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Thursday, 21 November, 2024
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असमानता के ज्वालामुखी से निपटने के लिए जरूरी है आरक्षण

अब जब असमानता बढ़ रही है तो विशेष अवसर का सिद्धांत जिसे भारत में आरक्षण कहा जाता है, को और मज़बूत करने की ज़रूरत है, जिस पर हाल फ़िलहाल में सबसे ज़्यादा हमला हुआ है.

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न्यूनतम आय योजना (न्याय) की घोषणा करके कांग्रेस ने भारत में अमीरों और ग़रीबों के बीच तेज़ी से बढ़ रही असमानता की खाई को चुनावी बहस में शामिल करने की कोशिश की है, जो एक सराहनीय क़दम है. समाजवादी पार्टी ने भी अपने चुनावी घोषणा-पत्र में इस मुद्दे को जितनी शिद्दत से शामिल किया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है.

दरअसल इस समय बढ़ती आर्थिक असमानता पर दुनिया भर में शोध चल रहे हैं. भारत पर हुआ शोध बताता है कि पिछले तीन दशक से देश के 10 प्रतिशत लोग, जो कि मूलतः उच्च जाति से हैं, की आय और सम्पत्ति में अकूत इज़ाफ़ा हुआ है, जबकि शेष 90 प्रतिशत लोगों की आय में कोई ख़ास इज़ाफ़ा नहीं हुआ है. इस 90 प्रतिशत में भी नीचे के 50 प्रतिशत लोग जो कि मुख्यतः अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समाज से हैं, की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है.

कुल मिलाकर भारत में बढ़ रही आर्थिक असमानता का जातीय चरित्र भी है, जिस पर अगर समय रहते कार्रवाई नहीं हुई तो भविष्य में ख़तरनाक परिणाम हो सकते है.

अब सवाल उठता है कि बढ़ती असमानता का समाधान क्या है, जिसको भारत में लागू किया जा सके? बढ़ती असमानता के समाधान पर दुनियाभर में जो बहस चल रही है, उसके आधार पर इसके दो तरीक़े के समाधान हैं- नीतिगत और सैद्धान्तिक.

नीतिगत समाधान

बढ़ती आर्थिक असमानता और उससे पैदा हो रही ग़रीबी को मिटाने के लिए भारत के चुनाव में इस समय जो बहस चल रही है, वह मुख्यतः नीतियों से सम्बंधित है, जिनको आने वाली संभावित सरकारें लागू करने का वादा कर रही हैं. यहां नीतिगत फ़ैसले का पहले मुख्य मतलब यह है कि आने वाली सरकार धन और संपदा को ख़र्च करने में अमीर लोगों के बजाय ग़रीबों, वंचितों और असहायों को वरीयता देगी. इन तबकों के लिए सरकारें विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पेंशन, भोजन, आवास, रोज़गार आदि के जरिए ख़र्च करती हैं. इसके अलावा सरकारें कृषि, खाद, पानी, बिजली आदि पर सब्सिडी देकर भी इन्हें राहत देती हैं.

ऐसी सभी योजनओं को चलाने के लिए सरकारों को धन की ज़रूरत होती है, जिसके लिए वो विभिन्न प्रकार के टैक्स लगाती हैं, लोन लेती हैं, या फिर देश की कोई धन-सम्पदा बेचती हैं. आजकल सरकारें सूचना और तकनीकी क्रांति की वजह से पैदा हुए संसाधन जैसे स्पेक्ट्रम वग़ैरह को बेचकर भी काफ़ी संसाधन जुटा लेती हैं. चूंकि पिछले तीन दशक से सरकार की नीतियों की वजह से देश में एक सुपर अमीर वर्ग पैदा हो गया, इसलिए सरकार उन पर कुछ ज़्यादा टैक्स लगा सकती है, जैसा कि अखिलेश यादव कह रहे हैं. इस सुपर अमीर वर्ग को टॉप 10 प्रतिशत या फिर टॉप का एक प्रतिशत भी कहा जा रहा है.

अगर कोई सरकार ग़रीबों, वंचितों और असहायों के लिए बनी सेवाओं में कटौती करती है, तो इसका मतलब साफ़ होता है कि वह अपने ख़र्चों में कटौती कर रही है. ऐसे समय में यह देखना ज़रूरी हो जाता है कि कटौती से सरकार जो पैसा बचा रही है, वो किसे दे रही है? ज़्यादातर समय ऐसा देखा जाता है कि जब सरकारें अपनी सेवाओं में कटौती करती हैं तो वह अमीर लोगों के हित में होता है. इसलिए सरकारों की ऐसी नीतियां तेज़ी से असमानता बढ़ाती है.

अगर इन सेवाओं पर कोई सरकार अपना ख़र्च बढ़ाने का वादा करती है तो उसका साफ़ मतलब होता है कि वह असमानता को कम करने जा रही है. असमानता के इस तरह के समाधान को नीतिगत समाधान कहा जाता है. आज के परिप्रेक्ष्य में बढ़ती असमानता का नीतिगत समाधान ज़रूरी है, लेकिन काफ़ी नहीं है. इसके लिए हमें सैद्धांतिक समाधान की तरफ़ देखना होगा.

सैद्धांतिक हल

आधुनिक लोकतंत्र में संसाधन, सेवाएं, अवसरों का वितरण कुछ सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है, जिससे समतामूलक समाज का निर्माण हो सके. ऐसे में जब दुनियाभर में असमानता बढ़ रही है तो उन सैद्धांतिक समाधानों पर शोध होना शुरू हो गया है, जिनको आधुनिक लोकतंत्र ने धन, संपदा, सेवा और अवसर के बंटवारे के लिए अपनाया है. ऐसे समाधानों में सबसे प्रमुख है ‘अवसर की समानता की अवधारणा’ जिसको आधुनिक लोकतंत्र की नींव समझा जाता है. जब असमानता बढ़ रही है तो यह कहा जा रहा है कि दरअसल यह समान अवसर की अवधारणा की असफलता है.

प्रसिद्ध फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वे न्यूनतम आय की न्याय योजना बनाने में कांग्रेस की मदद कर रहे हैं, ने अपनी किताब कैपिटल इन ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी में फ्रांस और अमेरिका के बीच तुलनात्मक अध्ययन करके यह साबित करने की कोशिश की है कि यह अवधारणा सभी देशों में ठीक ढंग से काम नहीं कर रही है. उनका सुझाव है कि आर्थिक असमानता को कम करने के लिए पुनर्वितरण के सिद्धान्त की तरफ वापस जाना चाहिए.

विदित हो कि भारत में संविधान निर्माण के समय इस बात पर काफी मंथन हुआ था कि क्या समान अवसर की अवधारणा को ही आने वाली सरकारों के लिए नीति निर्धारण का सबसे कारगर हथियार बनाया जाये. तब भी हमारे संविधान सभा के कुछ सदस्य खासकर समाजवादियों ने इस सिद्धांत की प्रभावशीलता पर आशंका जताते हुए आपत्ति जताई थी. जिसके बाद संविधान में अनुच्छेद-16 में अवसर की समानता को रखने के साथ-साथ विशेष अवसर का सिद्धांत भी जोड़ा गया था.

अब जब असमानता बढ़ रही है तो विशेष अवसर का सिद्धांत जिसे भारत में आरक्षण कहा जाता है, को और मज़बूत करने की ज़रूरत आ गयी है, जिस पर हाल फ़िलहाल में सबसे ज़्यादा हमला हुआ है. विशेष अवसर के सिद्धांत को न्यायपालिका में भी सख़्ती से लागू कराए जाने की ज़रूरत है, क्योंकि न्यायपालिका के निर्णय भी असमानता बढ़ाने में काफ़ी अहम भूमिका अदा करते हैं. कार्पोरेट घरानों से जुड़े आर्थिक मामलों में न्यायपालिका के निर्णय देश में आर्थिक असमानता बढ़ाने और घटाने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं.

जिस तरह इस समय देश की उच्च न्यायपालिका में कुछ एक परिवारों से ही जज नियुक्त हो रहे हैं वह चिंता का विषय है. इसके अलावा लम्बे समय तक बिजनेस घरानों के पारिवारिक वक़ील के तौर पर काम किए लोगों का जज नियुक्त होना भी बढ़ती असमानता की दृष्टि से चिंता का विषय होना चाहिए.

असमानता को कम करने का जो सबसे मज़बूत सिद्धांत है, उसे पुनर्वितरण कहते हैं. असमानता कम करने में समान अवसर की अवधारणा की सीमित असर को देखते हुए इस बात पर बहस चल रही है कि पुनर्वितरण की अवधारणा पर फ़ोकस किया जाए.

(लेखक लन्दन विश्वविद्यालय से भारत में बढ़ती आर्थिक असमानता पर पीएचडी कर रहे हैं)

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