पिछले कुछ दिनों से फ़िज़ाओं में बहुत शोर है. हवा में कश्मीर जैसे घुल सा गया है. कहीं कम तो कहीं ज़्यादा. इन सब के बीच पिछले कोई एक महीने से कश्मीरी पंडितों का दर्द उनका अपने ही देश में रिफ्यूजी हो जाना और 19 जनवरी 1990 को तरह तरह से याद किया जाना अचानक सुर्ख़ियों में आया और रिलीज़ हुआ जाने माने निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की आने वाली फिल्म शिकारा का ट्रेलर. शिकारा के ट्रेलर ने कई सवालों को सामने ला खड़ा किया. आज़ादी के बाद से जिस कश्मीर ने सिनेमा व्यवसाय को एक मां की तरह पाला और हर संभव सहारा दिया, उस कश्मीर का दर्द कहने में 30 साल क्यों लगे? कश्मीर की बात आते ही फिल्मकार राजनैतिक रूप से सही लगने वाले बयान क्यों देने लगते हैं?
कश्मीरी पंडितों की बात कहने में इतनी झिझक क्यों आखिर?और सबसे महत्वपूर्ण कि ‘कश्मीर’ और ‘कश्मीरी पंडित’ की बात कहते वक़्त समस्या के कारण और निवारण की बात करने से गुरेज क्यों? सह-कहानीकार राहुल पंडित का दावा रहा कि शिकारा अब 30 साल बाद कश्मीरी पंडितों का दर्द, उनकी बात कहेगी. अचानक, विधु विनोद चोपड़ा की ओर से ये स्पष्टीकरण आया कि फिल्म का उद्देश्य नफरत फैलाना नहीं है, बल्कि उद्देश्य ये है कि जो हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ा जाए. फिल्म में संगीत देने वाले ए आर रहमान ने ये तक कहा कि जब दुनियां हिटलर और हिरोशिमा से आगे बढ़ चुकी है.
तो अब समय है देश भी अपने घाव भर आगे बढ़े. ट्विटर की दुनिया में अचानक भूचाल सा जान पड़ा. एक तरफ राहुल पंडिता और विधु अपना पक्ष रखते नज़र आये तो वहीं फिल्मकार अशोक पंडित और विवेक अग्निहोत्री (जो खुद कश्मीर फाइल्स नाम की फिल्म पर काम कर रहे हैं) ने फिल्म की मंशा पर संदेह व्यक्त किया. चाहे देश में इमर्जेन्सी हो, जेसिका हत्याकांड हो, मिशन मंगल हो बॉलीवुड ने सभी को अपनी फिल्मों का विषय त्वरित तौर पर बनाया, फिर कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ उसपर फिल्में बनाने की हिम्मत क्यों नहीं हुई किसी की?दूसरा सवाल ये उठता है कि 1990 से पहले करीब-करीब हर फिल्म में कश्मीर, उसकी वादियां, डल झील जैसे लोकेशन दिखे, कश्मीर का ज़िक्र भी हुआ, पर कश्मीर के किसी भी मुद्दे पर कोई बात नहीं थी, फिर चाहे वो जब जब फूल खिले हो, हिना हो या कोई और फिल्म.
1990 के बाद भी वहां तनावपूर्ण माहौल होने की वजह से फिल्मों की शूटिंग कश्मीर की जगह स्विज़रलैंड जैसे ख़ूबसूरत और महंगे स्थानों पर होने लगी. रोजा, फ़ना और दिल से जैसी फिल्में जहां कश्मीर में आतंकवाद को पृष्ठभूमि बनना रही थी तो वहीं हैदर, फ़िज़ा और मिशन कश्मीर जैसी फिल्में भी बनी जिनमें मुसलमान आम कश्मीरी युवकों का रास्ता भटकना, पुलिस की जबरिया कार्यवाई के चले धर्म विशेष के लोगों को जेल पहुंचाना और बदले की कार्यवाई जैसी घटनाओं के आगे पीछे कथानक घूमता रहा. बॉलीवुड कुछ दिन के लिए कश्मीर से दूर होकर जब कश्मीर के पास पहुंचा तो कथानक में कश्मीर तो था, पर वो लोकप्रिय विवादित कश्मीर था जिसमें से वो 4 लाख कश्मीरी पंडित भुला दिए गए थे जो उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में घाटी छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर किये गए थे.
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अब जब 30 साल बाद शिकारा के ट्रेलर रिलीज़ के वक़्त कश्मीरी पंडितों के दर्द सहलाये गए, तो उन्हें लगा कि तीस साल बाद ही सही पर कोई तो है जो कह पाया कि जो हुआ वो गलत था. इसका ज़िम्मेदार इस्लामिक आतंकवाद तो था ही साथ ही सोची समझी तरह से खौफ फैलाकर वादी छोड़ने के लिए मजबूर करने वाले कई और इस्लामिक समूह और राज्य सरकार की नाकाबलियत भी थी. पर फिल्म रिलीज़ का दिन नज़दीक आते आते उन कश्मीरी पंडितों एक बार फिर खुद को ठगा सा पाया है जब उनसे ही सब भूल जाने की दरख्वास्त की जा रही है. स्पष्ट तौर पर उनके साथ ये छल है.
कश्मीर ने हमेशा दोनों हाथों से बॉलीवुड को दिया ही है और सिनेमा जगत ने भी उसका फायदा भरपूर उठाया है, फिर सामजिक सरोकारों को पूरा करने में आखिर किसी ने कश्मीर के प्रति और कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ उसपर दो टूक कहने के लिए ज़िम्मेदारी क्यों नहीं निभायी? क्या ये माना जाए कि यहां भी अपनी सहूलियत के हिसाब से कश्मीर को उस चश्मे से देखा गया जिस से सरकार और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय देखना चाहता था. एक ऐसा चश्मा जिसमें राष्ट्रवाद और हिंदुत्व अतिवाद माने जाते हैं और मुसलमान जनसंख्या से सवाल जवाब करना या उसे किसी भी मायने में गलत ठहराना अपराध की श्रेणी में तुरंत गिन लिया जाता है.
जम्मू -कश्मीर में अब बहुसंख्यक मुसलमान दर्शक ही हैं, जिनके क्रोध का भागी बनने से शायद बॉलीवुड कतराता है. अगर ये कहा जाए कि ऐसी कहानियां कही ही नहीं गयीं कि जिन पर आधारित फिल्म बॉलीवुड बना पाता तो वो भी गलत है. पिछले एक डेढ़ साल में कोई 20 से ज़्यादा किताबें कश्मीर पर विभिन्न प्रकाशकों द्वारा छापी गयी. किसी ने वहां के राजनितिक परिदृश्य की बात की, किसी ने सैन्य ऑपरेशंस की तो किसी ने मासूम मुसलमान बच्चों के राह भटकने की. कुछ किताबें ऐसी भी रही कि जिन्होंने 19 जनवरी 1990 और उन 48 घंटों का ज़िक्र भी किया पर बड़ी आसानी से ज़िम्मेदारी की बात गोल कर गए. प्रजातंत्र और कश्मीरियत जैसे छद्म जुमले उछाल दिए गए.
एक तरफ जहां विधु विनोद चोपड़ा कहते हैं कि उन्हें शिकारा की कहानी कहने में 11 साल लगे और विवेक अग्निहोत्री पिछले एक साल से देश विदेश में घूमकर कश्मीरी पंडितों से मिलकर सोशल मीडिया पर फोटो साझा कर रहे हैं ऐसे में बड़ी शांति से कश्मीर पर कही जाने वाली किताब रिफ्यूजी कैम्प बेस्टसेलर बन चुकी है. कहा जा रहा है कि इसका कथानक जिसमें आज के साथ-साथ 800 साल का इतिहास सामानांतर चल रहा है ये इसे रोचक बना गया है. लेखक आशीष कॉल ने बड़े बेलौस तरीके से उसमें न सिर्फ 1990 बल्कि उसके पहले के 800 सालों के सामजिक और राजनैतिक परिदृश्यों का ज़िक्र किया है जिन्होंने कश्मीर को 19 जनवरी 1990 तक पहुंचाया.
फिर सवाल उठता है लेखक ने अब तक कश्मीर पर किसी फिल्म का ऐलान क्यों नहीं किया जबकि वो खुद पिछले 26 साल से मनोरंजन और फिल्म जगत में एक सफल पारी खेल रहा है? जवाब सीधा पर कुछ कड़वा था. ‘कश्मीर मेरे लिए एक मौका नहीं , ज़िम्मेदारी है. उन 6 लाख कश्मीरी पंडितों की ज़िम्मेदारी जिनका पूरा सच पूरे भारत और विश्व तक पहुंचना ज़रूरी है. मैं मौका भुनाने में में अपनी ऊर्जा लगाने से बेहतर समझता हूं एक ऐसी सुदृढ़ स्क्रिप्ट सुनिश्चित करना जिसमें कश्मीरी पंडितों का पूरा सच हो जो कहे कि कश्मीर में आतंकवाद पिछले दो तीन दशकों से नहीं, कोई 800 सालों से है, कौन ज़िम्मेदार है और समाधान क्या है, पर उसके पहले मैं इस सच को अपनी मुहीम बनाकर अलग अलग भाषाओं में देशभर में पहुंचा रहा हूं ताकि भ्रम की स्थिति हटे.’ स्पष्ट है कि जनता दो टूक सुनने कहने को तैयार है पर बॉलीवुड के मामले में व्यावसायिक मज़बूरी सामाजिक सरोकारों से बड़ी हो जाती है.
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इस सब के बीच अब अनुच्छेद हटने के सरकारी ऐलान के बाद ‘कश्मीर’ और ‘कश्मीरी पंडित का दर्द’ एक ऐसी वस्तु सी जान पड़ती है. जिसकी ‘इस बाज़ार में बहुत मांग है और बेजोड़ बिक रहे हैं. विडंबना ही है कि दर्द की बात करने पर व्यावसायिक सफलता दिखती है, पर दर्द देने वाले की बात या उसके इलाज की बात करने पर ‘नुक्सान’ का भय मुखर हो जाता है. ऐसे माहौल में जहां वोट बैंक और बाज़ार हावी हैं, वहां कश्मीर पर एक ईमानदार फिल्म कहा जाना नामुमकिन है. निश्चय ही चाहे वो विधु विनोद चोपड़ा हों, विशाल भारद्वाज या अशोक पंडित और विवेक अग्निहोत्री, सबको हक़ है फिल्म व्यवसाय में पैसे लगाकर मुनाफा कमाने का, एक कहानी कहने का, पर कश्मीरी पंडित समुदाय को इस मुगालते से बाहर आ ही जाना चाहिए कि कभी कोई उनके दर्द की दवा करने का ईमानदार प्रयास अपनी फिल्मों से कर पायेगा.
इस बीच एसिड अटैक के मुद्दे पर बनी फिल्म छपाक के रिलीज़ के तुरत पहले दीपिका पादुकोण का जेएनयू पहुंचना जिस तरह से पढ़ा सुना गया उसने एक और ट्रेंड की और ध्यान आकर्षित किया है. फिल्मों के रिलीज़ के पहले हुए ये विवाद मुद्दों को गौण कर के विवादों को थाली में सजा हर शुक्रवार फिल्म हॉल में लगी मंडी में पहुंच रहे हैं, इस आशा के साथ कि शायद इस ही वजह से दर्शक उसके माल का स्वाद चख ले. निश्चय ही हॉलीवुड की तारीफ करनी चाहिए कि वो इस तरह के डरों से ऊपर उठ सरकार और उसके निर्णयों और घटनाक्रमों पर ईमानदार, निरपेक्ष और उन्नत गुणवत्ता वाली फिल्में भी बनाते हैं और मुनाफा भी कमा रहे हैं, ध्यान बाजार में खरीददार क्या चाहता है से कहीं ज़्यादा अपने माल की ईमानदार गुणवत्ता पर है और यही शायद मूल मंत्र भी है. बहरहाल, शिकारा बस दर्शकों से चंद दिनो की दूरी पर है. देखना है कि शिकारा रिफ्यूजी कैंप से निकलकर कश्मीरी पंडितों का कितना सच लोगों को कह पायेगा.
(शेफाली चतुर्वेदी पिछले 18 साल से एंटरटेनमेंट और सामाजिक मुद्दों पर लिखने के साथ-साथ इमरजेंसी रिस्पांस कम्युनिकेशन स्पेशलिस्ट हैं. प्रिंट और ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट शेफाली को शोधपरक रिपोर्ट करने में खासी रुचि है. यह उनका निजी विचार है)