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Thursday, 21 November, 2024
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कोरोनावायरस के दौर में ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले की याद

उस दौर में महाराष्ट्र में पड़े अकाल और प्लेग जैसी महामारी में ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले दंपति की भूमिका को, आज याद करना अत्यन्त जरूरी है, जब पूरा विश्व कोरोना महामारी का सामना कर रहा है.

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गहन मानवीय संवेदना और न्यायपूर्ण विश्वदृष्टिकोण फुले दंपति – ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले – को उन्नींसवी सदी के भारतीय इतिहास को मोड़ देने वाली अग्रणी शख्सियतों में शामिल कर देता है. यह दंपति जहां एक ओर आर्य-ब्राह्मण श्रेष्ठता के वर्चस्व की वैचारिकी को चुनौती देते हुए वर्ण-जाति व्यवस्था एवं पितृसत्ता के समूलनाश के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे, वहीं मानव जाति पर आपदा आने की स्थिति में उन्होंने मानव-मात्र की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया.

उस दौर में महाराष्ट्र में पड़े अकाल और प्लेग जैसी महामारी में फुले दंपति की भूमिका को, आज याद करना अत्यन्त जरूरी है, जब पूरा विश्व कोरोना महामारी का सामना कर रहा है. 15 लाख से ज्यादा लोग इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं और करोड़ों लोगों के सामने रोजी-रोटी का गंभीर संकट खड़ा हो गया है.

अकाल के दौरान मानवता की सेवा

ऐसी ही तीन बड़ी मानवीय विपदा फुले दंपति के जीवन काल में भी घटित हुईं. 1876-77 में महाराष्ट्र में भयानक अकाल पड़ा. इस अकाल की भयावहता का वर्णन सावित्रीबाई फुले ज्योतिबा फुले को लिखे पत्र में इन शब्दों में करती हैं – ‘जिधर देखो पशु-पक्षी अन्न व पानी के बिना तड़प-तड़पकर मर रहे हैं. उनकी लाशें चारों तरफ फैली हुई हैं. इंसानों के जिंदा रहने के लिए अनाज नहीं है. पशुओं के लिए चारा और पानी नहीं है. इस भयंकर आपदा से बचने के लिए गांव के गांव पलायन कर रहे हैं. कुछ मां-बाप अपने जिगर के टुकड़े बच्चे व जवान बेटियों को बेचकर, अपने लिए दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए मजबूर हो गए हैं.’


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इस स्थिति में फुले दंपति द्वारा स्थापित ‘सत्यशोधक समाज’ अकाल पीड़ितों को राहत पहुंचाने में लग गया. सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले दोनों अलग-अलग जगहों पर पीड़ितों की मदद कर रहे थे. इस अकाल के दौरान बड़ी संख्या में बच्चे अनाथ हो गए थे, जिनकी शिक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं था. फुले दंपति ने अकाल में अनाथ हुए बच्चों के लिए 52 स्कूल खोले, जिसमें बच्चों के रहने, खाने-पीने और पढ़ने का इंतज़ाम था.

फुले दंपति के नेतृत्व में ‘सत्यशोधक समाज’ ने अपनी पहल पर लोगों को अनाज एवं तार भोजन उपलब्ध कराने के लिए ‘अकाल निवारण समिति’ का गठन किया. यह समिति लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करने के साथ-साथ अकाल पीड़ितों को इस कठिन स्थिति का सामना करने के लिए मानसिक तौर तैयार करने में भी लगी रही. समिति का मानना था कि ऐसे समय में लोगों का हौसला बनाए रखना जरूरी है. सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता गांवों का दौरा करते थे. विभिन्न स्रोतों से अनाज का इंतजाम कर लोगों के खाने की व्यवस्था करते और उन्हें कैसे इस अकाल का सामना करना है, इसके लिए जानकारियां देते.

अकाल के दौरान सत्यशोधक समाज के कार्यों की भूरी-भूरी प्रशंसा उस समय के अंग्रेज अधिकारियों ने भी की. इस संदर्भ में अपने उपरोक्त पत्र में सावित्रीबाई फुले लिखती हैं- ‘कलेक्टर ने कहा कि आप सत्यशोधक समाज के लोग लोकहित का कल्याणकारी कार्य कर रहे हैं. आपके इस नेक काम में मेरी ओर से हमेशा सहायता मिलती रहेगी, आपके इस दिव्य सेवा कार्य में मैं आपके कुछ काम आ सकूं तो मुझे बेझिझक बताएं, मैं इस कार्य में आपकी मदद करता रहूंगा.’

28 नवंबर 1890 को ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद सावित्रिबाई फुले ने मानवीय त्रासदी के समय मनुष्य मात्र की सेवा करने की भावना एवं संकल्प को जारी रखा. 1896 में एक बार फिर पुणे और आस-पास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा. सावित्रीबाई फुले ने अकाल पीड़ितों को मदद पहुंचाने के लिए दिन-रात एक कर दिया. उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह अकाल पीड़ितों को बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाए. इस समय सत्यशोधक समाज का नेतृत्व सावित्रीबाई फुले कर रही थीं. उन्होंने सत्यशोधक समाज के हजारों कार्यकर्ताओं को अकाल पीड़ितों की मदद करने के काम में लगा दिया और खुद भी लोगों को मदद पहुंचाने के काम में पूरी तरह जुट गईं.

प्लेग पीड़ितों के इलाज के दौरान प्राणों की आहुति

1897 में मुंबई, पुणे और उसके आस-पास के इलाकों में प्लेग फैल गया. लाशों के ढेर लग गए. घर-परिवार के लोग भी बीमार लोगों को छोड़कर भागने लगे. लाशों का अंतिम संस्कार करने वाले भी नहीं मिल रहे थे. ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने अपने डाक्टर बेटे यशवंत के सहयोग से लोगों के इलाज का इंतजाम किया. यशवंत ने पुणे में मरीजों के लिए एक क्लिनिक खोला, जहां प्लेग के पीड़ितों का इलाज किया जाता था. प्लेग के शिकार एक ऐसे ही मरीज को इलाज के लिए लाते समय सावित्रीबाई खुद भी प्लेग का शिकार हो गईं और 10 मार्च, 1897 को उनकी मृत्यु हो गई.

सावित्रीबाई फुले ने मानव-मात्र के लिए जीवन जीया, तो जरूरत पड़ी तो मृत्यु का भी वरण किया. यशवंत फुले इसके बाद सेना में नौकरी करने चले गए. 1905 में पुणे में फिर से प्लेग फैला तो वे इलाज करने के लिए पुणे लौटे और मरीजो से उनको संक्रमण हो गया और 1905 में उनका निधन हो गया.


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फुले परिवार के योगदान को याद करते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 2009 में पुणे से कुछ दूर नायगांव में 14 भित्ती चित्रों के जरिए उन घटनाओं को स्थायी तौर पर दर्ज किया, जो इस परिवार ने प्लेग पीड़ितों की सेवा के लिए किया. उनका उद्घाटन तत्कालीन उप मुख्यमंत्री छगन भुजबल ने किया था.

बहुजन-श्रमण परंपरा के केंद्र में गहन मानवीय संवेदना और मानव-मात्र के प्रति करूणा रही है, जिसकी आधुनिक काल में मिसाल फुले-दंपति ने कायम की. आज जब दुनिया महामारी और मानवीय त्रासदी से जूझ रही है, ऐसे समय में फुले दंपति को याद करना और मानवीय आपदा के समय में उनके जीवन एवं कार्यों से प्रेरणा लेकर मानव जाति को इससे उबारने में मदद पहुंचाकर ही, हम उनकी विरासत को आगे बढ़ा सकते हैं.

(लेखक हिंदी साहित्य में पीएचडी हैं और फ़ॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)

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