इमारत-ए-शरीयत, जो भारतीय मुसलमानों के एक बड़े वर्ग पर गहरा सामाजिक और धार्मिक असर रखती है, उसने 29 जून को पटना के गांधी मैदान में बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित किया. ‘वक्फ बचाओ, संविधान बचाओ’ नाम से हुई इस रैली ने जल्दी ही जोर पकड़ लिया. बिहार और आसपास के राज्यों से आए हजारों मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने वक्फ एक्ट में संशोधन को संविधानिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए जोरदार विरोध जताया. यह सिर्फ एक विरोध नहीं था, बल्कि एक सख्त ऐलान था उस कानून के खिलाफ, जिसे बुनियादी आज़ादी पर हमला माना जा रहा है—वो आज़ादी, जिसे बहुत से लोग हर हाल में बचाए रखने की बात करते हैं.
रैली में वक्ताओं ने कहा कि वक्फ संशोधन कानून न केवल इस्लाम में वक्फ (धार्मिक दान संपत्ति) की बुनियाद को कुचलता है, बल्कि धार्मिक स्वायत्तता की जड़ों पर सीधा हमला है. इमारत-ए-शरीयत के प्रमुख फैसल वली रहमानी ने साफ कहा — यह कानून खतरनाक हस्तक्षेप है, जो समुदाय के अपने मामलों को खुद संभालने के अधिकार को खतरे में डालता है. उन्होंने कहा, “यह सम्मेलन एक शांतिपूर्ण, संविधानिक मांग है कि इस काले कानून को वापस लिया जाए.” उनकी बातें उन लोगों के लिए चुनौती बनकर गूंजती रहीं, जो इस तरह के कानून को बिना रोकटोक के जारी रखने देना चाहते हैं.
मैं पूरी तरह मानता हूं कि भारत का हर नागरिक स्वतंत्र रूप से बोलने और शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करने का अधिकार रखता है, जैसा कि हमारा संविधान भी गारंटी देता है, लेकिन धार्मिक स्वायत्तता पर चल रही यह बहस इतनी सीधी और आसान नहीं है, जितनी दिखती है. असल में यह धार्मिक स्वायत्तता व्यक्तिगत धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है — यह सामूहिक और संगठित नियंत्रण की बात है.
यह सोच कि कोई धार्मिक समूह अपने मामलों को पूरी तरह अपने हिसाब से चलाए, कई मुश्किल सवाल खड़े करती है. पहला सवाल—क्या इसका मतलब यह है कि ऐसा कोई समूह खुद को बाकी देश से अलग मानता है? दूसरा सवाल—क्या इससे यह जोखिम नहीं बढ़ जाता कि यह समुदाय खुद को बाकी देश की मुख्यधारा से अलग दिखाए, जैसे वह राष्ट्रीय ताने-बाने से बाहर हो? यह सवाल जितने साधारण लगते हैं, असल में उतने ही गहरे हैं.
जरा सोचिए, अगर हर समुदाय या जनजाति यह कहने लगे कि सरकार को उनके मामलों में कोई दखल देने का हक नहीं है और वो अपने रीति-रिवाज या परंपराओं को कानून और मानवाधिकारों से ऊपर मानने लगे? कल्पना कीजिए, अगर कोई समुदाय यह कहे कि सरकार को बाल विवाह पर रोक लगाने का हक नहीं है, क्योंकि यह उनके धर्म या संस्कृति का हिस्सा है. क्या ऐसी दलील सिर्फ इस आधार पर स्वीकार की जा सकती है कि हर समुदाय को अपनी परंपराएं निभाने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए? यकीनन हम ऐसे मामलों को धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर स्वीकार नहीं कर सकते.
हम किस बिंदु पर यह रेखा खींचेंगे कि धार्मिक अधिकारों की रक्षा तो ज़रूरी है, लेकिन यह भी सुनिश्चित हो कि इन परंपराओं से किसी का बुनियादी मानवाधिकार न कुचला जाए और न किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचे? असल मुद्दा यही है—क्या कोई भी आस्था या प्रथा, चाहे वह कितनी भी पुरानी या धार्मिक क्यों न हो, न्याय, समानता और मानव गरिमा जैसे बुनियादी सिद्धांतों से ऊपर हो सकती है?
खुली आज़ादी नहीं
जब मुस्लिम समुदाय के नेता या किसी भी धर्म से जुड़े नेता संविधान का हवाला देते हैं, तो वे अक्सर इसे इस तरह पेश करते हैं जैसे यह उन्हें धर्म की पूरी तरह से खुली और असीम आज़ादी देता हो—जैसे वे अपने धार्मिक मामलों को बिना किसी सरकारी दखल, कानून या अदालत की निगरानी के खुद ही चला सकते हों, लेकिन जो बात अक्सर नज़रअंदाज़ कर दी जाती है, वो यह है कि धार्मिक आज़ादी का यह अधिकार पूरी तरह से निरंकुश नहीं है और न ही यह संविधान के बाकी मूल्यों से अलग है. यह अधिकार भी उस व्यापक ढांचे का हिस्सा है, जिसमें मानवाधिकार, समानता और सभी नागरिकों के लिए न्याय शामिल है.
संविधान की सोच यह है कि हर व्यक्ति को धार्मिक आज़ादी मिले—लेकिन यह आज़ादी तभी तक है, जब तक किसी और की गरिमा या अधिकारों को नुकसान न पहुंचे. मतलब साफ है — जब कभी कोई धार्मिक अधिकार, चाहे वो किसी व्यक्ति का हो या किसी समुदाय का, संविधान के बुनियादी सिद्धांतों जैसे समानता और न्याय के खिलाफ जाने लगे, तो हमेशा संविधान के ये बुनियादी मूल्य ही सबसे ऊपर रहेंगे.
जब हम यह बात समझ लेते हैं, तब हम उन वक्फ संशोधनों का विरोध कर सकते हैं, जिन्हें हम अपने अधिकारों का हनन मानते हैं.
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आशराफ-प्रधान बहस
यह सोचना कि किसी भी समुदाय को अपने सारे मसले सिर्फ संविधान के अधिकारों के नाम पर खुद ही सुलझाने का जन्मसिद्ध अधिकार है—एक खतरनाक सोच है.
इस फर्क को समझाते हुए एक ज़रूरी बात कहना ज़रूरी है. पटना में जो प्रदर्शन हुआ, उसे भले ही ‘संवैधानिक अधिकारों की रक्षा’ के नाम पर पेश किया गया हो, लेकिन इस प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाला संगठन—इमारत-ए-शरीयत—खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ के दायरे में एक समानांतर व्यवस्था चलाता है, जबकि उसके पास कोई कानूनी या न्यायिक अधिकार नहीं है.
आमतौर पर दलील दी जाती है कि ऐसे संगठन सिर्फ उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप करते हैं जहां दोनों पक्षों की रज़ामंदी हो, जैसे निकाह, तलाक, विरासत और वक्फ से जुड़े मामले. मगर हम सब जानते हैं कि भारतीय मुस्लिम समाज के भीतर सामाजिक दबाव की हकीकत क्या है. असलियत यह है कि ज़्यादातर मामलों में ये संस्थाएं संविधान के उन बुनियादी मूल्यों की परवाह किए बिना काम करती हैं, जो हर नागरिक को समानता और मानवाधिकार की गारंटी देते हैं—खासतौर पर महिलाओं को.
यह विरोधाभास तब साफ दिखता है जब ये लोग अपने हितों की रक्षा के लिए संविधान का सहारा लेते हैं, लेकिन वे खुद यह समझ नहीं पाते कि संविधान असल में किन मूल्यों के लिए खड़ा है. संविधान का मकसद सिर्फ धार्मिक स्वतंत्रता और किसी समुदाय के सामूहिक धार्मिक अधिकारों की रक्षा करना नहीं है; इसका असली उद्देश्य हर व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करना है—चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या पृष्ठभूमि से आता हो.
इसके अलावा, ऐसे प्रदर्शन और रैलियां पूरे भारतीय मुस्लिम समाज की आवाज नहीं होतीं. ये आयोजन अक्सर आशराफ—यानी ऊंची जाति के मुस्लिम तबकों—द्वारा संचालित होते हैं, जबकि पसमांदा मुसलमानों को भीड़ के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. यह बेहद दुखद है कि ये आशराफ-प्रधान संस्थाएं, जो खुद को पूरे समुदाय का प्रतिनिधि बताती हैं, असल में पसमांदाओं को सिर्फ मोहरे की तरह अपने हितों की सौदेबाज़ी में इस्तेमाल करती हैं.
इस प्रदर्शन में किए गए दावों को ही देख लीजिए. फैसल वली रहमानी ने चेतावनी दी कि अगर वक्फ बोर्ड संशोधन लागू हुआ, तो कोई भी मुस्लिम धार्मिक स्थलों पर दावा कर सकेगा. उन्होंने कहा, “अगर कल को कोई अशोक स्तंभों या प्राचीन स्मारकों पर धार्मिक प्रतीकों या इतिहास का पुरातात्विक सबूत मांगने लगे, तो उन्हें बचाने का मापदंड क्या होगा?” ऐसी बातें डर फैलाने वाली हैं, जिनका मकसद असल मुद्दों से ध्यान भटकाना है. यह सब सिर्फ भ्रम फैलाने और लोगों के बीच असमंजस पैदा करने के लिए किया जाता है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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