विपक्ष के नेता राहुल गांधी के संसद में हाल ही में दिए गए भाषण का राजनीतिक विश्लेषकों और भारतीय जनता दोनों को बेसब्री से इंतजार था. आखिरकार, वे लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के साथ कड़ी टक्कर के बाद विपक्ष के एजेंडे के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे.
इस मामले में स्पष्ट रूप से देश को निराश नहीं होना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष करने से लेकर संसद में हिंदू धर्म का राजनीतिक से प्रेरित संदर्भ देना, यह टिप्पणी करना कि हिंदू हिंसक है और मणिपुर पर सवाल उठाने तक, हर उस चीज को संबोधित किया गया जिसके बारे में कोई भी उम्मीद कर सकता था.
हालांकि राहुल गांधी ने अपने नए-नए मिले आत्मविश्वास ठोस चुनौती देने की कोशिश की, लेकिन वे विवादों को जन्म देने से नहीं बच सके. उन्होंने धर्म के प्रतीक और कांग्रेस के चुनाव चिह्न पंजे के बीच समानता दिखाने के लिए ‘अभय मुद्रा’ (खुली हथेली की छवि) का हवाला दिया. हालांकि, राहुल गांधी द्वारा इसे हर धर्म से जोड़ने का प्रयास इस्लामी धर्मगुरुओं में से कुछ को रास नहीं आया.
जबकि नेता प्रतिपक्ष का इरादा सराहनीय था, लेकिन यह भी बात साफ है कि वे अच्छी तरह से तैयार नहीं थे. उन्होंने यह बात कह के अज्ञानता का प्रदर्शन किया कि मुसलमान नमाज़ के दौरान अभय मुद्रा का उपयोग करते हैं.
ऑल इंडिया सूफी सज्जादानशीन काउंसिल के अध्यक्ष सैय्यद नसीरुद्दीन चिश्ती और गद्दी नशीन दरगाह अजमेर शरीफ के हाजी सैयद सलमान चिश्ती दोनों ने इस भाषण पर आपत्ति जताई. उन्होंने दावा किया कि इस्लामी आध्यात्मिक परंपरा या कुरान में ईश्वर के ऐसे प्रतीकवाद या चित्रण के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इस्लाम में मूर्तिपूजा का कोई उल्लेख नहीं है, न ही किसी तरह की मुद्रा है, और राहुल गांधी को अपनी जानकारी को सही करने की ज़रूरत है.
एक फिसलन भरी ढलान
एक भारतीय मुसलमान के रूप में, मैंने देखा है कि चित्रों और प्रतीकों का विषय बेहद विवादास्पद है. उदाहरण के लिए, भारत में मुसलमानों के बीच शब-ए-बारात के दौरान कब्रिस्तान जाने को लेकर बहुत मतभेद है, जो इस्लाम में सौभाग्य की रात मानी जाती है. शब-ए-बारात को उत्सवपूर्ण तरीके से रात भर जागकर प्रार्थना करनी होती है. अधिकांश क्षेत्रों में, यह एक ऐसी रात होती है जब लोग अपने मृत पूर्वजों को याद करते हैं. एक बरेलवी मुसलमान के रूप में पले-बढ़े होने के नाते, शब-ए-बारात का मेरी ज़िंदगी में काफी अहम् स्थान था. हालांकि, बाहरी संस्कृतियों के बढ़ते प्रभाव के साथ, इसे बिदह (मनगढ़ंत) माना जाने लगा, यहां तक कि कुछ लोगों द्वारा इसे पाप भी समझा जाने लगा.
इस्लाम में मूर्ति या चित्र/फोटो की पूजा की कोई अवधारणा नहीं है, और समय-समय पर, यह विचार मुस्लिम समुदाय में प्रचलित अन्य प्रथाओं तक भी फैला है. उदाहरण के लिए, दरगाहों पर जाना भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की परंपरा का हिस्सा रहा है, लेकिन अब इस परंपरा के खिलाफ़ कई आवाज़ें उठ रही हैं.
विशेष रूप से सुन्नी विद्वान किसी भी प्रकार के चित्र और प्रतीकवाद को बहुत सतर्क होकर अस्वीकार करते रहे हैं. पैगंबर मोहम्मद और अन्य दूतों का चित्र बनाना या उन्हें किसी चित्र के रूप में दिखाना इसलिए ईशनिंदा माना गया है ताकि किसी भी प्रकार के शिर्क (मूर्ति पूजा या बहुदेववाद) की संभावना से बचा जा सके, जिसे इस्लाम में पाप माना जाता है. भले ही ऐतिहासिक रूप से शिया विद्वानों ने इस तरह के चित्रण का विरोध किया है, फिर भी शिया और अलेवी मुसलमानों के बीच मौजूद इन चित्रों के उदाहरण सामने आए हैं.
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ये उदाहरण इस बात की जानकारी देते हैं कि सुन्नी विद्वान प्रतीकवाद और चित्र इत्यादि से दूर रहने को लेकर इतने कट्टर कैसे हैं. और वे इस बात की भी पुष्टि करते हैं कि इस विषय को लेकर समुदाय के भीतर काफी बारीकियां और दंद्व भी हैं. यह आसानी से कहा जा सकता है कि इस्लाम में कोई अभय मुद्रा नहीं है. हालांकि, अगर हम इस्लामी संस्कृति के हिस्से के रूप में विशेष रूप से हाथ के प्रतीक की पड़ताल करें, तो हम पाते हैं कि यह मध्य-पूर्वी मुसलमानों के बीच मौजूद है और इसे हिब्रू में हम्सा व अरबी में खम्सा कहा जाता है.
इस्लाम में हाथ का प्रतीक
खम्सा, जिसे फातिमा के हाथ के रूप में जाना जाता है, का पारंपरिक रूप से अब्राहमिक धर्मों में उल्लेख किया जाता है, विशेष रूप से इस्लाम की शिया परंपरा में, और माना जाता है कि यह बुरी नज़र से बचाता है. इसे एक दाहिनी हथेली के रूप में दर्शाया गया है जिसमें उंगलियां साथ-साथ हैं और ऊपर की ओर इंगित करती हुई हैं. शिया हदीस की विशेषज्ञ और एक्सेटर विश्वविद्यालय से इस्लामिक अध्ययन में पीएचडी करने वाली अमीना इनलोस के अनुसार यह एक सांस्कृतिक या क्षेत्रीय प्रतीक है. अभय के प्रतीक के रूप में हाथ, इस्लाम से पहले का है और यह मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है; उदाहरण के लिए, यहूदी भी हाथ के प्रतीक का उपयोग करते हैं, और कुछ लोग इसे “मैरी का हाथ” कहते हैं.
हालांकि, इनलोस ने कहा, कुछ शियाओं ने इसे अहल अल-किसा/पंजतन (यानी पैगंबर मुहम्मद, उनकी बेटी फातिमा, उनके चचेरे भाई और दामाद अली और उनके दो पोते हसन और हुसैन) का प्रतिनिधित्व करने के लिए उपयोग करके इसे धार्मिक महत्व दिया है. खम्सा का उपयोग शियाओं द्वारा फातिमा द्वारा दी गई सुरक्षा का प्रतीक करने के लिए भी किया जाता है. यह उसकी स्थिति और महत्व का संकेत है.
चूंकि यह हाथ की मुद्रा सांस्कृतिक और क्षेत्रीय परंपराओं के मूल में है, इसलिए यह मध्य-पूर्व में यहूदी और मुस्लिम दोनों क्षेत्रों में मौजूद है. यह भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम परंपराओं का हिस्सा नहीं है.
मैं समझती हूं कि राहुल गांधी की इच्छा एक ऐसे हिंदू प्रतीक के बारे में बात करने की, जो हिंदुत्व नहीं है और बहुलवाद पर ध्यान केंद्रित करने की थी, लेकिन उन्हें अधिक सावधान रहना चाहिए था. भारतीय धर्मों के बीच इस तरह की समानताएं स्थापित करना आसान है, लेकिन अब्राहमिक धर्मों के साथ ऐसा करने पर मुश्किल हो सकती है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नामक एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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