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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार ने जो लाभ उठाने का मौका राहुल गांधी को दिया, खतरा है कि वो उसको गंवा दें

मोदी सरकार ने जो लाभ उठाने का मौका राहुल गांधी को दिया, खतरा है कि वो उसको गंवा दें

हाल के कांग्रेस नेता राहुल गांधी के तीर उतने निशाने पर नहीं लगे जैसे ‘सूट-बूट वाली सरकार’ का तंज़ निशाने पर लगा था, उन्हें बेरोज़गारी का मुद्दा उठाना चाहिए.

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इस सप्ताह के शुरू में राहुल गांधी ने अपने मां और मनमोहन सिंह के साथ जी-20 देशों के राजदूतों के साथ लंच पर मुलाक़ात की. इन राजदूतों ने अगर विदेश नीति के प्रति राहुल के नज़रिए पर उनसे एक औपचारिक बयान की अपेक्षा की तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता. लेकिन राहुल एक टेबल से दूसरी टेबल तक घूम-घूमकर सबसे मिले और केवल हल्की-फुल्की गप भर की. वहां मौजूद एक कूटनयिक ने इसे समय की बरबादी कहा, तो दूसरे ने इसे मौका गंवाना बताया.

अगर आम धारणा यह बन रही है कि पिछले नवंबर-दिसंबर के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिले झटकों से उबरने में प्रधानमंत्री सफल हुए हैं, तो इसकी एक वजह यह है कि विपक्ष अपना नज़रिया स्पष्ट करने में विफल रहा है. दूसरी ओर मोदी सरकार ने अपनी उपलब्धियों को गिनाने वाले पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापनों की बौछार कर दी है. अपनी चौथी वर्षगांठ मना रही दिल्ली की ‘आप’ सरकार भी यही कर रही है. मोदी तो यह दोहराते थक नहीं रहे हैं कि उनकी सरकार बनने से पहले कुछ हुआ ही नहीं. और विडम्बना यह है कि उनके इस दावे को कोई चुनौती नहीं मिल रही है. सुभाषचंद्र बोस से लेकर वल्लभ भाई पटेल और महात्मा गांधी तक इतिहास के सभी दिग्गजों पर भाजपा अपना दावा ठोकती जा रही है और कांग्रेस मूक दर्शक बनकर देख रही है.


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राहुल अब तक कई मुद्दों को लेकर मोदी पर हमले करते रहे हैं लेकिन वे उतने प्रभावी होते नहीं दिख रहे जितना उनका ‘सूट-बूट की सरकार’ वाला पुराना जुमला रहा. राफेल सौदे को लेकर उनके आरोपों की धार को सीएजी की रिपोर्ट ने कुंद कर दिया, जिसने इस सौदे में ‘सॉवरेन गारंटी’ को छोड़ने की कीमत का हिसाब नहीं बताया. मोदी को चोर बताने की मुहिम कारगर होती इसलिए नहीं दिखती क्योंकि पैसे के लेन-देन का (बोफोर्स की तरह) कोई संकेत नहीं उभर रहा. इससे भी बदतर तो यह है कि कोई भी मूर्ख यह समझ सकता है कि पुलवामा-बालाकोट कांड के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर मोदी को चुनौती देना टेनिस स्टार नाडाल से क्ले कोर्ट पर भिड़ने जैसा है. चतुराई किसानों के संकट और बेरोज़गारी के मुद्दों की ओर यथाशीघ्र लौटने में ही है, जिनमें मोदी को बचाव की मुद्रा में जाना पड़ता है.

हकीकत यह है कि मनमोहन सिंह सरकार की जो भी विफलताएं (जिनके चलते वह चुनाव हारी) रही हों, उसकी उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं. भाजपा जबकि ‘नामुमकिन अब मुमकिन है’ जैसे नारे उछाल रही है, राहुल के लिए स्पष्ट विकल्प यह था कि वे मतदाताओं को याद दिलाते कि कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार पहले ही नामुमकिन को मुमकिन कर चुकी है और दोबारा भी ऐसा कर सकती है; कि उसने गरीबी में अभूतपूर्व दर से नाटकीय कमी लाकर दिखाया, बुनियादी ढांचे के ऊपर निवेश को (जीडीपी के मुक़ाबले) दोगुना बढ़ाया, सभी बड़े शहरों में नए हवाईअड्डे बनवाए, बिजली उत्पादना क्षमता इतनी बढ़ाई कि बिजली की कमी पहली बार खत्म हो गई, यूपीए सरकार के खत्म होने तक वामपंथी उग्रवाद में भारी कमी दर्ज की गई, कश्मीर में उल्लेखनीय शांति बहाल हुई, कृषि उपज का रिकार्ड टूटा और फसलों की विविधता भी बढ़ी, ‘आधार’ का काम शुरू हुआ, सूचना के अधिकार से नागरिकों को और ताकत मिली, ग्रामीण रोज़गार गारंटी कार्यक्रम लागू किया गया, नए कानून के तहत 20 लाख वनवासियों को भूमि का अधिकार मिला, एड्स से लड़ने में कामयाबी हासिल की गई, आदि-आदि. क्या यह सब याद दिलाने से कांग्रेस को मोदी के इस दावे की काट करने में सफलता नहीं मिलती कि काम सिर्फ वे ही कर सकते हैं? अगर इस सवाल का जवाब हां है, तो राहुल इसमें हिचक क्यों रहे हैं, जैसा कि वे जी-20 के राजदूतों से मुलाक़ात के दौरान हिचक रहे थे?


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आम राय तो यही है कि शुरुआती लड़खड़ाहटों से आगे बढ़कर राहुल अब एक गंभीर राजनेता के तौर पर उभर चुके हैं. राजनीति को लेकर गंभीर होने में उन्हें बेशक समय लगा (संसद में तो वे 15 साल पहले ही आ चुके थे). पिछले छह वर्षों से वे पार्टी के उपाध्यक्ष से लेकर अध्यक्ष तक की भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन इस अवधि में वे पार्टी को ग्रासरूट पर फिर से संगठित करने में या नए नेताओं को सामने लाने में असफल दिखे हैं. फिर भी चुनावों में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है, जबकि भाजपा अपनी 13 पुरानी सीटों में से सिर्फ पांच ही बचा पाई है. लेकिन सरकार के गलत कदमों ने राहुल को जो बढ़त प्रदान की थी उसे वे गंवाते दिख रहे हैं. यह खतरा दिल्ली और सबसे अहम उत्तर प्रदेश में गठबंधन बनाने में विफलता के कारण बढ़ता नज़र आ रहा है.

बिज़नेस स्टेंडर्ड से विशेष करार के तहत प्रकाशित 

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