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Thursday, 2 May, 2024
होममत-विमतराहुल गांधी को कांग्रेस नेतृत्व पर साफ करना चाहिए अपना रुख, चिंतन शिविर से काम नहीं चलेगा

राहुल गांधी को कांग्रेस नेतृत्व पर साफ करना चाहिए अपना रुख, चिंतन शिविर से काम नहीं चलेगा

अगर 137 साल पुरानी पार्टी अब भी अपने बुनियादी विचारों और मूल विचारधारा पर बहस में फंसी है और हर कोई एकमत नहीं हो सकता तो आगे की राह लगती है मुश्किल भरी.

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नासमझी में बार-बार एक चीज दोहराई जा रही है और अलग तरह के नतीजों की उम्मीद की जा रही है. कांग्रेस एक जैसी बातें कर रही है, जिसे पार्टी को समझने की दरकार है. हाल में हुआ चिंतन शिविर 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले 2018 में हुए पार्टी के 84वें अधिवेशन की छाया भर लगा. उदयपुर में पिछले हफ्ते के शिविर में जो देखा गया, उससे वे तीन दिन ज्यादा वजनदार और प्रभावी लगे थे.

कांग्रेस का 1885 से 2022 तक का सफर एक अनोखी दास्तां रहा है, जिसमें कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे गए हैं. अलबत्ता पिछले दशक में कांग्रेस चुनावी तौर पर अपने सबसे निचले स्तर पर दिखी है, मगर पार्टी का 137 साल पुराना इतिहास हमें शायद अब भी यकीन दिलाता है कि वह आखिरी मुकाम पर नहीं पहुंची है. चिंतन शिविर उसी दिशा में एक कोशिश थी, ताकि पार्टी बियावान में कहीं खो न जाए. पार्टी को आखिर यह एहसास हो गया है कि कुछ तो गड़बड़ है, जिसे सुधारने की जरूरत है.


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नौसिखिएपन की गलतियां

कांग्रेस का सफर सौ साल से ज्यादा पुराना है और अभी तक वह जिंदा है इसलिए उसकी वस्तुपरक समीक्षा और तीखी आलोचना से छुट्टी नहीं मिल जाती है. तथ्य तो यह है कि लंबे अनुभव और सबक लेने के समृद्ध इतिहास के बावजूद पार्टी आज भी नौसिखिए जैसी गलतियां करती है, जिसे देख हैरानी होती है.

यह कल्पना से भी परे है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के हटने के तीन साल बाद भी उन्हे वापस जिम्मेदारी संभाल लेने का सवाल चिंतन शिविर में घुमड़ता रहा है, जबकि उसका साफ-साफ जवाब दिया जाना चाहिए था, बाद के लिए टाला नहीं जाना चाहिए था. जिम्मेदार नेता होने के नाते जवाब देना राहुल गांधी का दायित्व है, ताकि पार्टी इस दुविधा से निकले और एक सक्षम नेतृत्व के तहत सुधार की ओर बढ़े. लेकिन हमेशा की तरह, सवाल अनुत्तरित ही रह गया, जबकि अगला लोकसभा चुनाव बस दो साल दूर है.

साथ ही कांग्रेस की विचारधारा में पूरी तरह नरम हो चुकी है. शिविर में इस पर धारदार बहस हुई कि कांग्रेस विचारधारा के स्तर पर बीजेपी से कैसे लोहा ले. कमलनाथ, भूपेश बघेल और उत्तर प्रदेश के आचार्य प्रमोद कृष्णन जैसे नेताओं की राय थी कि कांग्रेस को बहुसंख्यकवाद की ओर बढऩा चाहिए और हिंदू वोटरों को लुभाने के लिए नरम हिंदुत्व का रुख अपनाना चाहिए. इसका दक्षिण भारतीय नेताओं के साथ महाराष्ट्र केे नेता पृथ्वीराज चव्हाण ने तीखा विरोध किया और धर्मनिरपेक्षता पर टिके रहने पर जोर दिया. लेकिन सच्चाई तो यही है कि अपने-अपने क्षेत्रों में कांग्रेस नेता चुनाव जीतने के लिए पसंदीदा रवैया अपनाते हैं और पार्टी की मूल विचारधारा बेमानी हो गई है. बघेल ने खुद स्वीकार किया कि वे बीजेपी के हिंदुत्व की काट के लिए हिंदुओं के मनपसंद कार्यक्रम कर रहे हैं.

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अगर पार्टी 137 साल के वजूद के बावजूद अभी भी अपने बुनियादी विचारों और मूल विचारधारा पर बहस कर रही है और हर कोई एकमत नहीं हो सकता तो आगे की राह मुश्किल होगी. अगर हम मान लें कि इस चिंतन शिविर में पार्टी ने जो कुछ वादा किया, सब पर अमल होगा,-यानी एक परिवार एक टिकट, सभी पार्टी पदों के लिए 50 वर्ष से कम की आयु सीमा, प्रशिक्षण कार्यक्रम और लोगों से जमीनी स्तर पर जुड़ाव वगैरह-तब भी समूचा आयोजन अधकचरा, बस मनोबल बढ़ाने के लिए पीआर जैसा ही लगा. कपिल सिब्बल और हार्दिक पटेल जैसे नेता नदारद रहे और मोदी की सराहना करने वाले गुलाम नबी आजाद पहली पांत में बैठे दिखे, तो चिंतन शिविर में भागीदारी के खास मायने नहीं दिखते.

कांग्रेस नेतृत्व, खासकर गांधी परिवार बुलाने, सलाह लेने में बेहद लोकतांत्रिक और विनम्र दिखा और चिंतन शिविर में छह अहम समितियों की जिम्मेदारी जी-23 के सात नेताओं मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, शशि थरूर और अखिलेश प्रताप सिंह को दी गई. ये कांग्रेस नेता नेतृत्व परिवर्तन और पार्टी के कामकाजी ढांचे में सुधार की मांग करते रहे हैं.

लेकिन राजद्रोह के कानून पर रोक की कोशिश कर रहे कपिल सिब्बल पार्टी के इस आत्ममंथन से गैर-हाजिर रहे. वे व्यावहारिक तौर पर कांग्रेस के ऐसे सबसे खास चेहरे हैं जो पहले भी और अब भी कांग्रेस के लिए कई कानूनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं और विजयी भी रहे हैं. कांग्रेस नेतृत्व राजद्रोह के फैसले में उनके योगदान को अभी कबूल नहीं किया है.
हार्दि पटेल भी तीन दिन के शिविर सेे दूर रहे. कुछ का कहना है कि कई राज्य कार्यकारी अध्यक्षों को निमंत्रण नहीं दिया गया था.

ऐसा लगता है कि कांग्रेस उसी चक्र में बार-बार घूम रही है और अलग नतीजे पाने की उम्मीद कर रही है. वह युवा नेताओं को अहम पद देने की बात करती है लेकिन घूम-फिर कर वही नेता उसी सवाल पर टिके हुए जिसका कोई निश्चित जवाब नहीं है. काबिलियत शायद ही चर्चा में आ पाती है, जिस पर नेता की उम्र या परिवार से परे देखा जाना चाहिए.
अब देखना यह है कि चिंतन शिविर में बनी समितियों की रिपोर्टें क्या कहती हैं, जो कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी की सौंपी जानी हैं. क्या फिर वही महीनों रिपोर्टों पर कुंडली मारे बैठे रहने वाला नजारा दिखेगा? या उन्हें व्यवहार में उतारा जाएगा और सुझावों पर अमल होगा, ताकि पार्टी में फौरन अहम सुधार दिखेगा?

(यह लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखिका राजनैतिक टिप्पणीकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @zainabsikander विचार निजी हैं

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