चुनाव के लिए तैयार हो रहे असम में पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर जो हमला किया उसे बस इस बात की मिसाल माना जा सकता है कि कोई कोशिश किस तरह आधी-अधूरी, देर से की गई और लचर हो सकती है. सीएए का मुद्दा राज्य में सत्तासीन भाजपा को कठघरे में खड़ा करने और उसके नये जनाधार को खिसकाने का अच्छा हथियार बन सकता था.
लेकिन कांग्रेस पार्टी ने सीएए के खिलाफ निरंतर मजबूत अभियान चलाने का मौका और समय गंवा दिया है, जबकि इसके लिए उसे पूरे पांच वर्ष मिले. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इसका विधेयक लोकसभा में 19 जुलाई 2016 को पेश किया था. मोदी सरकार जिस तरह इसे आगे बढ़ा रही थी, उसके खिलाफ असम में राहुल और उनकी पार्टी का जवाब एकजुट, मजबूत और मुखर होना चाहिए था, क्योंकि यह एक ऐसा राज्य है, जहां यह कानून भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है.
लेकिन ध्रुवीकरण करने वाले असम के मामले में सवालिया कानून की कांग्रेस ने जिस तरह आलोचना की है वह अगर-मगर वाली, भ्रमित और अनमनी किस्म की रही है. अब जबकि असम में चुनाव होने ही वाला है, राहुल और प्रदेश कांग्रेस के नेता गौरव गोगोई ने सीएए-विरोध का ‘अक्सोम बसाओन अहोक’ (असम बचाओ) अभियान शुरू किया है. ऐसे अभियान की उसे बहुत जरूरत थी लेकिन इसमें इतनी देर की जा चुकी है कि कांग्रेस को कोई लाभ मिलने की संभावना नहीं दिखती; वैसे भी इस मुद्दे पर ब्रह्मपुत्र और बरक घाटी में उसके अलग-अलग रुख के चलते इस कानून के पर उसका रुख अनिश्चित ही नज़र आता है. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव ने साबित कर दिया है कि इस मुद्दे ने असम के मतदाताओं को भाजपा के खिलाफ नहीं किया है. कांग्रेस ने ब्रह्मपुत्र घाटी में तो सीएए का विरोध किया है मगर बंगाली बहुसंख्या वाली बरक घाटी में वह इससे सुरक्षित दूरी बनाए हुए है.
इसके अलावा, विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा पर सीएए को लेकर हमला करने से कांग्रेस की छवि अवसरवादी पार्टी की बनती है, कि वास्तव में वह असमी लोगों की चिंता करने की बजाय मुद्दे का राजनीतिक फायदा उठाना चाहती है. असम को इससे सुरक्षा की जरूरत तो है मगर कांग्रेस की नींद काफी देर से टूटी.
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भाजपा पर हमले का पूरा मौका
असम में बहिरागत विरोधी भावना मुखर रही है और वह स्थानीय और बाहरी लोगों के बीच लंबे समय से हिंसक टकराव झेलता रहा है. इसमें धर्म और क्षेत्र से जुड़ी तीखी भावनाएं भी जुड़ी रही हैं, जो उन लोगों के खिलाफ गुस्से के रूप में फूटती रही हैं जो मूल असमी नहीं हैं और बाहर से आकार वहां बसे हैं. यह टकराव मुख्यतः स्थानीयता और भाषाई कारणों से रहा है, न कि सांप्रदायिक कारणों से, जबकि भाजपा अपने हिंदू -मुस्लिम मुद्दे के मद्देनजर इसे वैसा रंग देना चाहती होगी. दशकों से असम का गुस्सा जिन बाहरी लोगों के खिलाफ भड़कता रहा है उनमें बांग्लादेशी से लेकर बंगाली हिंदू, बिहारी, मारवाड़ी, पंजाबी आदि शामिल रहे हैं.
आज के युग में बाहर से आकर बसने वालों के प्रति दुराव या अलगाव के लिए कोई जगह नहीं हो सकती. बल्कि कुछ समय से ऐसा लग रहा था कि असम अपने उथलपुथल भरे अतीत से मुक्त हो रहा है. और अभी जबकि कुछ जख्म भरने लगे थे तभी सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में 2015 में जब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को संशोधित करने का काम शुरू हुआ, वे जख्म फिर हरे हो गए. और सीएए को लेकर मोदी सरकार के ज़ोर ने इस जख्म पर नमक छिड़कने का काम किया. मूल असमी लोग सभी बहिरागतों की पहचान करने के लिए एनआरसी की मांग लंबे समय से कर रहे थे. लेकिन सीएए ने बहिरागतों को धर्म के आधार पर बांटने और सभी गैर-मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता देने की आशंका को मजबूत कर दिया.
दरअसल, राज्य में आकर बसे और उसके संसाधनों का दोहन कर रहे सभी गैर-असमी लोगों के खिलाफ आक्रोश से पैदा हुए पूरे असम आंदोलन को सीएए ने गैर-मुस्लिम प्रवासियों को वैध नागरिक बनने का मौका देकर बेमानी कर दिया. इसलिए यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भाजपा ने नया नागरिकता कानून लाकर असम में आग से खेलने की कोशिश की है. पूर्वोत्तर में भाजपा के विस्तार पर लगाम लगाने, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में सेंध लगाने और हिमंत बिस्वा सरमा की चुनावी पकड़ ढीली करने में अगर किसी एक मुद्दे ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई है तो वह है सीएए.
लेकिन आज़ाद भारत में असम पर सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कॉंग्रेस को इस मुद्दे के रूप में जो कारगर हथियार हाथ लगा था उसका इस्तेमाल करके असम के लोगों के हक़ में आवाज़ उठाने में वह विफल साबित हुई.
चूक गई कांग्रेस
असम में कांग्रेस की जड़ें गहरी रही हैं, और उसका संगठन भी व्यापक रूप से फैला रहा है. वहां सत्ता का उसका पिछला दौर दिग्गज नेता तरुण गोगोई के नेतृत्व में लगातार तीन कार्यकाल तक जारी रहा था. इसके बाद भाजपा ने आश्चर्यजनक तेजी से वहां अपना विस्तार कर लिया. मोदी की लोकप्रियता और राज्य के बारे सरमा की समझ ने उसे असम पर आसानी से पकड़ बनाने में मदद की. लेकिन सीएए के विधेयक की मंजूरी के बाद 2019 के अंत में जो व्यापक आंदोलन हुआ उसने साबित कर दिया कि यह उसके लिए एक पेचीदा मुद्दा है.
फिर भी भाजपा इसे दो कारणों से किनारा करने में सफल रही है. एक, उसने अपने राजनीतिक सोच के मुताबिक इस मुद्दे को स्थानीयता से अलग सांप्रदायिक रंग देकर लोगों का ध्यान भटका दिया. दूसरे, असम में ऐसा कोई प्रभावी विपक्ष नहीं है जो इस पेचीदे मुद्दे के खिलाफ निरंतर आक्रामक अभियान चला सके. यहां पर कांग्रेस की भूमिका को लेकर सवाल उठता है.
इतनी ही दोषी है असम की दूसरी प्रमुख पार्टी असम गण परिषद (एजीपी), जिसका जन्म स्थानीय असमियों के पैरोकार के रूप में हुआ था. इसने पहले तो सीएए के मुद्दे पर भाजपा से संबंध तोड़ा, फिर उससे वापस जा मिली. उसका यह ढुलमुल रवैया उसकी मौजूदा बदहाली ही उजागर करता है.
सिलचर की पूर्व सांसद सुष्मिता देव 2019 का लोकसभा चुनाव सीएए पर कांग्रेस के दोहरे रुख—ब्रह्मपुत्र घाटी में सीएए का विरोध और बंगाली बहुमत वाली बरक घाटी में इस पर चुप्पी—के कारण हार गईं. तब से उन्होंने इस कानून के खिलाफ बोलना बंद कर दिया है. 2019 के चुनाव से पहले असम की यात्रा में मैंने पाया था कि लोग सीएए के मुद्दे को दरकिनार करके भाजपा को वोट देने को तैयार थे, जो कि विपक्ष की विफलता उजागर कर रहा था.
राहुल गांधी और गौरव गोगोई के नेतृत्व में अब इस मुद्दे को पूरी ताकत से उठाया तो है मगर इससे कोई खास फायदा होने की उम्मीद नहीं है, सिवा इसके कि यह चुनाव अभियान में नयी नारेबाजी से कुछ गरमी पैदा कर दे.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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