‘रन ऑफ दि रिवर’ क्या होता है उससे पहले ये समझ लीजिए कि वास्तव में चमोली में हुआ क्या है? गंगा किसी एक धारा का नाम नहीं है, हिमालय की कई जलधाराएं मिलकर गंगा नदी को बनाती है. इसी तरह की एक छोटी सी धारा का नाम है ऋषिगंगा. थोड़े ऊपर की ओर मौजूद ग्लेशियर से यह धारा निकलती है. इस ग्लेशियर को नंदादेवी ग्लेशियर भी कहते हैं क्योंकि यह इलाका नंदादेवी रेंज का हिस्सा है.
कहा जा रहा है कि नंदादेवी ग्लेशियर टूटा. वास्तव में भूकंप जैसे कारणों को छोड़ दें तो ग्लेशियर टूटता नहीं है वह रास्ता बनाता है और वह रास्ता तब बनाता जब उसका रास्ता ब्लॉक हो जाता है. स्थानीय लोगों का मानना है कि पिछले कई दिनों से ऋषिगंगा की ऊपरी धारा पर पानी नहीं आ रहा था इसका मतलब है कि पानी ऊपर कहीं थम गया था (संभवत भूस्खलन के चलते नदी का रास्ता जाम हो गया था.) संबंधित एजेंसियों और प्रशासन ने इस पर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि बर्फ जमने के चलते धारा में बहाव कम होगा. उन्होंने इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया कि हिमालय के गर्म होने की चौतरफा वैज्ञानिक खबरें आ रही हैं.
बहरहाल, ग्लेशियर में बढ़ते दबाव ने एक झटके में अपने रास्ते की बाधा को हटा दिया और ऋषिगंगा मलबे की नदी बन गई. ऋषिगंगा आगे जाकर धौलीगंगा में मिल जाती है. इस मलबे ने रास्ते में निर्माणाधीन ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट (14 मेगावाट) को बहा दिया. जितने मजदूर गायब हुए सब इसी प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे. रविवार का दिन नहीं होता तो मजदूरों और इंजीनियरो की संख्या ज्यादा होती. यह प्रोजेक्ट रैणी गांव के पास है जो गौरा देवी का गांव है. गौरा देवी चिपको आंदोलन का चेहरा रही हैं उन्होंने इस प्रोजेक्ट के विरोध में 2019 में चिपको आंदोलन की वर्षगांठ नहीं मनाई.
ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट को बहाकर मलबा आगे बढ़ा और धौलीगंगा पर मौजूद तपोवन विष्णुगाड परियोजना को तहस नहस कर दिया इसके बाद पीपलकोटी परियोजना को भी भारी नुकसान पहुंचाया. पानी के बढ़ने से इस मलबे की मारक क्षमता बढ़ गई . ये सभी प्रोजेक्ट तथाकथित ‘रन ऑफ दि रिवर’ प्रोजेक्ट थे.
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‘रन ऑफ दि रिवर’ का मतलब होता है कि धारा को रोके बिना बिजली बनाना यानी इस तकनीक में पानी को इकट्ठा नहीं किया जाता और बहते पानी को ही टरबाइन में डालकर बिजली पैदा की जाती है. बेशक ये सुनने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन जमीनी सच्चाई एकदम उलट है.
बानगी देखिए – उत्तराखंड के पंचप्रयाग में एक प्रमुख प्रयाग है विष्णु प्रयाग. प्रयाग मतलब जहां दो नदियों का संगम होता है. विष्णु प्रयाग की नदियां हैं अलकनंदा और धौलीगंगा. इन्ही नदियों के संयुक्त जल पर विष्णुगाड – पीपलकोटी परियोजना बनाई गई थी. दोनों नदियों का पानी टनल में डाला और टनल में ही उनका संगम करा दिया. इसके बाद टनल को थोड़ी दूरी पर लेकर बिजली बना ली गई. जिसका सीधा परिणाम यह हुआ कि प्राचीन विष्णु प्रयाग का नामो-निशान ही मिट गया. अब आपका टूर ऑपरेटर या स्थानीय पंडा आपको ना बताए कि यह तीर्थ स्थान विष्णु प्रयाग है तो आप कभी नहीं जान पाएंगे. नदी को टनल में डालकर बिजली बनाने को ही कहते हैं – ‘रन ऑफ दि रिवर’.
कुल मिलाकर हिमालय को यह ‘रन ऑफ दि रिवर’ वाला सरकारी कॉसेप्ट पंसद नहीं आया. इस कॉसेप्ट को थोड़ा और डिटेल में समझ लेना चाहिए. बटरफ्लाई इफेक्ट से जलवायु परिवर्तन जैसे दावे साइड में रखिए और जो आंखों से देखा जा सकता है उसे महसूस कीजिए. टनल बनाने के लिए हिमालय में बड़ी मात्रा में विस्फोट किए जाते हैं, ये विस्फोट प्राकृतिक पानी स्रोतों की दिशा मोड़ देते हैं. यानी किसी गांव में सदियों से बहता आ रहा झरना इन विस्फोटों के चलते एकदम सूख जाता है, अब दिशा बदला हुआ पानी अपना रास्ता खोजता है वह रास्ता कच्चे हिमालय में कहां और किस रूप में निकलेगा कोई नहीं जानता. अगली बार आप तीर्थ यात्रा पर जाएं तो परियोजना के करीब बने पुराने मकानों को देखिएगा, उनमें पड़ी दरारें बताएंगी कि घाव कितना गहरा है.
पुरानी फिल्मों को कोई सीन याद कीजिए – डाक्टर कहता था कि आपको साफ हवा की जरूरत है पहाड़ पर चले जाइए. अब ‘रन ऑफ दि रिवर’ वाले इलाके में उड़ती धूल यहीं सांस के मरीजों को पैदा कर रही है. उनसे कहा जाता है कि इलाज के लिए दिल्ली चले जाइए.
अब थोड़ा पीछे चलते हैं. 2013 में आए केदारनाथ हादसे की वजह भी कमोवेश ऐसी ही थी चूंकि उसके रास्ते में बसाहट और यात्री ज्यादा थे इसलिए तबाही भी ज्यादा हुई. केदारनाथ हादसे के समय भी सरकार ने कोई सबक न लेते हुए श्रीनगर और तपोवन विष्णुगाड जैसी परियोजनाओं को हीरो बनाकर पेश किया था. तब कहा गया था कि इन बांधों की वजह से ही नुकसान पर नियंत्रण पाया जा सका. यानी जो मरे, वे मरे लेकिन जो बच गए उन्हे बांधों ने बचा लिया. पहली गंगा मंत्री उमा भारती से लेकर वर्तमान उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेद्र सिंह रावत तक सभी इन बांधों के पैरोकार रहे हैं, चमोली हादसे के बाद दिए जा रहे इनके बयानों और भावों पर यकीन करने का मन कर रहा हो तो इनके पूराने इरादों को गूगल कर लीजिए.
चारधाम यात्रा मार्ग, जिसे चालाकी से ऑल वेदर रोड कहा जा रहा है, से उत्साहित लोगों को यह जरूर जानना चाहिए कि उनके मोहल्ले और गांव में बनी रोड भी ऑल वेदर रोड ही होती है, कोई भी रोड यह सोच कर नहीं बनाई जाती कि वो अगली बरसात में बह जाएगी. महत्वपूर्ण यह है इसे बनाने के लिए भारी मात्रा में ब्लास्ट किए गए, हजारों– हजार पेड़ों को काट दिया और मलबा नदी में डाला गया, दिखाने के लिए जरूर कुछ मलबा डम्प स्थान बनाए गए हैं. ढेर सारा नुकसान हो जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने देरी से कदम उठाया और पर्यावरणीय नुकसान जानने के लिए रवि चोपड़ा समिति बना दी. समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि इन परियोजनाओं से हिमालय को भारी नुकसान हो रहा है और ग्लेशियर पिघलने का खतरा बढ़ा है. लेकिन शायद ही किसी ने इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया हो.
बहरहाल चमोली के इस आमंत्रित हादसे में सौ से ज्यादा लोगों की बलि दी गई है. चूंकि बलि मजदूरों की दी गई है इसलिए मामला जल्दी ही शांत हो जाएगा. विकास की गति तेज है उसे रोका नहीं जा सकता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)
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bakwaas, civil engineering naam ki cheez author ke lal jhande se jayada complex hai iska ye matlab nahi ki civil engineering exist nahi karti.
हिमालय से मै भली भाति परिचित हू अब यदि विकास चाहिये आवागमन के रासते चाहिये तौ पहाडो को काटना भी पडेगा बिजली चाहिये बांध भी बनाने पडेगे पहाडी लौगो की कमाई पर्यटन से ही संभव है पर्यटन गति़ को पहाड का मुखय वयवसाय बनाना है तो यह सब करना होगा मैने वह दिन भी देखे है जब पहाडो पर एक महीना पैदल जाने मै लगता था कमाई के नाम पर जीरो था ऊतराखंड आज बडे बडे होटल है खाने के होटल खोले गये है असपताल बाजार बन रहे है रही बात कुदरत की आपदा की वह कौई नही रोक सकता ऊची ऊची चटटानो से भुसखलन बर सात मे आम बात है हा यह कर सकते है जहा भी गंजे हो चुके जंगल पहाडो पर अंधाधुंध पेडो को रोपण किया जाये जिससे भुसखलन रूकेगा एक पेड काटा जाये एक सो पेड लगा दिये जाये अधिकतर पहाड बंजर हो चुके है अब100साल वाला जमाना नही रहा बैलगाडी लेकर सफर पर चलैगे समय के साथ साथ सब बदलता है कुदरती आपदा को नही रोका जा सकता बिजली के लिए सौर ऊर्जा विकलप है हजारो फीट ऊची चट्टानी पहाढी ढलाने बारीश के कार ण कमजोर पडती जाती है ओर धीरे धीरे कटान होता रहता है फिर अचानक से पहाड खिसक पडता है नदियो के किनारे होटल मकान नही बनाने चाहिये और ऊचे खडे पहाड के नीचे मकान भी खतरनाक साबित होते है कब पहाड गिर जाये समतल जमीन जहा पर खुला सथान हो वहा आबादी बने गंगौक्ती मंदीर के चारो और बहुत ऊची पहाडिया है कभी भी भारी भुसखलन भयंकर आपदा को निमंत्तण देगा चाहे तो जाकर देख सकते है प्रकृति के साथ हम लड नही सकते पंरतु धनयवाद दे सकते है वही सबकी माता है। मनुष्य लगातार प्रकृति से लेता ही आया है वह हमेशा माता बनकर सेवा करती है पालती परोसती है जो हुआ है उसके लिए खेद है
The author should spend some time in distant himalayan village for sometime before questioning the projects like all weather road. Can’t do that then please read any local newspaper published in the monsoon season from these areas. Every other day one could find news of school buses falling into gorges because of the poor narrow roads. Or is the author suggesting that everyone should migrate away from these villages to the plains and leave them for Chinese invasion? Sitting in the comfort of rooms in the plains and preaching about environment is very easy.
How do I know? I come from this region.
Aap ko ye bhi maloom hoga ki uttarakhand ke gaon me peo jal ki kitni dikkat hai. Gramin ko dur tak chalna hota hai har roz. Jahan jahan bhi baandh ya jal vidhyut prakalpa hai wahan ke aaspas base gaon ke nal sukhe pade hai kitne saalon se. Ek do bar main Tehri gaya tha aur wahan ke logon ne khud bataya. Uske baad ye sadken banana aur pedh katne jaise kaam se himalayas ko bhari nuksan pohunch raha hai. Seismic zone hai isliye aur jyada savdhan hone ki zarurat hai n ki development ke naam par aisa plans jisse prakriti aur wahan base log dono ka hi nuksan ho raha hai. 1991 me ek earthquake me Maneri Bhali ke paas ek gaon pura zameen ke niche chala gaya tha. Agar Kendra aur Rajya sarkar, dono in baaton par dhyan de to ek behtar India ban sakta hai.