क्या आपको मालूम है कि उत्तराखंड के औली जैसे नयनाभिराम पर्वतीय स्थल को इधर व्यंग्यपूर्वक ऑलीगार्ची (मुट्ठीभर लोगों का धन व शक्ति से सम्पन्न कुलीन तंत्र, जिसका किसी देश या संगठन पर राजनीतिक आधिपत्य यानी नियंत्रण हो और जो इस स्थिति का उपयोग अपने हित के लिए ही करता हो) से क्यों जोड़ा जाने लगा है? नहीं मालूम तो आप दक्षिण अफ्रीका के भारतीय मूल के ‘सन्नाम’ कारोबारी गुप्ता बंधुओं के बारे में भी शायद ही जानते हों, जो वहां कारोबार करने के अलावा ऑलीगार्ची में शामिल होने या उससे अभिन्नता के लिए भी जाने जाते हैं.
प्रसंगवश, हाल ही में औली में इन ‘बंधुओं’ (अजय व अतुल) के दो बेटों की शादियां संपन्न हुईं, जिनमें रस्म व रिवाज से ज्यादा जोर ऐश्वर्य के प्रदर्शन और सामंती तामझाम पर था. एक रिपोर्ट के अनुसार इनके तामझाम व प्रदर्शन पर दो सौ करोड़ रुपये खर्च किये गये और इनमें राज्य के सांसदों के अलावा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत, योगगुरु बाबा रामदेव और कैटरीना कैफ व शाहरुख खान जैसे फिल्मी सितारों ने भी शिरकत की.
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सितारों के बारे में तो खैर कहा जा सकता है कि वे पारिश्रमिक लेकर अपना हुनर दिखाने यानी परफार्म करने आये होंगे, लेकिन सार्वजनिक जिम्मेदारी के पदों पर आसीन शेष महानुभावों से तो यह सवाल बनता ही है कि वे अपनी उपस्थिति से वहां कौन-सा ‘आदर्श’ उपस्थित कर रहे थे? गुप्ता बंधुओं और इन महानुभावों के बीच पारिवारिक रिश्ते जैसी कोई चीज अभी तक प्रकाश में नहीं आई है, जिसके बिना पर कहा जा सके कि वे उसकी जिम्मेदारियों से बंधे हुए थे, जबकि शादियों में दहेज और दिखावों के विरोध या प्रतिरोध के आदर्श का मजाक उड़ाये जाने के इस अवसर के साक्षी बनकर वे इस तरह का आदर्शन उपस्थित करने की सोच भी नहीं सकते थे.
बहरहाल, समता पर आधारित समाजवादी समाज बनाने के हमारे संवैधानिक संकल्प की चैतरफा अवहेलनाओं के इस दौर में हमारे नेता व मनीषी ऐसे आदर्शों की फिक्र भी नहीं करते. वरना उदयपुर व गोवा के साथ-साथ औली जैसे रमणीक प्राकृतिक स्थल देसी और एनआरआई धनपशुओं की डेस्टिनेशन वेडिंग के आदर्श क्यों बनते, जहां कई बार वे बरबस, और तो और, प्रकृति पर भी अपनी रईसी की धौंस जमाते दिखाई देते हैं? क्योंकि औली की इस बेहद खर्चीली शादी को ‘शाही शादी’ कहा जाता, ताकि उसमें पानी की तरह पैसा बहाने को अतिरिक्त गौरव व गरिमा प्रदान की जा सके.
क्या आश्चर्य कि यह ‘शाही’ मानसिकता अभी भी ऐसे प्रयत्नों में व्यस्त है, जिनसे इस तथ्य को नेपथ्य में रखा जा सके कि इन शादियों की गुप्ता बंधुओं से ज्यादा कीमत औली और उसके पर्यावरण को चुकानी पड़ी है. यह कीमत कितनी बड़ी है, इसे यों समझ सकते हैं कि उक्त शादियों के मेहमानों के लिए हेलीकाप्टरों की आवाजाही से जो शोर-प्रदूषण पैदा हुआ, उससे स्थानीय निवासियों की नींद तो हराम हुई ही, पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की दिनचर्या पर भी खासा बुरा असर पड़ा.
शादी संपन्न होने के बाद उनमें आये लोग अपने-अपने ठिकाने चले गये तो अपने पीछे भारी भरकम कूड़ा-कचरा छोड़ गये. इतना कि वहां के नगर निगम द्वारा ये पंक्तियां लिखने तक 235 क्विंटल से ज्यादा कूड़ा एकत्र किया जा चुका है और उसका कहना है कि पूरी सफाई होने में अभी कुछ दिन और लगेंगे. इस कचरे को कहां डाला जाएगा, उसमें कितना रिसाइकिल होगा और कितना धरती पर बोझ बना रहेगा, यह सफाई के बाद भी चिंता का विषय बना रहने वाला है.
इन शादियों के कारण होने वाले पर्यावरण के नुकसान का मामला नैनीताल हाईकोर्ट पहुंचा, तो उसने जिला प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कचरे के कारण हुए या होने वाले नुकसान पर 7 जुलाई तक रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा और अगली सुनवाई की तारीख 8 जुलाई तय की है. उसके आदेश के बाद गुप्ता बंधुओं की ओर से जमानत के तौर पर दो किस्तों में तीन करोड़ रुपये जमा कराए गये हैं और वे सफाई की पूरी लागत का भुगतान करने पर भी राजी हो गए हैं. लेकिन सवाल है कि वे सफाई में हुए खर्च से अधिक का भुगतान कर दें, तो भी क्या औली में पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई हो पाएगी?
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लेकिन क्या किया जाये, तेज विकास के सब्जबागों में विचरती हमारी व्यवस्था को प्रकृति और पर्यावरण के साथ ऐसे खिलवाड़ों की लत लग चुकी है. इसी लत के तहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गुजरात में उनकी महत्वाकांक्षी बुलेट ट्रेन परियोजना के किसानों द्वारा किये जा रहे गम्भीर विरोध को अनसुना कर महाराष्ट्र में मैंग्रोव के कोई चैवन हजार वृक्षों की बलि चढ़ाई जा रही है. पाठकों को याद होगा, इसी के तहत 2016 में दिल्ली में यमुना किनारे आध्यात्मिक गुरु कहे जाने वाले श्री श्री रविशंकर ने करोड़ों रुपए खर्च कर जो तामझाम रचा, उससे भी यमुना, उसके किनारे के खेतों और पर्यावरण को भारी नुकसान हुआ था. उसे लेकर एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित पंचाट ने श्री-श्री के आर्ट आफ लिविंग पर पांच करोड़ रुपयों का जुर्माना भी लगाया था. फिर भी प्रकृति पर इस तरह के अत्याचार की घटनाएं साल दर साल बढ़ती जा रही हैं.
यहां समझने की सबसे बड़ी बात यह है कि जब भी बाढ़ या सूखे के हालात बनते हैं, तो उसे प्रकृति का कहर कहा जाता है, लेकिन सच पूछिये तो कहर तो विकास के नाम पर लोगों को झांसा देकर अरबों कमाने और निर्भय होकर अपने अप्राकृतिक ऐश व आराम पर उड़ाने वाले बरपाते हैं. जब आप ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, देश का बड़ा हिस्सा जल संकट की चपेट में है. कई राज्यों में इंसेफेलाइटिस और चमकी बुखार व लू आदि के कारण क्या बच्चे और क्या बडे़-बूढ़े सबका जीवन खतरे में है. इन कारणों से तो लोग अपनी जानें गंवा ही रहे हैं, ऐसा ही रहा तो जल्द ही बारिश और बाढ़ से मौतों की खबरें भी आनी शुरू हो जाएंगी. लेकिन इन सबसे लापरवाह देश की सरकार संसद तक में विपक्षी कांग्रेस पार्टी से खुन्नस निकालने में व्यस्त है. ऐसे में देश की प्रकृति और जनता कैसी भी आपात स्थिति से क्यों न गुजर रही हो, वह उसके लिए चिंतित होने या ऑलीगार्ची के खिलाफ कोई कदम क्यों उठाएगी?
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)