विडंबना ही है कि कई बार ‘अच्छे दिखने’ वाले फैसले ‘अच्छा साबित’ होने वाले फैसलों की तुलना में अधिक आकर्षित करते हैं. दरअसल उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने श्रमिकों के बुनियादी हितों की रक्षा के लिए श्रम कानूनों में लागू वेतन, बंधुआ श्रम, महिलाओं तथा बच्चों से जुड़े प्रावधानों को जारी रखते हुए, शेष 35 से ज्यादा श्रम कानूनों को तीन साल के लिए निरस्त कर दिया है. योगी सरकार के इस फैसले को अखिलेश यादव द्वारा ‘अमानवीय’ तथा ‘आपत्तिजनक’ बताया गया है. आलोचना इसलिए क्योंकि ऐसे निर्णय ‘दिखने, सुनने और बोलने’ में लोकलुभावन नहीं लगते.
यह समझना जरूरी है कि योगी सरकार का यह फैसला क्या वाकई मजदूर विरोधी, अमानवीय तथा आपत्तिजनक है अथवा इसके विरोध के पीछे निराधार तर्क दिए जा रहे हैं. श्रम कानूनों में हुए बदलाव की हो रही आलोचना का व्यापक मूल्यांकन वर्तमान की परिस्थिति, भविष्य की चुनौतियों तथा इतिहास की गलतियों के आधार पर करने पर सही तस्वीर उभर कर आएगी.
अक्तूबर 2019 में आई एक रिपोर्ट में बताया गया था कि अमेरिका और चीन के बीच छिड़े ट्रेड-वार की वजह से अगस्त 2018 से अक्तूबर 2019 के बीच चीन से 56 कंपनियों ने अपना व्यापार समेटते हुए दूसरे देशों का रुख किया. कुल 56 में से 26 वियतनाम, 11 ताइवान तथा 8 कंपनिया थाईलैंड गयीं. भारत में सिर्फ 3 कंपनियों ने आने का मन बनाया.
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कंपनियां चीन से क्यों गयीं? क्योंकि चीन व अमेरिका से विवाद के कारण अमेरिकन आयातकों के टैरिफ महंगे होने लगे थे. कंपनियों का भरोसा डिगने लगा था.
कोविड के बाद भारत के सामने आर्थिक चुनौतियां खड़ी होंगी. रोजगार के अवसरों का संकट पैदा होने का खतरा संभावी है. ऐसे में माना जा रहा है कि व्यापार के लिहाज से देश-विदेश की अनेक कंपनियां नए अवसर तलाशेंगी. क्या उत्तर प्रदेश जैसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य निवेश के इस अवसर को अपने हित में भुनाने तथा निवेशकों के लिए भरोसे का वातावरण तैयार करने के लिए हर स्तर पर तैयार है? डॉ. मनमोहन सिंह के लहजे में कहें तो ‘रोजगार पेड़ पर नहीं उगते.’ लिहाजा रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए निवेश लाना जरूरी है.
रोजगार सृजन एवं निवेश की बात करते हुए व्यावहारिक तथ्यों पर गौर करें तो निवेश शुरुआती तौर पर एक ‘जोखिम’ होता है. यह जोखिम निवेशक के अलावा कोई नहीं उठाता है. जिस मजदूर अथवा श्रमिक की बात की जा रही है, उसके लिए श्रम और रोजगार के अवसर इसी निवेश से पैदा होते हैं. क्या कोई मजदूर भला निवेशक हो सकता है? नहीं हो सकता. तो कौन होगा? निश्चित ही वही होगा जो पूंजी लगाने का जोखिम उठाने को तैयार हो. ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि सरकार निवेशकों को यह भरोसा दिलाये कि उनका निवेश जोखिममुक्त तथा कारोबार के लिहाज से सुगम है. यह पहली गारंटी है जिसे दिए बिना आप निवेशकों के लिए ‘बिजनेस हब’ नहीं बन सकते.
गौरतलब है कि कि बड़े निवेशक यदि जोखिम उठाने को तैयार भी हो जाते हैं तो छोटे और मझोले (MSME) निवेशक तो कतई ऐसी जगहों पर निवेश को तैयार नहीं होते, जहां उनके हितों की अनदेखी की जाए. वर्तमान स्थिति में जब देश के पूर्वी राज्यों के सामने वापस लौटे मजदूरों तथा नए रोजगार के सृजन की चुनौती है, तब छोटे तथा मझोले उद्योगों को स्थानीय तरजीह देने की बात की जा रही है. किंतु ऐसा बातों से हो जाता तो क्या बात होती! इसके लिए सरकार को ‘बायस्ड’ कानूनों को सभी हितधारकों के लिहाज से न्यायसंगत बनाना पड़ेगा.
तमाम उदाहरणों से साबित हुआ है कि निवेश और भरोसे की राह में सबसे बड़ी अड़चन श्रमिकों के पक्ष में ‘बायस्ड’ श्रम कानूनों की जटिलताएं साबित हुई हैं. नि:स्संदेह श्रम कानून बनाने के पीछे जरूर मंशा यही रही होगी कि श्रमिकों के हितों से कोई खिलवाड़ न कर सके लेकिन कालक्रम ‘मजदूर हित’ की राजनीतिक कवायदों के कारण कठोर से कठोर श्रम कानून बनते गये. कारोबारी और श्रमिक के बीच समन्वय और संवाद की धारणा ‘संघर्ष’ में बदलती गयी. धीरे-धीरे इन कानूनों की आड़ में ‘यूनियन’ की राजनीति को प्रश्रय मिलने लगा. परिणामत: श्रम कानूनों के मकड़जाल ने मजदूर, देश तथा कारोबार तीनों का नुकसान किया.
सबसे अधिक और पहला नुकसान मजदूरों का हुआ. यूनियन की हड़तालों, श्रम कानूनों की जटिलताओं और मुकदमों से बचने के लिए कंपनियों ने या तो अपनी कंपनी को हटा लिया या ठेकेदारों के माध्यम से मजदूर रखने शुरू कर दिए. फलत: ठेकदारों के माध्यम से आये मजदूरों को श्रम कानूनों के अनेक लाभ मिलने बंद हो गये. यहीं से ‘क्रोनी-कैपिटलिज्म’ को बढ़ावा भी मिला.
कारोबार जगत के छोटे प्लेयर कानूनी जकड़न तथा यूनियनबाजी से लड़ने की बजाय वहां से हटना मुनासिब समझते हैं. ऐसे में कारोबार जगत के बड़े प्लेयर ही कुछ हद तक टिक पाते हैं क्योंकि जोखिम उठाने की उनकी क्षमता अधिक होती है. कहने का आशय है कि कारोबार में ‘मोनोपॉली’ को बढ़ावा ऐसे ही कानूनों से मिलता है जबकि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का ह्रास होता है.
उदाहरण के तौर पर देखें तो श्रम कानूनों तथा मजदूर यूनियन के अवरोधक हस्तक्षेप की वजह से पश्चिम बंगाल जैसे व्यापार संपन्न प्रदेश से कारोबारियों ने अपना मुंह मोड़ लिया. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में निवेशक उत्साह नहीं दिखाए. लिहाजा देश का मध्य और पूर्वी भाग का यह बड़ा हिस्सा व्यापारिक लिहाज से आज तक स्वावलंबी नहीं हो सका.
श्रम कानूनों का लाभ सिर्फ 10 फीसदी मजदूरों को
लेकिन जरूरी सवाल यह है कि श्रम कानून का फायदा आखिर किसे मिला? निश्चित ही इसका जितना भी लाभ मिल पा रहा है वह संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को मिल रहा है. भारत में संगठित क्षेत्र का कार्यबल कुल कार्यबल का 10 फीसदी है. इसमें स्थायी वेतनभोगी लोग आते हैं. शेष 90 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. देश की अर्थव्यवस्था में लगभग 50 फीसद योगदान इसी असंगठित क्षेत्र का है. किंतु श्रम कानून इनमें से अधिकांश पर लागू नहीं होते. इसका अर्थ है कि श्रम कानून का लाभ बहुतायत इसी 10 फीसदी को मिलता है. शेष 90 फीसदी लोग इससे वंचित हैं. मजदूरों के साथ छल नहीं तो क्या है कि श्रम कानून के नाम पर यूनियन की लड़ाई लड़ने वाले संगठन ज्यदातर इसी 10 फीसदी स्थायी वेतनभोगी वर्ग की लड़ाई लड़ रहे होते हैं.
आज कोरोनावायरस के संकट में दिल्ली, मुंबई, गुजरात शहरों से मजदूरों के अपने घर वापस लौटने की स्थिति को ‘पलायन’ कहा जा रहा है. यह पलायन नहीं है. पलायन तो वह था जब वे अपना गांव-घर छोड़कर प्रवासी बनने को मजबूर हुए थे. अब तो वे वापस अपने घर जा रहे हैं. इस स्थिति ने उन दशकों तक नीति-निर्माण की तख़्त संभालने वाले तमाम लोगों को भी आईना दिखाया है जो ‘मजदूरों’ के नाम पर बेहाल हुए जार-जार रोने का प्रहसन कर रहे हैं.
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अब उत्तर प्रदेश की सरकार के सामने उन पांच लाख की संख्या में वापस लौटे मजदूरों सहित प्रदेश के लाखों लोगों को रोजगार देने की चुनौती है. सघन आबादी वाले उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों पर संपूर्ण कार्यबल का भार वहन करने की क्षमता नहीं है. इस चुनौती को कठोर ‘श्रम कानून’ के खोखले ढोल पीटकर नहीं हराया जा सकता. अगर सरकार ने 15 लाख रोजगार के अवसर सृजित करने का लक्ष्य तय किया है तो उसे बड़े तथा छोटे व मध्यम उद्योगों के निवेश लाने के लिए सुधारवादी कदम उठाने जरूरी थे.
कोरोना काल में पैदा हुई परिस्थिति को अवसर के रूप में भुनाते हुए रोजगार सृजन के लिए श्रम कानून की जटिलताओं में ढील देनी जरूरी थी. इसके लिए श्रम कानून के जिन प्रावधानों को निरस्त किया गया है, उससे ना तो लाखों मजदूरों को पहले कोई कोई लाभ था और ना ही अब कोई हानि होनी है. बेशक कानूनी जटिलताओं में ढील तथा कारोबार की सुगमता होने से यदि उत्तर प्रदेश निवेशकों का हब बनता है तो भविष्य में कोई मजदूर किसी मुंबई और दिल्ली से पलायन को मजबूर नहीं होगा. उसे अपने प्रदेश में रोजगार के अवसर मिलेंगे. इसलिए कोई कारण नहीं नजर आता कि उत्तर प्रदेश के ‘सेफरन वेलफेयरिस्ट’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के फैसले में कोई खोट देखी जाए.
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो तथा ब्लूम्सबरी से प्रकाशित गृहमंत्री अमित शाह की राजनीतिक जीवनी ‘अमित शाह एंड द मार्च ऑफ़ बीजेपी’ के लेखक हैं. यह उनके निजी विचार हैं)
35 कानून की चर्चा नहीं की गई, किसके लिए क्या क्या था यह भी नहीं बताया गया, उन कानूनों से किसको अभी तक क्या मिला, यह भी नहीं बताया गया..35 कानूनों पर दो दो लाइन जोड़ना चाहिए, इतना लंबा लेख लिखने से वह बेहतर है…या कुछ न कुछ गडबड है।
Good sir
लॉक डाउन का फायदा उठा कर बड़ी कंपनियों ने श्रम कानून बदलवा डाला और एक ही झटके में कई वर्करो को नौकरी से निकाल दिया