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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतक्या पूर्व सीजेआई गोगोई पर हमला कर अप्रत्यक्ष रूप से अन्य न्यायाधीशों को निशाना बनाया जा रहा है

क्या पूर्व सीजेआई गोगोई पर हमला कर अप्रत्यक्ष रूप से अन्य न्यायाधीशों को निशाना बनाया जा रहा है

पूर्व न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली लगभग सभी पीठ में फैसले सर्वसम्मति से हुए या फिर पीठ के अन्य सदस्यों ने उनके निष्कर्ष से सहमति व्यक्त की है.

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पूर्व न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की आलोचनाओं से सवाल उठता है कि क्या राफेल विमान सौदा, असम में एनआरसी और अयोध्या विवाद में उन्होंने अकेले ही फैसले लिये थे? कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यायमूर्ति गोगोई पर हमला करते समय हम अप्रत्यक्ष रूप से अन्य न्यायाधीशों को भी अपना निशाना बना रहे हैं?

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उच्चतम न्यायालय में एकल न्यायाधीश की पीठ की परंपरा नहीं रही है. न्यायालय में आने वाले मुकदमों की सुनवाई दो, तीन, पांच, सात या फिर नौ न्यायाधीशों की पीठ करती है. अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद, भारतीय वायु सेना के लिये फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद और असम में अवैध प्रवासियो की पहचान के लिये राष्ट्रीय नागरिक पंजी को अंतिम रूप देने से संबंधित फैसले सर्वसम्मति से सुनाये गये थे.

लेकिन, राज्यसभा के लिये मनोनीत होने के बाद से ही पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई विपक्षी नेताओं, कुछ पूर्व न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं के साथ ही सोशल मीडिया पर आलोचना का केन्द्र बिन्दु बने हुए हैं. राज्यसभा में भी न्यायमूर्ति गोगोई के शपथ कार्यक्रम का कुछ विपक्षी दलों के सदस्यों ने बहिष्कार किया था.

इन आलोचनाओं और राज्यसभा में विपक्षी दलों के सदस्यों का शपथ ग्रहण कार्यक्रम का बहिष्कार करने की घटना कई सवालों को जन्म देती है. पहला सवाल तो यही है कि जिन फैसलों को लेकिन न्यायमूर्ति गोगोई को निशाना बनाया जा रहा है, क्या इन मुकदमों की सुनवाई प्रधान न्यायाधीश की रूप में उन्होंने अकेले ही की थी या फिर उनकी अध्यक्षता वाली पीठ में दूसरे न्यायाधीश भी शामिल थे.

एक सवाल यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर न्यायमूर्ति गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ में दूसरे न्यायाधीश भी शामिल थे तो राजनीतिक दृष्टि से अहम मामलों में सर्वसम्मति के फैसले कैसे हो गये. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दो या इससे अधिक सदस्यों वाली पीठ के न्यायाधीश मुख्य फैसले से सहमति व्यक्त करते हुए अथवा असहमति जताते हुए अलग से निर्णय सुनाने के लिये स्वतंत्र होते हैं.

न्यायपालिका के इतिहास में अनेक महत्वपूर्ण मामलों में न्यायाधीशों ने मुख्य फैसले के साथ सहमति व्यक्त करते हुए अथवा अपनी असहमति के साथ अलग से विस्तृत फैसले सुनाये हैं. ऐसी स्थिति में सोचने की बात यह है कि इन फैसलों को लेकर किसी एक न्यायाधीश को निशाना बनाना कहां तक उचित है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि एक न्यायाधीश विशेष को निशाना बनाकर संबंधित पीठ के अन्य न्यायाधीशों को भी अंजाने में कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है.

न्यायमूर्ति गोगोई की अध्यक्षता वाली विभिन्न पीठ के समक्ष लंबित मुकदमों और उनमे सुनाये गये फैसलो पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि सबरीमला मंदिर में सभी आयु वग की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने के फैसले पर पुनर्विचार याचिकाओं पर पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने दो के मुकाबले तीन के बहुमत से विभिन्न धर्मो में महिलाओं के अधिकारों से संबंधित सवाल सात सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपे थे.


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फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान खरीदने में कथित गड़बड़ियों की जांच के लिये दायर याचिकाएं 14 दिसंबर 2018 को खारिज करने वाली पीठ के सदस्यों में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ शामिल थे. इसी तीन सदस्यीय पीठ ने भाजपा नेता यशवंत सिन्हा और अरूण शौरी तथा अन्य की पुनर्विचार याचिकायें भी नवंबर 2019 में खारिज की थी.

इसी तरह, अयोध्या में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद की सुनवाई प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने की थी. इस संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से नौ नवंबर, 2019 को अपना फैसला सुनाया था. संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूति एस ए बोबडे (वर्तमान प्रधान न्यायाधीश), न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर शामिल थे.

केरल के सबरीमला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने के उच्चतम न्यायालय के सितंबर, 2018 के फैसले पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिकाओं की सुनवाई भी प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षत वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने की थी.

इस संविधान पीठ ने पुनर्विचार याचिका में उठाये गये बिन्दुओं को सात सदस्यीय संविधान पीठ को सोंपने का निर्णय नवंबर 2019 में बहुमत से किया था. इस मामले में न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा ने प्रधान न्यायाधीश की राय से सहमति व्यक्त की थी जबकि न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ ने अपने असहमति का फैसला अलग से सुनाया था.

असम में अवैध घुसपैठियों का पता लगाने के लिये राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) तैयार करने और उसे अंतिम रूप से प्रकाशित कराने के मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति गोगोई और न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन ने की थी. यही पीठ राष्ट्रीय नागरिक पंजी तैयार करने की कवायद से जुड़ी प्रकिया की निगरानी भी कर रही थी. इस प्रक्रिया के तहत 15 अगस्त, 1985 के असम समझौते के तहत असम की राष्ट्रीय नागरिक पंजी का अद्यतन किया जाना था. अंतत: 31 अगस्त, 2019 को राष्ट्रीय नागरिक पंजी की अंतिम सूची प्रकाशित की गयी. इसमें 3,30,27,661 आवेदकों में से 19,06,657 के नाम शामिल नहीं किये गये थे.


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इसी तरह, केन्द्रीय जांच ब्यूरो में शीर्ष स्तर के अधिकारियों के बीच छिड़ा विवाद भी न्यायालय आया था. इस विवाद की सुनवाई भी प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की तीन सदस्यीय पीठ ने की थी.

इस पीठ ने आठ जनवरी, 2019 को सर्वसम्मति के फैसले में सीबीआई के तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा को उनके अधिकारों से वंचित करने और वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी एम नागेश्वर राव को ब्यूरो का अंतरिम मुखिया बनाने का केन्द्र का 23 अक्टूबर , 2018 का फैसला निरस्त कर दिया था.

यही नहीं, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित की पीठ ने छह जनवरी, 2017 को उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू द्वारा बिना शर्त माफी मांगने के बाद उनके खिलाफ न्यायालय की अवमानना के दो मामले खत्म कर दिये थे.

इससे पहले पूर्व न्यायमूर्ति गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने नवंबर, 2016 में न्यायमूर्ति काटजू को अवमानना का नोटिस जारी किया था. ये नोटिस फरवरी, 2011 में 23 वर्षीय युवती से ट्रेन में बलात्कार के मामले में दोषी की मौत की सजा निरस्त करने के शीर्ष अदालत के फैसले पर लिखे गये ब्लाग के संबंध में जारी की गयी थी. इस मामले में पीड़ित युवती की दो दिन बाद मृत्यु हो गयी थी.

पूर्व न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली लगभग सभी पीठ में फैसले सर्वसम्मति से हुए या फिर पीठ के अन्य सदस्यों ने उनके निष्कर्ष से सहमति व्यक्त की है. ऐसी स्थिति में यह सोचने वाली बात है कि इन मामलों में सुनाये गये फैसलों के लिये न्यायमूति गोगोई के मनोनयन से जोड़ना किस हद तक उचित है क्योंकि यह ध्यान देना होगा कि इस फैसलों की आलोचना करते समय कहीं हम पीठ के अन्य सदस्यों पर भी अप्रत्यक्ष रूप से या अंजाने में आक्षेप तो नहीं कर रहे हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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