14 वर्षीय जाकिर (बदला हुआ नाम) को तीन साल पहले सूरत की जरी फैक्ट्री से एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) ने छापामार कार्यवाही कर छुड़वाया था. राजस्थान के जोधपुर के छोटे से गांव में रहने वाले जाकिर सहित चालीस और बच्चे एक छोटे से कमरे में सुबह 7 बजे से लेकर रोज रात 1 बजे तक महंगी साड़ियों और कपड़ों में जरी लगाने का काम किया करते थे. खाने में दो वक्त दाल चावल के अलावा कुछ नहीं मिलता था. वेतन के रूप में महीने का सिर्फ दो हजार रुपये.
एनजीओ और सरकारी संस्थाओं के संयुक्त प्रयास से ये सभी बच्चे बंधुआ और बाल मजदूरी के बेड़ियों से मुक्त हुए पर दुखद तथ्य यह है कि जाकिर को छह महीने बाद अपने घर की आजीविका चलाने के लिए मुंबई की एक और जरी फैक्ट्री में जाना पड़ा. वजह यह थी कि उसकी मुक्ति के बाद पुनर्वास राशि के रूप में जो सहायता उसे और उसके परिवार को मिलनी चाहिए थी वह मिली ही नहीं.
कमोबेश यही स्थिति बंधुआ और बाल मजदूरी से मुक्त करवाए गए देश के हजारों बच्चों की है.
बाल श्रमिकों की मुक्ति कार्यवाही तो एनजीओ, श्रम विभाग एवं पुलिस द्वारा अक्सर की जाती रहती है पर उनके पुनर्वास के प्रयास और उसका फॉलो-अप करने में न तो एनजीओ की रुचि रहती है और न ही श्रम विभाग की.
वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बाल श्रम के मामले में एम सी मेहता बनाम तमिलनाडु सरकार के मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया गया था. इसके अनुसार बाल श्रम करवाने वाले नियोक्ता से 20 हजार रूपये की जुर्माना राशि वसूल कर और 5 हजार प्रति बाल मजदूर सरकार द्वारा अपनी तरफ से जोड़कर बाल श्रमिक कल्याण एवं पुनर्वास कोष बनाने का आदेश दिया गया था. साथ ही यह भी आदेशित किया गया कि मुक्त हुए उस बच्चे के कल्याण एवं पुनर्वास में इस राशि को खर्च किया जाये.
इस निर्णय के बाद प्रत्येक जिले में इस कोष को बनाया भी गया और मालिकों से जुर्माना राशि वसूल कर सरकार ने अपना हिस्सा भी उसमें जोड़ा. पर इस राशि को मुक्त करवाए गए बच्चे के कल्याण और पुनर्वास पर खर्च करने के बजाय ऐसे ही कोष में पड़े रहने दिया गया.
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बाल मजदूरी की भयावह स्थिति
यदि राजस्थान की ही बात करें तो सूचना अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार जहां अजमेर में इस कोष में 23 लाख रुपये की राशि जमा है वहीं जयपुर में 17 लाख और उदयपुर में 9 लाख. सबसे अधिक 30 लाख रूपये भीलवाड़ा बाल श्रमिक कल्याण एवं पुनर्वास कोष में जमा है. पूरे प्रदेश में एक करोड़ रूपये से अधिक की राशि इस कोष में जमा है.
लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि पिछले 26 सालों में इस राशि में से एक भी रुपया किसी बाल श्रमिक के कल्याण अथवा पुनर्वास सहायता के लिए किसी भी जिले में खर्च तक नहीं किया गया.
एक तरफ जाकिर जैसे हजारों बच्चों को बाल श्रम से मुक्त करवाने के लिए सरकार और स्वयंसेवी संगठन कई अभियान चलाते हैं पर वहीं दूसरी ओर इन बच्चों की मुक्ति के बाद इनके कल्याण और पुनर्वास के लिए लाखों रुपए कोष में पड़े होने के बावजूद भी ऐसे मुक्त बाल श्रमिक पुनः उसी बाल मजदूरी की आग में झुलसने को मजबूर होते रहते हैं.
यह स्थिति केवल राजस्थान की ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में बाल श्रमिक कल्याण एवं पुनर्वास कोष का भी यही हाल है. उत्तर प्रदेश में पिछले 26 सालों में इस कोष में जमा 5 करोड़ रूपये में से महज 2 प्रतिशत राशि ही मुक्त बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिए खर्च की गई.
वर्ष 2016 में बाल श्रम कानून में संशोधन कर इसे बाल एवं किशोर श्रम (विनियमन एवं प्रतिषेध) अधिनियम कर दिया गया. संशोधन के बाद जहां 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का काम करना पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया गया वहीं 14 से 18 वर्ष की उम्र के किशोरों का खतरनाक उद्योगों एवं प्रक्रियाओं में काम करना पूरी तरह मना हो गया.
साथ ही बाल श्रमिकों के कल्याण एवं पुनर्वास के लिए वसूल की जाने वाली जुर्माना राशि को भी 20 हजार से बढ़ाकर 50 हजार प्रति बाल मजदूर कर दिया गया. पर जब तक इस राशि को वसूल कर मुक्त हुए बाल श्रमिक के कल्याण अथवा पुनर्वास में लगाया नहीं जाता तब तक इस कोष का कोई फायदा नहीं है.
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सामाजिक सुरक्षा के बिना बाल मजदूरी खत्म करना मुश्किल
18 मई 2022 को अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) एवं यूनिसेफ ने मिलकर बाल मजदूरी के खात्मे में सामाजिक संरक्षण की भूमिका नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें यह दर्शाया गया है कि दुनियाभर में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन से किस प्रकार बाल श्रम को कम करने में सहायता मिल सकती है.
इस बार 12 जून को पूरे विश्व में मनाये जाने वाले बाल श्रम विरोधी विश्व दिवस का विषय भी यही है- बाल मजदूरी के खात्मे के लिए सबको सामाजिक संरक्षण.
यदि इस रिपोर्ट पर गौर करें तो दुनियाभर में सिर्फ 26.4 प्रतिशत बच्चों को ही सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षण योजनाओं का फायदा मिल रहा है. जबकि 0 से 14 वर्ष के 73.6 प्रतिशत बच्चे अब भी इन योजनाओं की पहुंच से दूर हैं जिनमें मजदूरी करने को विवश परिवारों के बच्चे भी शामिल हैं.
यदि एशिया और पैसिफिक देशों की बात करें तो यहां सिर्फ 18 प्रतिशत बच्चे ही इन योजनाओं का लाभ ले पा रहे हैं और अफ्रीका के देशों में सिर्फ 12.6 प्रतिशत बच्चे.
दुनिया के जिन देशों में जहां परिवारों को विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत नकद सहायता लगातार दी जा रही है और परिवार में बच्चों की संख्या कम है, वहां बाल श्रमिकों की संख्या कम है.
सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की बेहतर कवरेज के साथ-साथ बाल मजदूरी रोकने के लिए बने कानून एवं सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक बच्चों की पहुंच भी बाल मजदूरी के खात्मे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है.
खैर, महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सहित दुनियाभर ने पिछले दो सालों में कोविड महामारी के दंश को झेला है और इसका प्रतिकूल असर लोगों की आर्थिक स्थिति पर भी पड़ा है. आईएलओ ने पिछले साल जारी एक रपट में कहा था कि कोविड के असर के चलते परिवारों की आर्थिक हालात खराब होने से दुनियाभर में 89 लाख और बच्चे वर्ष 2022 के अंत तक बाल मजदूरी करने को बाध्य हो सकते हैं.
सतत विकास लक्ष्यों की बात करें तो पूरी दुनिया ने यह तय किया था कि वर्ष 2025 तक बाल मजदूरी का खात्मा सुनिश्चित किया जायेगा. पर अब यह लक्ष्य हासिल करना भारत के संदर्भ में तो मुश्किल लगता है. खासकर जब राज्य सरकारें मुक्त हुए बाल श्रमिकों के पुनर्वास में इस तरह का रवैया अख्तियार किये हुए हों.
मुक्त करवाए गए बाल श्रमिक फिर से अपना बचपन बेचने को मजबूर न हों इसके लिए जरूरी है कि जिला स्तर पर जिला बल संरक्षण इकाई और श्रम विभाग बेहतर समन्वय के साथ काम करें. साथ ही मुक्त हुए बाल श्रमिक को पुनर्वास सहायता तत्काल मुहैया करवा उसके परिवार को सामाजिक सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं से जोड़ने की पहल भी प्राथमिकता के आधार पर की जाए.
(लेखक बाल अधिकारों के क्षेत्र में पिछले दो दशकों से सक्रिय हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)
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