scorecardresearch
शनिवार, 19 अप्रैल, 2025
होममत-विमत‘पंचरवाला’ शब्द मुसलमानों को अकुशल दिखाता है, लेकिन कोई भी सही सवाल नहीं पूछ रहा

‘पंचरवाला’ शब्द मुसलमानों को अकुशल दिखाता है, लेकिन कोई भी सही सवाल नहीं पूछ रहा

अब बहस इस बात पर है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में मुसलमानों का अपमान किया या फिर उनकी टिप्पणियों को संदर्भ से बाहर ले जाया गया.

Text Size:

यह पहली बार नहीं है जब प्रधानमंत्री ने मुस्लिमों को संबोधित करते हुए भाषण दिया और विवाद हुआ हो, न ही यह आखिरी बार होगा. अब तक, यह पैटर्न जाना-पहचाना रहा है: टिप्पणियां की जाती हैं, मीडिया में उनका विश्लेषण किया जाता है और उसके बाद कई दिनों तक आलोचना, बचाव और शोर-शराबा चलता रहता है. मोदी के हालिया भाषण ने एक और दौर छेड़ दिया है. इस बार, आरोप यह है कि उन्होंने मुसलमानों को ‘पंचरवाला’ कहा है — यह शब्द लंबे समय से दक्षिणपंथी समूहों द्वारा मुसलमानों को अकुशल, अनपढ़ लोगों के रूप में स्टीरियोटाइप करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जिन्हें वह काम करने के लिए छोड़ दिया जाता है, जो बाकी लोगों को उनके हिसाब से कमतर लगते हैं.

इस संदर्भ में यह टिप्पणी पीएम मोदी द्वारा वक्फ बोर्ड संशोधन के बचाव के हिस्से के रूप में आई, जहां उन्होंने कहा कि अगर वक्फ संपत्तियों का सही तरीके से उपयोग किया जाता, तो “मुस्लिम युवाओं को आजीविका के लिए पंक्चर टायरों की मरम्मत नहीं करनी पड़ती”. यह वाक्य भले ही आर्थिक चिंता के रूप में तैयार किया गया हो, लेकिन कई लोगों ने कुछ और ही सुना.

हां, कोई यह तर्क दे सकता है कि प्रधानमंत्री का बड़ा मुद्दा छूटे हुए मौकों के बारे में था. इस बारे में कि अगर वक्फ संसाधनों का सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो इससे ज़िंदगी में बदलाव आ सकता है. दरअसल, इसका उद्देश्य यह दिखाना हो सकता है कि मुस्लिम समुदाय के लिए इतना कुछ अलग रखे जाने के बावजूद उन तक कितना कम पहुंचा है. मैंने पहले भी तर्क दिया है कि वक्फ बोर्ड कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार का केंद्र बन गया है, लेकिन किसी बात को कैसे जताया जाता है, यह मायने रखता है. खासकर तब जब आप ऐसे समूह से बात कर रहे हों जो पहले से ही अलग-थलग महसूस करता है, जिस पर पहले से ही कई लेबलों का बोझ है.

पंचरवाला में क्या गड़बड़ है?

अब बहस इस बात पर घूम रही है कि मोदी ने मुसलमानों का अपमान किया या उनकी टिप्पणियों को संदर्भ से बाहर ले जाया गया. हालांकि, कोई भी सबसे बुनियादी सवाल नहीं पूछ रहा है: आखिर पंचरवाला अपमान कैसे बन गया. हम, एक समाज के रूप में, उन लोगों के लिए इतनी चुपचाप अवमानना ​​क्यों रखते हैं जो कठिन, शारीरिक काम करते हैं — जो टायर ठीक करते हैं, सड़कें साफ करते हैं, बोझा ढोते हैं? हम इसे ज़ोर से नहीं कहते, लेकिन यह हमारे बोलने के तरीके, हमारे चुटकुलों, हमारी चुप्पी में दिखता है. यह सिर्फ एक भाषण या एक विवाद के बारे में नहीं है. यह उस तरह के काम के बारे में है जिसे हमने सम्मान के लायक माना है और जिस तरह का काम हम सोचते हैं कि सिर्फ वह लोग करते हैं जो कहीं और विफल हुए हैं.

यह सड़क किनारे रिंच घुमाने वाले व्यक्ति के बारे में ज़्यादा हमारे बारे में बताता है क्योंकि ईमानदारी से कहें तो कोई भी व्यक्ति या कोई भी समाज जो पंचरवाला को अपमान के रूप में देखता है, वह विफल है. एक समाज जो सिर्फ डेस्क जॉब या अंग्रेज़ी बोलने वाले प्रोफेशनल से सम्मानजनक तरीके से बात करता है, वह इस मुद्दे को समझने से चूक गया है और इससे भी बुरी बात यह है कि इस बहस में दोनों पक्ष — जो लोग इस शब्द का इस्तेमाल हमला करने के लिए करते हैं और यहां तक ​​कि जो लोग इस पर आपत्ति जताते हैं — एक ही विचार को पुष्ट करते हैं: कि श्रम के बारे में कुछ कम है.

यहीं असली समस्या है. हमने एक ऐसा समाज बनाया है, जहां ईमानदारी से जीविकोपार्जन करने के लिए अपने हाथों से काम करने वाले लोगों को बुनियादी सम्मान नहीं मिलता, जहां केवल इंसान होना ही गरिमा की गारंटी नहीं है, जहां सम्मान अभी भी इस बात पर निर्भर करता है कि आप क्या पहनते हैं, आप क्या काम करते हैं, और क्या आप सत्ता की भाषा बोल सकते हैं.

यह मानसिकता पहले भी सामने आ चुकी है. याद कीजिए जब चुनावों के दौरान मोदी का चायवाला होने के लिए मज़ाक उड़ाया गया था? मानो चाय बेचना कोई शर्म की बात हो. उस वक्त, यह दूसरी तरफ के तथाकथित अभिजात वर्ग की गलती थी. भारतीय जनता पार्टी ने उपहास को चतुराई से पलट दिया, इसे एक प्रेरणादायक कहानी में बदल दिया — एक चायवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है. सुनने में बहुत बढ़िया लगता है और यह राजनीतिक रूप से कारगर भी रहा, लेकिन तब भी, एक बुनियादी बात छूट गई.

मुद्दा कभी यह नहीं था कि एक चायवाला किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में उभर सकता है या नहीं. मुद्दा यह था: सम्मान पाने के लिए उसे उभरना ही क्यों चाहिए? एक चायवाले को सम्मान की दृष्टि से क्यों नहीं देखा जा सकता? ऐसे लोगों को केवल तभी रोमांटिसाइज़ किया जाता है जब वह अपनी कठिनाई भरी ज़िंदगी को पीछे छोड़ देते हैं और यह दिखाता है कि एक ऐसे समाज का निर्माण करना कितना ज़रूरी है जहां लोगों को उनके काम के बावजूद नहीं बल्कि उसके कारण महत्व दिया जाता है, जहां एक चायवाला या पंचरवाला होने का बचाव करने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है.


यह भी पढ़ें: धारा 40 को हटाना वक्फ बोर्ड पर हमला नहीं, बल्कि बहुत ज़रूरी सुधार है


‘प्रतिष्ठा’ से परे देखिए

पंचरवाला या चायवाला की इज्ज़त क्यों नहीं है, इसका असली कारण यह है कि उनका काम गरीबी से जुड़ा है. इसलिए नहीं कि काम में मूल्य नहीं है, बल्कि इसलिए कि हमें वक्त के साथ चुपके से सिखाया गया है कि इज्ज़त स्थिति से मिलती है, कोशिश से नहीं. पांच सितारा होटल में चायवाला रेलवे प्लेटफॉर्म पर चायवाले से ज़्यादा गंभीरता से लिया जाता है. एक चमचमाती दुकान वाले मैकेनिक को छोटी दुकान में काम करने वाले से ज़्यादा सम्मान मिलता है.

हालांकि, यह अपमान सिर्फ गरीबी से जुड़ा नहीं है. यह काम, उस जाति से भी जुड़ा है जिससे काम जुड़ा है, और यह हमारी ‘प्रतिष्ठा’ की परिभाषा से कितना दूर है — जहां पैसा मायने रखता है, लेकिन शक्ति या धारणा से उतना नहीं. प्रतिष्ठा और उपलब्धियों वाले लोग — यहां तक कि अनैतिक काम करने वाले भी — प्रशंसा के साथ पेश आते हैं. यह हमारे द्वारा बनाए गए समाज के बारे में कुछ परेशान करने वाली बात कहता है. हम सफलता की ओर देखते हैं, भले ही वह खोखली हो और हम मेहनत को नज़रअंदाज़ करते हैं, भले ही वह ईमानदार हो.

हम तब तक खुद को सफल समाज नहीं कह सकते जब तक हम ऐसा राष्ट्र नहीं बना लेते जहां लोग अपने काम को इस आधार पर चुनें कि उसके क्या मायने हैं, न कि इस आधार पर कि उन्हें कितनी इज्ज़त मिलती है. तब तक, चाहे हम कितनी भी उपलब्धियां हासिल कर लें, हमारे समाज के दिल में कुछ न कुछ अधूरा ही रहेगा.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: भाजपा ने मुस्लिमों के लिए नई रणनीति बनाई है, सौगात-ए-मोदी सिर्फ बिहार चुनाव तक सीमित नहीं


share & View comments