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Sunday, 22 December, 2024
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‘आखिरी शब दीद के काबिल थी ‘बिस्मिल’ की तड़प!’, काश, अपनी जिन्दगी में हम वो मंजर देखते!

बिस्मिल को शहादत भले ही शहादत काकोरी ऐक्शन का नेतृत्व करने को लेकर हासिल हुई, ऐतिहासिक ‘मैनपुरी षडयंत्र’ में भी उनकी कुछ कम भूमिका नहीं थी.

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देश का इतिहास गवाह है कि क्रांतिकारियों ने इसकी स्वतंत्रता के लिए संचालित सशस्त्र संघर्ष में 1925 में नौ अगस्त को लखनऊ के पास ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन ऐक्शन को अंजाम दिया तो ब्रिटिश साम्राज्य बुरी तरह हिल उठा था, क्योंकि इस ऐक्शन के तहत क्रांतिकारियों ने उसके विरुद्ध निर्णायक युद्ध छेड़ने के लिए अस्त्र-शस़्त्र खरीदने हेतु धन जुटाने हेतु ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना सफलतापूर्वक लूट लिया था.

आज उक्त ऐक्शन के नायक रामप्रसाद बिस्मिल की सवा सौवीं जयंती है और इस अवसर पर सबसे दिलचस्प यह जानना है कि वे ब्रिटिश साम्राज्य के समूल विनाश की अपनी प्रतिज्ञा के प्रति अति की हद तक दृढ़ थे. इस साम्राज्य ने उन्हें उक्त ऐक्शन का नेतृत्व करने का ‘पुरस्कार’ देने के लिए मुकदमे के लम्बे नाटक के बाद 19 दिसम्बर, 1927 को गोरखपुर की जेल में शहीद कर डालने का फैसला किया तो भी वे यह सोचकर निराश होने को तैयार नहीं थे कि उनका मिशन अधूरा रह गया या बलिदान व्यर्थ हो जाने वाला है. इसके विपरीत वे खुश थे कि इस साम्राज्य ने अशफाकउल्लाह खां को, जिनसे उनकी दोस्ती की आज भी मिसाल दी जाती है, ऐक्शन में उनका दाहिना हाथ करार दिया है. ‘इसकी रौशनी में अब किसी को भी यह कहने का साहस नहीं होगा कि मुसलमानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए और हिन्दू मुसलमान दोनों मिलकर गोरों से अपनी आजादी छीन लेंगे.’ उन्हें कसक थी तो बस यही कि ‘काश, अपनी जिन्दगी में हम वो मंजर देखते.’

कलम व क्रांति से एक-सा रिश्ता

ज्ञातव्य है कि गोरखपुर में उनकी शहादत के दिन ही ब्रिटिश साम्राज्य ने उनके दो साथियों अशफाकउल्लाह खां और रौशन सिंह को क्रमशः फैजाबाद व इलाहाबाद की मलाका जेलों में फांसियों पर लटका दिया था. राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को गोंडा की जेल में इससे दो दिन पहले 17 दिसम्बर, 1927 को ही शहीद कर दिया गया था.

ग्यारह जून, 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में माता मूलारानी और पिता मुरलीधर के पुत्र के रूप में जन्मे ‘बिस्मिल’ का व्यक्तित्व इस अर्थ में बहुआयामी था कि उसमें संवेदशील कवि/शायर, साहित्यकार व इतिहासकार के साथ-साथ एक बहुभाषाभाषी अनुवादक भी था. 1915 में भाई परमानंद को फांसी की सजा सुनाये जाने से उद्वेलित होकर वे क्रांतिकारी बने तो जल्दी ही उन गिनी-चुनी क्रांतिकारी विभूतियों में से एक बन गये थे, जिनका कलम व क्रांति से एक-सा रिश्ता था. जानकार बताते हैं कि अपने क्रांतिकर्म के लिए जरूरी हथियार उन्होंने अपनी पुस्तकों की बिक्री से प्राप्त रूपयों से ही खरीदे थे. उन्हें जीवन के सिर्फ 30 साल ही मिले, मगर इस दौरान उनके द्वारा राम और अज्ञात आदि उपनामों से लिखी गई कुल 11 पुस्तकें प्रकाशित हुईं. ये सबकी सब जब्त कर ली गयी थीं.


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बिस्मिल को शहादत भले ही शहादत काकोरी ऐक्शन का नेतृत्व करने को लेकर हासिल हुई, ऐतिहासिक ‘मैनपुरी षडयंत्र’ में भी उनकी कुछ कम भूमिका नहीं थी. वहां कांतिकारी गेंदालाल दीक्षित के पैदल सैनिकों, घुड़सवारों व हथियारों से सम्पन्न ‘मातृवेदी’ संगठन के बैनर पर बिस्मिल ने अंग्रेजों के खिलाफ जो सशस्त्र संघर्ष चलाया, उसमें एक मुकाबले में कहते हैं कि पचास गोरे सैनिक मारे गये और 35 क्रांतिकारी देश के काम आये थे. तब बिस्मिल को दो वर्षों के लिए भूमिगत हो जाना पड़ा था. अंगे्रजों ने उन्हें मैनपुरी षडयंत्र केस का भगोड़ा घोषित कर उसमें पकड़े गये क्रांतिकारीयों को लम्बी-लम्बी सजायें सुना दीं तो बिस्मिल ने चंद्रशेखर ‘आजाद’ के नेतृत्व वालेे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों का नया दौर आरम्भ किया.

लेकिन काकोरी ऐक्शन के बाद वे पकड़ लिये गये और लखनऊ की सेंट्रल जेल की ग्यारह नम्बर की बैरक में रखे गये. सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले बिस्मिल ने इसके बाद बखूबी ‘बाजु-ए-कातिल’ का जोर देखा. शहादत से पहले उनकी वीरमाता मूलारानी उनसे मिलने गोरखपुर जेल पहुंचीं तो उनकी डबडबाई आंखें देखकर अपने कलेजे पर पत्थर रखकर उलाहना-सा दिया, ‘अरे, मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा बहादुर है और उसके नाम से अंगे्रज सरकार भी थरथराती है. मुझे पता नहीं था कि वह मौत से इतना डरता है!’ फिर जैसे इतना ही काफी न हो, उनसे पूछा, ‘तुझे रोकर ही शूली चढ़ना था तो इस राह पर कदम ही क्यों रखा?’

इस पर बिस्मिल ने जवाब दिया था, ‘मेरी आंखें फांसी के डर से नहीं डबडबाई हुई मां. वे इसलिए छलक आई हैं कि उन्हें पता है कि अब तेरी जैसी बहादुर मां नहीं पाने वाली.’

कम ही लोग जानते हैं कि बिस्मिल की शहादत के बाद क्रूरतम रूप में आई गरीबी और सामाजिक कृतघ्नता ने इस वीर माता को भी खून के आंसू रुला दिये थे. बिस्मिल की दादी को भी उनकी शहादत की कुछ कम कीमत नहीं चुकानी पड़ी थी. अपनी दुस्सह निर्धनता के दिनों में उन्हें उस दान पर निर्भर करना पड़ा था, जो एकादशी आदि पर शहीद की दादी नहीं, ब्राह्मणी होने के चलते उन्हें मिल जाता था.

क्रांतिकारी संघर्षों के इतिहास के गम्भीर अध्येता सुधीर विद्यार्थी बताते हैं कि उन दिनों क्रांतिकारियों की शहादतों के प्रति सामाजिक कृतघ्नता चरम पर थी. ब्रिटिश साम्राज्य के कहर और कोप के डर से लोग उनसे दूर रहने में ही भलाई समझते थे. लेकिन 1936 में तुर्की, अब तुर्किए, के क्रांतिकारी मुस्तफा कमाल पाशा ने साउथ ईस्ट अनातोलिया स्थित अपने देश के दियारबाकिर राज्य में ‘बिस्मिल शहर’ बसाकर उनकी शहादत को सलाम किया था. दियारबाकिर अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ है विद्रोहियों का इलाका. पाशा ने दियारबाकिर से ही क्रांति की शुरुआत की थी. उन्होंने अपने संस्मरणों में भी खुद को बिस्मिल से बेहद प्रभावित बताया है. वे उनके लिए भारतीय क्रांति के प्रतीक थे.

यों, यह मामला एकतरफा नहीं था. बिस्मिल पर भी पाशा का जादू सिर चढकर बोलता था. 1922 में, जब तुर्की में विजय दिवस मनाया गया था, बिस्मिल ने ‘प्रभा’ पत्रिका में ‘विजयी कमाल पाशा’ शीर्षक लेख लिखा था.

गोरखपुर की जेल में लिखी आत्मकथा

अपनी शहादत से दो दिन पूर्व तक बिस्मिल गोरखपुर में जेल अधिकारियों की नजर बचाकर अपनी आत्मकथा लिखते रहे थे. इस आत्मकथा को तीन बार में चुपके-चुपके बाहर भेजा गया और बिस्मिल के शहादत वर्ष में ही प्रकाशित कराया गया था. बिस्मिल ने नौजवानों में क्रांति की चेतना पैदा करने वाली कुछ कविताएं और गजलें भी रची हैं, लेकिन उनकी आत्मकथा का इस अर्थ में ज्यादा महत्व है कि वह क्रांतिकारी आन्दोलन की शक्ति ही नहीं, उसकी कमजोरियों का भी पता देती है. इसका भी कि किस तरह कई क्रांतिकारी नामधारियों की प्रांतीयताजनित संकीर्णताएं व भेदभाव क्रांतिकारी आन्दोलन की जड़ें मजबूत करने में गम्भीर बाधाएं खड़ी करते रहते थे और किस तरह विभिन्न ऐक्शनों में कमजोर इच्छाशक्ति वाले साथी पुलिस के दमन, अत्याचार व माफी जैसे प्रलोभनों के सामने टूटकर सारा भेद खोल देते थे.

काकोरी ऐक्शन में बिस्मिल को फांसी के फंदे तक पहुंचाने में भी ऐसे साथियों की बड़ी भूमिका थी. बिस्मिल के ही शब्दों में हालत यह थी कि ‘जिन्हें हम हार समझे थे, गला अपना सजाने को, वही तब नाग बन बैठे थे हमारे काट खाने को.’ इन ‘काट खाने को बैठे’ नागों में सबसे बड़ा नाम उस बनारसीलाल का था, जिसने पुलिस के बहकाने पर सेशनकोर्ट में अपने बयान में यह तक कह दिया था कि बिस्मिल क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए धन जुटाने हेतु अंजाम दिये गये ऐक्शनों से हासिल रूपयों से अपने परिवार का निर्वाह करता है.

यह बनारसीलाल ‘क्रांतिकारी’ बनने से पहले रायबरेली जिला कांग्रेस कमेटी का मंत्री रह चुका था और असहयोग आन्दोलन में उसने छः महीनों कैद की सजा भी भोगी थी. बिस्मिल उस पर बहुत स्नेह रखते थे और आन्दोलन में पैसों की तंगी के वक्त भी उसे किसी तरह की कोई कमी नहीं होने देते थे. फिर भी वे उसे इकबाली मुल्जिम बनने से नहीं रोक पाये थे. अपनी अंतिम गजल में संभवतः इसी को लेकर उन्होंने लिखा था: मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या! दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या! मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब खयाल, उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या! आखिरी शब दीद के काबिल थी ‘बिस्मिल’ की तड़प, सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या!

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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