से पहले विचार-विमर्श की प्रक्रिया को उपयुक्त महत्व दिया जाए.

(व्यक्त विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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