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Thursday, 21 November, 2024
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रॉ की क्षमता बढ़ाने के लिए उसे सीआईए के पैटर्न को अपनाना होगा

पॉलिसी बनाने वालों को पारंपरिक सोच से बाहर निकल कर कुछ क्रिएटिव रिफॉर्म लाना चाहिए. बिना मानव संसाधन की मदद लिए खुफिया बदलाव लाना अधूरा होगा.

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सलाहकारों और विश्लेषकों ने भारत की खुफिया एजेंसियों से हो रही बड़ी स्तर की चूक की ओर ध्यान आकर्षित कराने के लिए पुलवामा, उरी, पठानकोट और 26/11 मुंबई हमलों जैसे खुफिया हादसों का ज़िक्र किया है. लेकिन इस तरह का सुधार काफी हद तक संसदीय जांच के तहत और दोषपूर्ण लोगों को हटाने के लिए एजेंसियों की बढ़ती जवाबदेही पर केंद्रित है. हालांकि, यह बार-बार नज़रअंदाज़ कर दिया जा रहा कि खुफिया विभाग के मूल में देश के लोग हैं.

सबसे पहले मानवीय तथ्यों को ध्यान में रखें

इस महीने की शुरुआत में, पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव की मौत की सज़ा पर चल रही सुनवाई को अस्वीकार कर दिया. पाकिस्तान ने इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के लंबित फैसले का हवाला दिया था. भारत ने इसके लिए काउंसलर एक्सेस से अनुरोध किया था, जिसे पाक ने अस्वीकार कर दिया. पाकिस्तान ने दावा किया कि जाधव रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के लिए एक मिशन पर थे. वहीं भारत ने इस दावे को आधिकारिक तौर पर नकार दिया है. इस घटना ने एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि क्या एजेंसियां ​​मानव संसाधन की भर्ती और प्रशिक्षण पर पर्याप्त ध्यान दे रही हैं.

किसी भी तरह के सुधार में सबसे पहले इस मानवीय कारक पर ध्यान देना चाहिए जो कि जासूसी के मूल में है. पिछले साल नरेंद्र मोदी सरकार ने इस दिशा में एक कदम उठाया था. सरकार ने रॉ के 70 से अधिक वरिष्ठ और मध्य-स्तर के अधिकारियों को ‘अनिवार्य सेवानिवृत्ति’ के लिए चिह्नित किया. यह निर्णय एंजेसियों को अधिक प्रभावी बनाने की दिशा में लिया जा सकता है. लेकिन बड़ी संख्या में लोगों को हटाने से अनापेक्षित परिणाम निकल सकते हैं. भर्ती प्रक्रिया में परिवर्तन करने से एजेंसी की क्षमता को बिना किसी जटिलता के बदला जा सकता है.

रॉ की चयन प्रक्रिया

वर्तमान में, रॉ में प्रेवश पाने के दो रास्ते हैं. पहला है रॉ एलाइड सर्विस टेस्ट (जिससे आंतरिक कैडरों की नियुक्ति होती है) और दूसरा, अखिल भारतीय सेवाओं से नियुक्ति (कम या ज्यादा समय के लिए ). भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अलावा, मुख्य रूप से नियुक्ति में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफएस) शामिल हैं. जबकि सिविल सेवाओं से भर्ती करने के पीछे की सोच अच्छी थी. लेकिन इसने दो समानांतर कैडर खड़े कर दिए. जिससे एजेंसी की क्षमताओं को प्रभावित होने का समय मिल गया. मजेदार बात यह है कि रॉ भारत की एकमात्र बाहरी खुफिया एजेंसी है जिसमें सिविल सर्वेंट, विशेष रूप से आईपीएस शामिल हैं. दुनिया भर की अधिकांश एजेंसियां ​​पुलिस के काम को खुफिया जानकारी और विश्लेषण से अलग रखती हैं. दोनों के काम करने की प्रवृत्ति अलग और एक दूसरे से भिन्न है. पुलिस का काम कानून के बनाए निर्देश पर चलता है. वहीं खुफिया का काम लीक से हटकर अक्सर देशों के कानून से इतर जा कर होता है.

इस मूलभूत अंतर को अगर ध्यान में रखा जाए तो कई राष्ट्र इन दोनों के बीच स्पष्ट अंतर बनाए रखना चाहते हैं. आंतरिक खुफिया का कार्य कानून स्थापित करने वाली संस्था की तरह है. जो पुलिस के सहयोग को आवश्यक बनाती है. बाहरी दुनिया के लिए यहां ‘इंटेलिजेंस’ शब्द का मतलब है कि जहां जानकारी किसी भी तरह जुटाई जा सकती है. जरूरी नहीं कि वो पूरी तरह से कानूनी हो.

शुरुआती चरण में ही उन्हें नियुक्त करना चाहिए

तक्षशिला इंस्टीट्यूशन के इंटेलिजेंस रिफॉर्म्स प्रोजेक्ट के एक पार्ट के रूप में काम करते हुए हम परिवर्तन का सुझाव देते हैं. जिसे एक अधिकारी के करिअर के विभिन्न चरणों में शुरू किया जा सकता है. उसकी नियुक्ति से रिटायरमेंट तक. नियुक्ति की प्रक्रिया में होने वाला परिवर्तन महत्वपूर्ण सुधार लाएगा.

रॉ को अपनी यहां नई नियुक्तियों के लिए रास्ते खोलने चाहिए और विभिन्न दक्षताओं और अनुभव के लिए अलग-अलग बैकग्राउंड के लोगों की खाली पदों पर नियुक्ति करनी चाहिए. वर्तमान में चल रही प्रक्रिया जिसमें बिना किसी खास तकनीकी दक्षता और अनुभव के लोगों को शामिल कर लिया जाता है. वो सिस्टम को और प्रभावहीन बना देता है. खासकर तब जब इस तरह के स्किल वाले लोग मार्केट में मौजूद हों. इसके अलावा प्राइवेट इंडस्ट्री का सहयोग लेने से खुफिया से लेकर नॉन डिप्लोमेटिक पोस्टिंग तक नियुक्ति की जा सकती है.

सीआईए की तरह नियुक्ति प्रक्रिया अपनाकर भारत भी विश्वविद्यालयों के डीन और सेवानिवृत्त खुफिया अधिकारियों को भारतीय विश्वविद्यालयों में कैंपस भर्ती के लिए टैलेंट की पहचान करने वाले के रूप में उनका उपयोग कर सकता है. ये लोग आसानी से उन छात्रों की पहचान कर सकते हैं, जिनके पास विदेशी भाषाओं के प्रति भी रुझान है. वे भाषण कला और लेखन में स्पष्ट हों और मजबूत पारस्परिक कौशल प्रदर्शित करते हों. उन्हें इंटर्नशिप प्रदान करके और सेवानिवृत्त अधिकारियों द्वारा ट्रेनिंग देने से खुफिया एजेंसियों को यूनिवर्सिटी टैलेंट पूल में मदद मिलेगी. विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ लगातार जुड़े रहने से छात्रों के लिए एक आकर्षक कैरिअर का भी विकल्प सामने आ सकता है.

वर्तमान में, रॉ में शामिल होने के लिए नियुक्ति के समय एक अधिकारी की औसत आयु 32 वर्ष होती है. पहली बार सचिव या विदेशी कार्यभार संभालने योग्य बनते-बनते वह 37 वर्ष आयु का हो जाता है. इसका मतलब यह है कि पांच साल के कम समय में उसे एक विदेशी भाषा सीख लेनी होगी. बहुत कम उम्र में डेस्क से निपटने के लिए आवश्यक अनुभव प्राप्त करना होगा. ऐसे में युवाओं पर दांव लगाने से न केवल व्यक्तिगत अधिकारियों के सेवा वर्षों में वृद्धि होती है, बल्कि रॉ को हुए अन्य नुकसान को भी दूर किया जा सकता है.

पहली बात, एक सिविल सर्वेंट जो कि मूल सेवा के प्रति निष्ठावान है, उसकी अपेक्षा में ग्रेजुएशन के बाद भर्ती होने वाले युवाओं के दिल और दिमाग में अपनेपन की भावना पैदा करना आसान होता है. दूसरा, यह ‘बैक डोर’ एंट्री का अंत करता है. जो सिविल सेवकों को एजेंसी छोड़ने और उनकी मूल सेवा में लौटने की अनुमति देता है. यह खुफिया एजेंसियों के लिए एक लाइबिल्टी बन जाता है.

मुंबई में 26/11 के हमलों के तुरंत बाद, रॉ में नियुक्ति के नियम भी संदेह के घेरे में आ गए. नियमों को लेकर बहस जारी है. और यह स्पष्ट है कि सिविल सर्वेंट को बाहरी खुफिया एजेंसियों से अलग करने से होने वाला फायदा, दोनों के साथ में आने से होने वाले फायदे को पीछे छोड़ देता है. पॉलिसी बनाने वालों को पारंपरिक सोच से बाहर निकल कर कुछ क्रिएटिव रिफॉर्म लाना चाहिए. बिना मानव संसाधन की मदद लिए खुफिया बदलाव लाना अधूरा होगा.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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